हास्य व्यंग्य

ऐ भाई ! ज़रा देख के…!!

भ्राता, भाऊ, बिरादर, पाजी, भैया, दादा, अन्ना, चेट्टन आदि भारतीय भाषाओं में ‘भाई’ शब्द के पर्यायवाची हैं। मेरा इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र और जीवशास्त्र का ज्ञान यह कहता है कि “एक ही दंपति से उत्पन्न से विभिन्न संतानें लिंगानुसार आपस में भाई या बहन कहलाती हैं।” यह पारंपरिक परिभाषा है। मुझे इस पर पूरा विश्वास नहीं है। मेरी तार्किक बुद्धि आधुनिक समाज शास्त्र और अर्थ शास्त्र का अनुगमन करती हुई कहती है कि “एक ही दंपति से उत्पन्न से अनेक पुल्लिंग संतानें जो उस दंपति द्वारा संचित और अर्जित संपत्ति के लिए आपस में वाद-विवाद, मारकाट और युद्ध करती है उसे ‘भाई ’ कहते हैं ।” यानि भाई वह जो-लडे़ं। एक बात इस संदर्भ में गौर करने वाली है। आज़ाद भारत में सांप्रदायिक दंगे अधिक हुए हैं। इसका कारण है किसी विद्वान का यह जुमला-‘ हिन्दू – मुस्लिम – सिक्ख – ईसाई, सब आपस में भाई-भाई।’ और जब सब आपस में भाई-भाई हैं तो लड़ाई तो होगी ही ना! अब भुगतो!! हमारे बुजूर्ग भी ना, संस्कार डालने के चक्कर में बारीक त्रुटियाँ कर बैठते हैं। दरअसल भाई साहब ,‘भाई ’ होने के बाद लड़ाई-झगड़े, मनमुटाव होना, फसाद ये सब नीयति है। वह भाई क्या जो आपस में लड़ाई ना करे? आप इसे कुसंस्कृति हैं। यह आपका भ्रम और पूर्वाग्रह है। बल्कि यही संस्कृति है। लीजिए मैं प्रमाणित किए देता हूँ।

इसके लिए हमें अतीत के पन्ने पलटने होंगे। क्योंकि यही परंपरा है। और यह भी हमारी ही परंपरा है कि हम अतीत की ओर सिर्फ देखते हैं, सीखते कुछ नहीं। अतीत से सीखने वालों को आज का सभ्य समाज ‘ओल्ड फैशंड’ औार ‘आअट डेटेड’ मानता है। छी!! इस कंप्यूटर और नेटयुग में यह नासमझी!! खैर।‘भाई’ शब्द का इस संसार में आदिकाल से ही रिकार्ड खराब रहा है। कुछ प्रसिद्ध भाइयों के रिकार्ड को देखिए। रावण, कितना प्रकांड विद्वान, धर्मज्ञ और राजनीतिज्ञ था? किंतु अपने स्वार्थ के लिए कुंभकर्ण जैसे पराक्रमी और बलशाली भाई को मरवा डाला। अच्छा खासा सो रहा था बेचारा। उस विभीषण के तो कुल्हे पर लात मारकर उसने लंका के बाहर की सीमा दिखा दी। बाद में विभीषण ने जो किया वह भी भ्रात्धर्म के अनुकूल था। जिसके लिए लोगों ने कहावत ही गढ़ दी-‘घर का भेदी, लंका ढाए।’ कंस की काली करतूतों का ये आलम है साहब कि बहनें भी अपने ओरिजनल भाइयों से आजतक घबराती हैं। और उस धर्मराज युधिष्ठिर ने तो हद कर दी साहब! सारे भाइयों को दाँव में हार गया। यहाँ तक कि सबकी ‘कामन वाइफ’ द्रौपदी का भी नहीं बख्शा। और मक्कारी तो देखिए, कहता रहा यही धर्म है। वाह रे वाह!! एक और भाई थे- बाली-सुग्रीव। बाली ने तो सुग्रीव की लुगाई को ही अपनी घराड़ी बना कर रख लिया था। बेचारा सुग्रीव भरी जवानी में किष्किंधा के जंगलों में बंदरों के गिरोह के साथ मारा मारा फिरता रहा। ये ही भाई-लीला! समझे?

