सामाजिक

अंधविश्वास का दलदल

आज हमारा देश लाख प्रयास के बाद भी विकास की बहुमंजिली इमारतों का पर्वतारोहन नहीं कर पा रहा है इसका मुख्य कारण है कि यहाँ की 80 % से ज्यादा आबादी अंधविश्वास के दलदल में फँसी है। जहाँ एक ओर दुनिया चाँद और मंगल पर पहुँच चुकि है वहीं दूसरी ओर लोग आज भी अशिक्षा के कारण भूत-भगत, झाड़-फूँक के चक्कर में जान गवां रहे हैं और मौत की वजह को डायन या भूत का प्रकोप मानते हैं। वे आज भी विधवा या बाँझ स्रियों को अशुभ और अश्पृश्य मानते हैं । किसी के छींकने पर या बिल्ली के रास्ता काटने पर अपने बढ़ाये कदमों को पीछे खिंच लेते हैं।
अपनी असफता के लिए भाग्य-नशीब, को दोष देते है। एक पुरानी कहावत ‘चलनी में गाय दूहे कहे भाग्य का दोष’ इनपर बिल्कुल चरितार्थ है। ये ग्रह-राशि को अपना भविष्य मानते हैं। हमलोग भगवान को श्रद्धा से प्रसाद चढ़ाते हैं और येलोग भगवान को भी घूस देते हैं। उनसे मिन्नत करते हैं कि यदि मेरी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे तो घी के लड्डू चढ़ायेंगे, सोने की हार चढ़ायेंगे और न जाने क्या-क्या । अरे हमलोग भगवान के संतान हैं , क्या वे रिश्वत और पैरवी से हमारी मनोकामनाओं को पूरी करेंगे ? कामयाबी मेहनत से मिलती है मिन्नत से नहीं।मैं ये नहीं कहती हूँ कि भगवान को मत मानो। मुझे भी भगवान में पूरी आस्था है। लेकिन अपनी गलतियों के लिए भगवान को जिम्मेदार मत ठहरायें। बिना कर्म किये भगवान कुछ नहीं देंगे, उनके दरवार पर लाख सर पटक लो। अरे हमें मजदूरी काम करने पर ही मिलती है न माँगने पर तो सिर्फ भीख मिलती है। भगवान भी गीता के उपदेश में बताये हैं कि कर्म करो फल की चिंता मत करो । अगर हम ईमानदारी पूर्वक काम करेंगे तो हमें सफलता जरुर मिलेगी। अगर सफलता नहीं मिल रही है तो हमें अपने आप में कमी ढूंढ़नी चाहिए न कि भाग्य और भगवान पर अपना दोष मढ़ दें।
मैं गाँव में रहती हूँ। मैंने गाँव के अंधविश्वास को करिब से देखा है। जब मैं अंधविश्वास से परे उन्हें सच का आईना दिखाना चाहती हूँ तो वे नादान समझके उल्टे मुझे ही समझाने लगते हैं। उस वक्त मुझे उनपर तरस आता है क्योंकि ये अंधविश्वास उनमें अशिक्षा और अज्ञानता के कारण है। लेकिन जब मैं पढ़-लिखे सम्पन्न लोगों को अंधविश्वास के घेरे में देखती हूँ तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है। वे रो-रो कर बाबा के दरबार में अपनी फरियाद सुनाते हैं। मैं कल ही एक एक टीवी प्रोग्राम में देख रही थी कि एक व्यक्ति बाबा से रोकर कह रहा है -“बाबाजी आशिर्वाद दीजिये कि मेरे बेटे को इस बार परीक्षा में 80 % अंक आये”। और बाबा हाथ उठाकर कहते हैं ‘तथावस्तु’ । लगता है मानो पूरी दुनिया उनके इशारे पर ही चल रहा है।
अरे मुर्ख, तुम्हारे बेटे का 80 % अंक बाबा के पास गुहार लगाने से आयेगा ? मुझे तो लगता है कि खुद बाबा भी परीक्षा देंगे तोशायद पास हो जायें लेकिन अस्सी प्रतिशत अंक नहीं आयेगा। हाँ, तुम्हारे बेटे का अस्सी प्रतिशत अंक आ सकता है जब तुम बाबा पर पैसा खर्च करने के बजाये अपने बेटे की पढ़ाई पर खर्च करोगे। बाबा से गोहार लगाने के बजाये अपने बेटे पर ध्यान दोगे।
हमारे देश को विकास की सीढ़ियों से पीछे धकेलने में ऐसे लोगों का सबसे बड़ा हाथ है। ये खुद तो अंधविश्वास के रोगी होते ही साथ ही पूरे समाज को इसका शिकार बना देते हैं क्योंकि छोटे लोग बड़ों को देखकर ही आगे बढ़ते हैं।
आज विज्ञान का जमाना है। सभी अंधविश्वासों से पर्दा उठ चुका है। आज सारी सच्चाई हमारे सामने है। हमें अंधविश्वास के दलदल से बाहर निकलना होगा। जिस दिन हमारा देश अंधविश्वास के दलदल से बाहर निकलेगा उस दिन हम विकास के शिर्ष पर खड़े नजर आयेंगे।

-दीपिका कुमारी दीप्ति (पटना)

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

3 thoughts on “अंधविश्वास का दलदल

  • दीपिका कुमारी दीप्ति

    बिल्कुल सही सर !
    मेरे लेख पर इतना अच्छा तर्क देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    दीपिका जी , मैंने भी गाँव में १९ साल बिठाये हैं और इन अन्ध्विशाओं को नजदीक से देखा है . जैसे हम बच्चों को पैदा होते ही पोलियो का ड्रॉप देते हैं कि कहीं यह रोग हो न जाए , इसी तरह लोग बच्चा पैदा होते ही उसे धर्म और अंधविश्वास का ड्रॉप देते हैं कि कहीं यह अधार्मिक न हो जाए . मैं एक तर्कशील हूँ , मुझे पता है कि मेरी पीठ पीछे लोग मुझे नास्तिक कहते हैं लेकिन मुझे इन की कुछ भी परवाह नहीं . मेरी पत्नी इतनी पडी लिखी नहीं है लेकिन वोह भी तर्कशील है और किसी साधू बाबा को एक पैसा भी नहीं देती और न ही कोई धार्मिक समागम करवाती है , इस तरह बच्चे भी इन अंधविश्वासों से कोसों दूर हैं . सब से ज़िआदा बेडा गर्क टीवी वालों ने किया हुआ है . बाबे संत टीवी पर लोगों को नाम जपा कर उन का आर्थिक शोषण कर रहे हैं और लोगों को उल्लू बना कर सोने चांदी के ढेरों पर बैठे हैं . इतने बाबे जेल भी जाते हैं , पता नहीं हम किस मट्टी से बने हुए हैं कि समझते ही नहीं .

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया लेख. गाँव के ही नहीं शहर के तथाकथित पढ़े लिखे लोग भी घोर अन्धविश्वासी हैं. बहुत से मूर्ख हिन्दू लोग साईं बाबा जैसे धूर्त पाखंडी और गौमांस भक्षक की कब्र की पूजा करते हैं. यह भी अंधविश्वास का एक निकृष्ट रूप है.

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