लेख

संकटमोचन देवी है माँ

वह दुनिया का सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति है जिसे माँ का प्यार मिला है। उसे देवी-देवताओं को पूजने की क्या जरुरत है जिसके सर पर माँ का आशीर्वाद है। माँ हमेशा अपने बच्चों की खुशियों के लिए भगवान की पूजा करती रहती है। उसकी सफलता के लिए भगवान से मिन्नतें करती रहती है।

माँ एक ऐसा पवित्र शब्द है जिसे किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता है। माँ एक दीपक है जो खुद जलकर अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल करती है। माँ उस वट वृक्ष के समान है जो खुद धुप में रहकर अपने बच्चों को ममता का छाँव देती है।

वह नारी अपने-आप को सबसे भाग्यशाली समझती है जिसे माँ बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। तब वह अपने आप को एक सफल संपूर्ण नारी समझती है। वह अपनी जिंदगी को दाँव पर लगाकर बच्चे को जन्म देती है फिर भी उसे अपने बच्चे को पाकर ऐसा लगता है कि भगवान ने उसके आँचल में संसार की सबसे बड़ी खुशी डाल दी है। उसमें मातृत्व के सभी गुण आ जाते हैं। वह एक जीवन को जन्म देकर पाती है कि वह नन्हा-सा जीवन उसके अपने जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

तब उसकी खुशियों में चार चाँद लग जाता है जब बच्चा माँ..माँ..कहने लगता है। मैं नहीं जानती कि ये कोई इत्तेफाक है या कोई दैवी कृपा कि भारतीय समाज में जन्म लेनेवाला हर शिशु पहली बार माँ-माँ शब्द का ही प्रयोग करता है। माँ एक ऐसा पवित्र, सार्थक और सटिक शब्द है जो दिल से निकलता है। इस बदलते परिवेश के अनुसार आजकल के बच्चे अपनी माँ को ‘मम्मी’ , ‘मॉम’ या ‘मम्मा’ कहकर संबोधित करते हैं जो भारतीय माँ के लिए मजाक है।

माँ की ममता सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं बल्कि सभी जीव-जंतुओं में देखने को मिलता है। माँ के प्यार के बिना बच्चों का विकास नामुमकिन है। उदाहरण स्वरुप, कछुआ अन्य जीवों के अपेक्षाकृत ज्यादा अंडे देती है ; एक साल में लगभग 1500 अंडे। लेकिन पंद्रह सौ अंडों में से एक-दो अंडे ही बड़ा होकर कछुआ बन पाते है। ऐसा क्यों ? इसका जवाब यही है कि उन अंडों पर माँ के आँचल का छाँव नहीं मिलता है। माँ ही सृष्टि की जन्मदात्री है। उसके बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

भारतीय संस्कृति में माताओं का सम्मान सदियों से चला आ रहा है लेकिन अब इस संस्कृति को पश्चिमी सभ्यता की नजर लग गयी है। आज के युवा भौतिकवादी हो गये हैं। वे माँ के प्रति अपना कर्तव्य भुलते जा रहे हैं। वह अपने परिवार और काम में इस प्रकार व्यस्त रहता है कि अपनी माँ से प्यार भरा दो शब्द बोलने के लिए भी समय नहीं निकाल पाता है। वह अपनी माँ की इच्छाओं को समझना नहीं चाहता है। माँ पैसों की नहीं प्यार की भूखी होती है। वह अपने संतान से सुख-सुविधाओं की माँग नहीं करती है। वह तो बस यही चाहती है कि उसके बच्चें उससे उसी प्रकार प्यार भरी बातें करे जिस प्रकार वह बचपन में तोतली बोली में करता था।

माँ दुनिया की सारी खुशियाँ अपने बच्चों के नाम कर देना चाहती है। अगर उम्र बिकने की चीज होती और खुशियों की कोई दुकान होती तो माँ उसे अपने बच्चों के लिए जरुर खरिद देती चाहे उसकी किम्मत में उसे अपनी जान ही क्यों न चुकानी पड़े। माँ का ऐसा अगाध प्रेम किसी और के दिल में देखने को नहीं मिलता है। माँ और संतान के बीच का बंधन ऐसी मजबूत धागे से बंधा होता है जो न तोड़ने से टूट सकता है और न काटने से कट सकता है। उसका जुड़ाव तो नाभी-नाल से कटकर भी जुड़ा होता है। शिक्षा, व्यवसाय आदि कारणों से माँ और संतान के बीच कुछ दिन के लिए भौगोलिक दूरियाँ अवश्य बन जाती है परन्तु आत्मीय संबंध तो बना ही रहता है। वह हमेशा उसे अपने दिल के करिब पाती है।

