गज़ल
दरीचों से झांकता ऊजाला कहता है
अब इस घर में कोई रहता है……
शाख़ पर फिर पत्ते आ गए हैं
अब कोई परिंदा यहाँ बैठता है…..
लबों पर कोई दुआ खेलती है
अब सज़दे में सर झुकता है……
पलकों को मूंदते हैं आहिस्ता से
अब कोई ख़्वाब इनमें पलता है….
भर देता है खुशबुएं नई नई
झोंका जो सबा का गुजरता है….
दरीचा-window
बहुत खुब!!
शुक्रिया रमेश कुमार सिंह जी
वाह वाह ! बहुत अच्छी ग़ज़ल !
शुक्रिया विजय कुमार सिंघल जी