क्या कहा-‘राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न’? राजा दशरथ की संतानों की बात न कीजिए। मुझे तो ये बाबा वाल्मीकि की मनगढंत कल्पना लगती है। भाई और लड़ाई ना हो? असंभव! नामुमकिन!! कवि की कल्पना ठहरी साहब! जंगल में मोर नाचा किसने देखा? घर-परिवार में थोड़ी-बहुत बातें हो भी जाती रही होगी तो राजा जी उसको बाहर नहीं आने देते होगे। सभ्य परिवार की यही पहचान है। आज भी लोग ऐसा ही करते हैं। भले ही माडर्न हो गए तो क्या? पत्नी का मामला- कैकेयी का- ज़रा पेचीदा था। जो हमेशा रहता है। संभाल न सके। परिणाम सामने है। पूरा एडमिनिस्ट्र और सिस्टम हिल गया और खुद परलोक वासी हो गये। मुझे तो लगता है कि वाल्मीकि बाबा जो कि पहले रत्नाकर डाकू के नाम से ‘भाईगिरी’ किया करते थे। ये उनके दिमाग की आदर्शवादी उपज थी। उन्होंने प्रेमचंद को नहीं पढ़ा था। जो कहते थे कि ‘आदर्श के आसमान से कल्पना का धरातल अधिक कठोर होता है।’ वरना ऐसी मधुर कल्पना के बदले कोई रोमांटिक गीत लिख देते। उनकी सारी उम्र तो बीती मारकाट, लूटमार, चोरी-डकैती में। जब जी ने कचैटा तो सोचा चलो कविता लिख दी जाए। बस बिल्ली ने चूहे खाकर हज पर जाने का कार्यक्रम बना डाला । जिसका परिणाम है ये-रामायण। और रही सही कसर तुलसी बाबा ने ‘मानस’ में पूरी कर दी। दद्दा के चार भाई होते ना तो लिखना भूल जाते और बाप की प्राॅपर्टी में से हिस्सा लेने के लिए अदालत में अर्ज़ी लगाते-लगाते कलम घिस जाती। बच्चू! यथार्थ भोगा होता तो पता चलता। जाके पाँव ना पड़े बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’

और ये तो रही अतीत की बातें। औंरंगजे़ब ने अपने बाप के सारे बेटों को मौत के घाट उतार दिया था। भैया ये भाइयों के झगड़ों में बड़े-बड़े रजवाडे़ उजड़ गए। उद्योगपतियों की कलई खुल गई। और हमारी सरकार ने विद्यालयों की पुस्तक में ‘छात्र-प्रतिज्ञा’ चिपका रखी है पहले पृष्ठ पर। जिसे विद्यार्थी ‘भीष्म-प्रतिज्ञा’ की तरह पालन करता है। प्राण जाहिं पर वचन ना जाहिं। इतना संस्कारवान बच्चा जब विद्यालय से निकलेगा तो भ्रातृ-धर्म निभाएगा ही ना? देश की अदालतोें में बूढ़े माँ-बाप अपने बेटों को चार इंच की ज़मीन के लिए दशकों तक लड़ते देखते हैं और चैथेपन में चार आने तथा चार रोटी के लिए खून के आँसू बहाते हैं। तब उनका वह भोगा हुआ यथार्थ दिल में टीस पैदा करता है जब लड़कपन में ये चारों तोतली बोली में लड़ा करते थे। आज वही एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं। यथार्थ ये भाई साहब कि गरीब माँ-बाप जिन चार बेटों को रात दिन मजदूरी कर पालपोसकर खड़ा कर देते थे वे ही चार बेटे , अब ‘चार भाई ’ के रूप में अपने माँ-बाप को नहीं पाल सकते। जो बच्चे बचपन में कहते थे ‘मेरी माँ-मेरी माँ’ वे ही बडे़ हो कर कहने लगते हैं ‘तेरी माँ-तेरी माँ’। यही सचाई है, मेरे भाई। माफ करना ज़रा भावुक हो गया।