भारतीय माँ त्याग की प्रतिमूर्ति होती है। आमतौर पर उसके नाम की कोई जमीन-जायदाद या बैंक राशि नहीं होती है, फिर भी उस ममतामयी माँ को कोई शिकायत नहीं। जबकि कानूनन हर महिलाओं को अपने पिता और पति के सम्पति में हिस्सा दिये जाने का प्रावधान है , पर इससे क्या ? इस त्याग की मुर्ति को धन-दोलत का कोई लोभ नहीं। वह अपने परिवार और बच्चे को ही अपनी पूँजी मानती है। ऐसे में जब उसके अपने ही बच्चे उसे पराया (बोझ)समझने लगते हैं तो उस ममतामयी के दिल पर क्या गुजरता होगा इसकी कल्पना एक माँ हीं कर सकती है। दुर्भाग्यवश यदि वह माँ वैधव्य झेल रही हो तब तो उसपर दुःखों का पहाड़ ही टूट पड़ता है। उम्र के चौथे चरण में उसके भुजाओं में इतना बल शेष नहीं रह जाता कि अपनी जीवन की नैया को अकेले चला सके। वह अपने ही घर में दब कर रहने लगती है। फिर भी वह अपने संतान को बद्दुआ नहीं देती है। वह भगवान से उसकी मंगलकामना करती रहती है। वह उसकी सभी गलतियों को एक बूरा सपना समझके माफ कर देती है। माँ दया, माया, त्याग, सहिष्णुता की मिशाल है। वह हमेशा अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देती है। उसे अच्छा आदमी बनाना चाहती है।

आज के युवा माँ की परिभाषा भले ही भूल गये हैं लेकिन अपनी माँ को नहीं भूले हैं। आज पश्चिमी सभ्यताओं को अपनाने की उनमें होड़ लगी है। वे पश्चिमी लोगों की तरह अपनी माँ को खुश करने के लिए साल में एक दिन ‘मदर डे’ मनाते हैं। इस दिन वे अपनी प्यारी माँ को याद कर उसे प्यार भरा तोहफा भेजते हैं। परन्तु ये नया रिवाज मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। क्या ये उचित है कि हम अपनी माँ को एक बधाई-पत्र भेजकर या अपने मोबाईल से ‘आई लव यू माँ’ या ‘हैपी मदर डे’ कहकर अपनी कर्तव्यों से मुक्त हो जायें ? जिस माँ ने हमें अपने खून से सिंचा, कहीं शीत न लग जाये इस डर से गोद से नहीं उतारा, चेहरे पर जरा सी मलिनता देखकर आँखों में ही रात बिता दी, हमारी जिद्द को पूरा करने के लिए अपनी सारी इच्छाओं को दबा दी,हमें लायक बनाने के लिए सारा उम्र कुर्बान कर दिया उसके लिए साल में एक दिन काफी है ? जब ईमानदारी से दिल से पूछें तो एक ही आवाज निकलती है-नहीं। हम भारतीयों के लिए तो हर दिन मदर डे के समान होता है।

आज हमारी माताओं को बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आज लोगों के मन में ये भ्रम पैदा हो गया है कि सास कठोर दिल की होती है। वह बहूओं पर शोषण करती है। और ये टीवी सीरियल वाले तो इसे हकिकत सावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मैं उन टीवी निर्देशकों से निवेदन करती हूँ कि वे एक सास की ऐसी अवास्तविकता को न दिखायें। इससे एक माँ के दिल को ठेस पहुंचता है क्योंकि हर सास एक माँ होती है और माँ का दिल इतना कठोर हो ही नहीं सकता है। यदि कोई सास अपनी बहू के साथ गलत व्यवहार करती भी है फिर भी बहू को उसे माँ की तरह मानना चाहिए। उसे सफलता अवश्य मिलेगी क्योंकि सास का दिल एक माँ का दिल होता है। उसे जल्द अपनी गलती का एहसास हो जायेगा और वह अपनी बहू को अपने पलकों पर रखेगी।

यदि दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह माँ के आँचल में है। यदि कुबेर का खजाना और स्वर्ग के सुखों के साथ माँ के आँचल को तौला जाये तो माँ का पलड़ा ही भारी होगा। भगवान हमेशा हमारे साथ नहीं रह सकते इसलिए उन्होंने माँ को बनाया। माँ संकटमोचन होती है तभी तो खुशी या कष्ट में अनायास ही हमारे मुख से ‘माँ’ शब्द निकलता है। माँ देवों की देवी है, पुज्यों की पूज्या है। बस हमें जरुरत है इसकी महिमा को समझने की। किसी ने सच ही कहा है- ||जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी ||

दीपिका

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

One thought on “संकटमोचन देवी है माँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख ! माँ से बढ़कर संसार में कोई नहीं !

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