हास्य व्यंग्य

बिन मुर्गी का अंडा

खबर आग की तरह चारों ओर फैल गयी। जिसने भी सुना उसने यही कहा कि ‘क्या खुले आम!’ कुछ तो हैरानी जता कर बात खत्म कर गये पर कुछ दो कदम जा कर पीछे भी आए। ‘नहीं ! वैसे तो ये हैरत वाली बात नहीं है, पर, इस तरह खुल कर आ गये ये लोग ?’ कहते हुए अपने पीछे आने का प्रयोजन स्पष्ट किया फिर आगे बढ़ गये। कुछ एक को इस खबर पर रोटियाँ सेंकने का मौका मिल गया। ये वस्तुतः वो लोग थे जिन्हें जलता हुआ घर देखने में मज़ा आता था, और अपने इस आनन्द के लिये ये किसी के घर में आग लगाने से हिचकते भी नहीं थे।

“अरे, मैं न कहा करता था कि इन  लोगों का अक्सर ये धंधा है ! सो वो बात सही निकल आई ना !” एक ‘आग लगाऊ’ ने कहा और बारी बारी सुनने वालों के चेहरे पर अपने कथन का असर देखने लगा, मानो उनसे अपने हुनर का सर्टीफिकेट चाहता हो।

“नहीं, परोक्ष रूप से तो तकरीबन सभी ही इस क्रिया में लिप्त हैं परन्तु, क्या अब नज़र के पर्दे की भी ज़रूरत  नहीं रह गयी ? इसी बात की हैरानी है मुझे”, एक ‘परायी  आग में हाथ सेंकू’ ने हैरानी की वजह का विस्तार किया।

“अरे साहब, आप  ये बताइये कि कौन से काम छिपा के हो रहे हैं ! महोत्सवों में रंडियों और नचनियों के अश्लील नाच, औरतों से अभद्र व्यवहार, नौकरी के नाम पर यौन शोषण और घोटाले, और न जाने क्या क्या । क्या ये सब कोई छिपी तौर पर हो रहे हैं ?” एक ‘जलते घर पर सेल्फी उतारू’ ने उस खबर के कपड़े ही उतार के रख दिये।

“ये सरकार तो गयी,” एक ‘शाश्वत सरकार कोसू’ ने फैसला भी सुना दिया ।

“पर कोई ये तो बताओ कि खबर क्या है?” एक ‘दीन-दुनिया से बेखबर’ ने पूछा तो सबकी नज़र उस अजूबे की तरफ घूम गयी।

“ए लो जी, यहाँ सारी कहानी खतम भी हो गयी और ये जनाब पूछ रहे हैं कि सीता किसका बाप था,” पराई आग में हाथ सेंकू ने कमेन्ट मारा तो कुछ लोग हंस पड़े और कुछ पूछ बैठे कि कहाँ था वो अब तक।

“फिर भी ! हमें भी तो पता चले की किस बात पे चर्चा बहम है,” दीन-दुनिया से बेखबर ने मायूस न होते हुए अपना प्रश्न दोहराया। अब सबकी नज़र आग लगाऊ की तरफ घूम गयी क्योंकि उस खबर का जिक्र पहली बार उसी ने किया था ।

“बताओ भाई इन्हें, क्या खबर है,” पराई आग में हाथ सेंकू ने खबर की अनभिज्ञता से खुद को बचाते हुए आग लगाऊ को आगे कर दिया तो बाकी लोगों की भी जान बच गयी। आग लगाऊ बगलें झाँकने लगा क्योंकि असल खबर क्या थी ये उसे भी नहीं मालूम था। वो बस इतना जानता था कि कल्लू नाई सुबह सबेरे किसी नेता के कारनामे गिना रहा था जो उसने किसी खबरी चैनल पर सुनी थी। पर उसकी स्थिति अपनी अनभिज्ञता जताने की कत्तई नहीं थी।

“वो क्या है कि सबेरे वो कलुआ कुछ टीवी का हवाला दे कर नेताओं के बारे में कुछ अंट-शंट बोल रहा था। अब उसके पास तो कोई चंडू खाने वाली खबर तो होती नहीं, सो हम समझ गये कि अपने नेता जी ने फिर कोई गुल खिलाया होगा। यही बात हमने आगे बढ़ा दी,” आग लगाऊ ने झेंपते हुए स्पष्ट किया।

“ये तो वही वाली बात हुई कि सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठ,” सेल्फी उतारू ने उपहास उड़ाते हुए कहा तो आग लगाऊ ने भी उसी के अंदाज में तड़ से जवाब झोंका, “किसी ने कहा कि कौआ कान ले गया तो सब कौए के पीछे भाग लिये । किसी ने कान पर हाथ लगा कर जानने की कोशिश न की।”

“अरे, यह औरतों की तरह लड़ना छोड़ो और चलकर कलुआ से पूछा जाय कि माजरा क्या है,” हाथ सेंकू ने जब सुझाया तो सब खबर विश्लेषकों के मुँह से संवेद स्वर में निकला, “आप भी?”