इतिहास की पुस्तक में पढ़ा था कि विवेकानंद जी के मुखारबिंद से अपने लिए ‘भाइयों-बहनों’ सुनकर शिकागोवासी अभिभूत हो गए थे। क्या करें? उन्हें भाई शब्द का सही अर्थ ना जो पता था। वैसे इस बेरोजगार भारत में ‘भाईगिरी’ का धंधा जोरों से फल-फूल-फैल रहा है। ये रोजगार किसी कुटीर उद्योग की तरह मोहल्ले की चाहरदीवारी में जन्म लेता है और फिर धीरे-धीरे इसका साम्राज्य गाँव-कस्बे और नगर-शहर की सीमाओं को तोड़ता हुआ नेता की कुर्सी या विधानसभा तथा लोकसभा की सीमाओं में प्रवेश कर जाता है। ‘भाईगिरी’ का पदोन्नत रूप है – ‘दादागिरी’। जो आज भाई है वह कल दादा होगा ही। यह इस सिस्टम का नियम और नीयति है। दादा का प्रभावा ऐसा होता है कि उसके डर से सब उससे प्यार करने लग जाते हैं। तभी तो तुलसी दद्दा कह गए-‘भय बिन प्रीत न होय गुसाईं’।

हमारे बुजूर्ग प्रायः कहा करते थे कि- चोर-चोर मौसेरे भाई। यानि जो चोर होंगे, वे भाई होंगे। या जो भाई होंगे, चोर होंगे? पता नहीं। आज अधिकांश भारतवासी अपने-अपने तरीके देश को लूटने में लगे हैं। हमाम में सब नंगे हैं। यानि सब चोर! और मौसेरे भाई!! ऐसे ही तो भाई चारा बढ़ता है ‘भाई साहब’। जो भी हो हमारी इस भाई संस्कृति का सबसे अधिक किसी ने लाभ उठाया तो हमारे पड़ोसी देश चीन ने। उसने हमसे बुद्ध लिया और बदले में धोखा दिया वह भी भाई बनकर। उसे पता था कि भाई बनकर ही धोखा दिया जा सकता है। और इसी तर्ज़ पर उसने नारा बनाया- चीनी -हिन्दी, भाई-भाई। हम आदर्शवादी भाई बने रह गया और वह ‘भाई’ बनकर लद्दाख की भूमि हमसे छीनकर ले गया। हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जी पीठ में घोंपे गए इस छूरे का दर्द ज्यादा दिन न सह सके और परलोक चले गए। कुछ महीने पहले भी ये ‘चीनी भाई’, भाभी के साथ आया था। इधर वह हमारे नरेंद्र भाई को झूला झुलाते रहा, उधर उसके भाई चुनार में चैकियाँ बनाते रहे! सारा देश टी. वी और अखबारो में देखता रहा और सोचता रहा कि-‘ये हो क्या रहा है, भाई?’ ये भाई लोग आते हैं और बिना लडे़ ‘समझौतों’ पर हस्ताक्षर करवा कर चले जाते हैं। दशक पूर्व चीन के साथ हुए ऐसे ही ‘समझौते’ ने हमारे देश के करोड़ों भाइयों के हाथ काट डाले।

सुनने में आ रहा है कि फिर प्रधानमंत्री ‘चीनी भाई’ के घर जानेवाले हैं। पर ऐ भाई ज़रा संभल के…। ये बिना लड़े किए जानेवाले समझौते बडे़ घातक होते है। जाइए-जाइए। पर ज़रा संभल के। क्योंकि-
ये चपटी नाकोंवाले भी, नंबर एक खिलाड़ी हैं
भोली सूरत पर मत जाना, इनके पेट में दाढ़ी है
इस चीनी में चीनी कम है, और करेला ज्यादा है
चाल चलें घोड़ोंवाली पर, दिखता बिल्कुल प्यादा हैं
अवसर मिलते ही ये चीनी, सारे वादे तोड़ेंगे
बिच्छू के वंशज हैं ये न, डंक मारना छोड़ेंगे।

शरद सुनेरी
मो.9421803149

One thought on “ऐ भाई ! ज़रा देख के…!!

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा व्यंग्य लेख !

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