कहानी

मन का जख्मी कोना

“कुसुम !!! यह सब क्यों हुआ मैंने कभी सोचा भी नही था ऐसा!! हाय रे मैं मर क्यों नही गया यह दिन आने से पहले!!” आंसू भरी आँखों से विकास ने कुसुम के झुर्रियो भरे हाथो को थामा और लाचारगी से उसकी तरफ देखने लगा. कोने वाले कमरे के बिस्तर पर कृशकाय कुसुम विकास के कपकपाते हाथो को थामे टकटकी लगाये छत को देख रही थी

याद आने लगे उसको वोह पल जब उसने एक दुल्हन बन इस आँगन की दहलीज़ पर पाँव रखा था, 8 भाई-बहनों में चोथे बेटे की बहु थी वो… तब जमाना ही अलग था. शादी तब सिर्फ पति से नही पूरे परिवार से होती थी… पति से मन का मिलन हो न हो देह का मिलन हो जाता था और पूरे परिवार से मन मिले न मिले सर झुकाना पड़ता था. बहुत ही अरमान लेकर उसने भी अम्माजी की देहरी पर माथा टिकाया था…
अम्मा जी पूरे रॉब-दाब वाली बेहद खुबसूरत महिला थी क्या मजाल थी कि कोई बहु या बेटा उनके सामने एक शब्द भी बोल जाये.

चक्करघिन्नी सी घूमती सब बहुए दिन भर काम में लगी रहती जिसका काम अम्माजी का जरा भी नापसंद आता उसका रात को पति से पिट जाना लाजिमी था उस घर में… यह रोज का तमाशा था बस सोचना यह होता था कि आज किसका नंबर लगेगा. किसी को किसी से कोई शिकायत नही किसी को किसी से कोई हमदर्दी नही थी. साल दर साल परिवार बढता गया जगह कम होने लगी तो अम्मा जी ने सबसे बड़े बेटे का चोका अलग कर दिया शादी के 5 साल बाद कुसुम को भी पति के संग चार बर्तन देकर “जाओ अपनी घर गृह्स्थी खुद बनाओ चलाओ” कह कर घर से पीछे घेर ( जानवरों को बांधने की जगह ) का रास्ता दिखा दिया गया था

कैसे एक कमरे में कुसुम ने अपने बच्चे पाले कैसे दिन भर लोगो के स्वेटर बुन कर पैसे कमाए विकास को कुछ पता नही उसका काम था दिन भर दफ्तर में रहना उसके बाद अम्मा जी के घर हाजिरी… लौटने तक बच्चे नींद में होते. कभी साथ बैठकर विकास ने दो मीठे बोल भी न बोले
स्त्री दिन भर काम कर सकती हैं हैं. कम खा सकती हैं एक जोड़ी कपड़े मैं गुजारा कर लेगी बस शाम के वक़्त अगर पति दो मीठे बोल बोल दे. लेकिन यह बात हर पुरुष को कहाँ समझ में आती हैं… पैसा पैसा !! करता पुरुष स्त्री पर अहसान करता हैं कि उसके लिय पैसा कमाया जा रहा हैं जबकि स्त्री अपने आप से पैसा खर्च नही कर सकती| उम्र के आखिरी पायदान तक,जीवन का यौवन वो दंभ में गुजार देता हैं कि कि मैं पुरुष हूँ सृष्टि का रच्येता!! स्त्री तो सिर्फ जमीन हैं.जबकि वोह ज़मीन ही 9 महीने तक उसके बीज को अपनी कोख में अपने खून से सींचती हैं और तभी उसको मिलता हैं अपना वारिस… और उस वारिस को वोह गोद में लिए ऐसे खुश होता हैं जैसे सारा दर्द उसी ने झेला हो और उस नारी की पीडा को समझने के लिए उसके साथ तब भी किसी कोने वाले कमरे का अकेला सा बिस्तर होता हैं