सभी कल्लू नाई की दूकान की तरफ हकीकत जानने के लिये चल दिये पर दीन-दुनिया से बेखबर से न रहा गया।

“हमें सीता का बाप बता रहे थे और रावण किसकी माँ थी ये किसी को पता ही नहीं है। भई वाह !” उसने भी चुटकी ली।

उस वक्त कल्लू अपनी दूकान के बाहर बैठा जाड़ों की मलमली धूप का आनन्द ले रहा था। चार पाँच लोगों के गोल को अपनी दूकान की तरफ आते देखा तो उसे लगा कि गाँव में कोई तड़ी पार हो गया है और लोग सर मुँडाने के लिये आ रहे हैं।

“परभू, आप की महिमा अपरंपार है जो आज आप ने हमारी झोली भरने का जुगाड़ कर दिया । मरे को सुरग मिलै,” कहता हुआ कल्लू  उस्तुरा लाने के लिये दूकान के अंदर लपका। खबरनवीसों को लगा कि वो अपनी चोरी पकड़े जाने के डर से भाग रहा है। बस फिर क्या था।

“अबे, ठहर ! भागता कहाँ है ?” कहते हुए सेल्फी उतारू ने उसे धर दबोचा।

“उल्टी-सीधी अफवाहें फैला कर मोहल्ले में बदमज़गी फैलाता है ?” कहते हुए वे लोग उसे उसी कुर्सी पर वापस ले आए जिस पर थोड़ी देर पहले वो आराम फर्मा रहा था।

“अरे साहिब, हमने कौन सी अफवाह फैलाई?” उसने अति दीन स्वर में सवाल किया।

“वो सबेरे तुम किस नेता का चिट्ठा पढ़ रहे थे?” आग लगाऊ ने तहकीकात की कमान अपने हाथ में लेते हुए पूछा। और क्यों न लेते, इज्ज़त भी तो उन्हीं की दाँव पर लगी हुई थी।

“कउन नेता साहब?” कलुआ रिरियाते हुए बोला।

“भाइयों, क्या किया जाय इसका ! ये अच्छी तरह से जानता है कि इसकी बातें हम सब सच मान कर चलते हैं क्योंकि इसकी पहुँच कहीं से कहीं तक है, और अब? ये हमें ही टहला रहा है !” कहते हुए हाथ सेंकू ने उसका गिरेबान थाम लिया। गिरेबान तक हाथ तो एक ताँगेवाला भी नहीं बर्दाश्त करता तो भला कल्लू नाई क्यों बर्दाश्त करता। एक झटके से उसने अपने आप को छुड़ाया और तन कर खड़ा हो गया।

“शराफत इसी में है कि आप सब मुँह से बात करिये, वर्ना हाथ पैर चलाना हम्मे भी आता है। किस खबर की बात कर रहे हैंगे, आप लोग ! और असली मसला क्या है?” उसने हाथ सेंकू की आँख से आँख मिलाते हुए पूछा। कल्लू के इस अप्रत्याशित बर्ताव से पराई आग में हाथ सेंकू दो कदम पीछे हट गया क्योंकि वो जानता था कि यदि कलुआ भिड़ गया तो हार उसी की होनी थी।

अपनी इज्ज़त अपने हाथ की कहावत को चरितार्थ करते हुए उसने कह, “सुबह तुम नहीं किसी नेता की बात टीवी खबर के सहारे से सबको सुना रहे थे ? क्या थी वो खबर ! जरा फिर से दोहराओ तो, ताकि हम में जो मतभेद हो गया है उसका निदान हो सके!”

“कउन खबर, भाई !” कल्लू असमंजस में पड़ गया। जाने कितनी ही खबरें उसके ग्राहकों द्वारा उसके पास पहुँचती थीं जिन्हें थोड़ा बहुत संपादित कर वो आगे बढ़ा दिया करता था। वह दिमाग पर जोर डालने लगा।

“कहीं आप वन राज्यमंत्री वाली बात तो नंई कर रहे !” अचानक कल्लू ने पूछा तो सब एक साथ बोल पड़े, “हाँ, वई”।

“अरे साहिब, अब ज्यादा पढ़े लिखे तो हैं नहीं हम। और ये टीवी चैनल वाले भी तो क्या लिख रहे हैं उसका हिज्जे-विज्जे देखने- जाँचने की जरूरत नहीं समझते। खबर थी कि ‘वन राज्यमंत्री ने फरेंदा में डाला डेरा’ मगर पर्दे पर लिखा आ रहा था ‘डाला डारा’। अब अगर हमने उसे ‘डारा’ के बजाय ‘डाका’ पढ़ लिया तो कौउनौ गुनाह किया का ? बस इत्तई बात थी,” बड़ी मासूमियत से उसने खुलासा किया।

श्रोताओं के चेहरे देख कर कोई भी अंदाज़ लगा सकता था कि बिन मुर्गी का अंडा कैसा होता है।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “बिन मुर्गी का अंडा

  • विजय कुमार सिंघल

    हा…हा…हा….हा…. करारा व्यंग्य. सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठा !! बहुत खूब, पाण्डेय जी. मजा आ गया ! काश हमारे माननीय सांसद महोदय भी इसे पढ़ लें ! तो संसद में बकवास करने से पहले कुछ सोचेंगे. (सन्दर्भ के सी त्यागी.)

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