कविता

कविता : तस्वीर

खरोच देता हूँ
आईने को खुद के हाथों से ।
मेरी तस्वीर के संग
उस बेवफा की तस्वीर क्यों बनती है ????
मेरी आँखों ने जैसे दुनिया में
कोई सूरत  न देखी हो ।
मेरे अश्क़ में भी बस गया वो इस कदर ।
तोड़ के देख लिया आईने न जाने कितने
टूटे दिल में उस बेवफा का अश्क़ नहीं टूटा ।

धर्म पाण्डेय

One thought on “कविता : तस्वीर

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !!

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