कुसुम ने भी 4 बेटो को जना. खून का असर कहो या माहौल का बेटे बाप से भी सवा सेर निकले. बेटियाँ थी दो, जो उसके दुःख को जरा समझती थी. अन्दर से अकेली कुसुम को कब दिल का रोग लगा कोई नहीं जानता था. दिन थे के गुजर ही रहे थे… आज घर मैं कोई कमी नहीं न पैसे की न जगह की बस कमी थी तो आज भी उस संवेदना की जो कभी इस घर के पुरुषो ने us को कभी दी नही. सब बेटे भी अब बीबियो वाले थे खुद चाहे आज भी बीबी को जूतों से पिट ले पर कोई उनको कुछ कहे तो एक दुसरे का सर फोड़ने को तैयार… और आजकल की बहुये तो माशाल्लाह… खुद काम करे न करे. बेटो के सामने सास को ऐसी लपकती झपकती” कि माजी बेठो न हम हैं काम करने को, आप आराम करिए न.”… और बेटो के पलट जाने के बाद… “अरे मैं तो थक गयी हु हम क्या यहाँ नौकरानी बन जाने के लिय ब्याह कर आई थी, माँ आप चाय तो बना लाओ..”… माँ नौकरानी बन काम करती…

उस सुबह हद ही हो गयी… पता नही कौन सा शनि आज सजा दे रहा था या पिछले जनम के बुरे करम होंगे कोई. सुबह चाय बनाते वक़्त कुसुम के काँपते हाथो से ढूध का पतीला गिर गया थोड़ा सा ढूध पोते की बांह पर छींटे बनकर गिर गया. बच्चा बाल सुलभ आदत से जोर से चीखा… बेटे ने आव देखा न ताव… माँ पर हाथ उठा दिया… एक बेटे से अपने बेटे का दर्द न देखा गया…

उम्र भर पोते पोतियों की पुच्कारिया लेती कुसुम आज खलनायिका बन गयी थी बेटो बहु और बच्चो की नजर में. अपने कमरे में रोती कुसुम ने पूरा दिन खाना नही खाया न ही घर- भर में कोई पूछने आया. दो दिन बाद विकास को ही सुध आई सारी बात जान लेने पर उम्र उम्र के इस पड़ाव पर पहली बार उसका पौरुष जागा. उसने जब बेटे से जवाब तलब किया तो… जो नही होना चाहिए था वही हुआ… अपने बूढ़े बदन पर नील के निशाँ लिए और लहुलुहान आत्मा से विकास कुसुम के पास लौट आया

इंसान दुनिया से हर कदम पर लड़ लेता हैं पर हारता है वोह सिर्फ अपनी ही संतान के सामने !! सारी उम्र वोह खुद अपनी पत्नी को वोह सम्मान नही देता जिसकी हक़दार वोह होती हैं तो बच्चे कैसे अपनी माँ को सत्कार करे जिसको उसने उम्र भर त्तिरस्कृत होते देखा हो
कुसुम का हाथ थामे विकास खड़ा था उस चौराहे पर..जहा सोच के सब रस्ते खंडित हो जाते हैं कि कहा क्या गलत हुआ… और शून्य में ताकने के सिवा कुछ भी नही रहता… और आज जख्मी था आज दोनों के मन का कोना… अपनी अपनी परिधि में.

नीलिमा शर्मा (निविया)

नाम _नीलिमा शर्मा ( निविया ) जन्म - २ ६ सितम्बर शिक्षा _परास्नातक अर्थशास्त्र बी एड - देहरादून /दिल्ली निवास ,सी -2 जनकपुरी - , नयी दिल्ली 110058 प्रकाशित साँझा काव्य संग्रह - एक साँस मेरी , कस्तूरी , पग्दंदियाँ , शब्दों की चहल कदमी गुलमोहर , शुभमस्तु , धरती अपनी अपनी , आसमा अपना अपना , सपने अपने अपने , तुहिन , माँ की पुकार, कई वेब / प्रिंट पत्र पत्रिकाओ में कविताये / कहानिया प्रकाशित, 'मुट्ठी भर अक्षर' का सह संपादन

4 thoughts on “मन का जख्मी कोना

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी ! आज के समाज का सही आइना है यह !

    • नीलिमा शर्मा (निविया)

      shukriyaa ji

  • अनीता मण्डा

    भावनाओं और टूटते मूल्यों का सटीक चित्रण नीलिमा जी

    • नीलिमा शर्मा (निविया)

      shukriyaa anita ji

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