कहानी

पैसा और इंसान

गर्मी का महीना था | बाग में कुछ बच्चे और बडे तिलमिलाती गर्मी से बचने के लिए पेड़ों की छाँव में दोपहरी बिता रहे थे | बच्चे अपने खेलों में मशगूल थे तो बडे-बूढे लाचारी में अपना समय काट रहे थे | उन्हीं में से दो बच्चे जो लगभग पन्द्रह से कम उम्र के थे, आपस में पैसा-पैसा और इंसान-इंसान का एक नया और अजूबा खेल, खेल रहे थे | एक का नाम रमेश तो दूसरा महेश, दोनों खेलते-खेलते सहसा झगड पड़े | उन्हें झगडता देख एक बुजुर्ग सज्जन, बीच-बचाव में आये और कारण जानकर हतप्रभ से रह गए | बच्चों ने बताया कि वे पैसा और इंसान के गिरने का खेल खेल रहे थे | दोनों कितना गिर सकते हैं इसी को जानने की होड़ हम दोनों में लगी थी | जिसमे पैसा यानि रमेश जब गिरता है तो इंसान यानि महेश उसे लपक कर उठा लेता है | पर महेश (इंसान) के गिरने पर रमेश (पैसा) चुप-चाप पेड़ों की ओट में छिप जाता है जो पहले से छटक कर गिरा हुआ है | महेश क्रोधित होकर रमेश से झगड पडता है और कहता है तू गिरता है तो मैं तुझे तुरंत ही उठा ले रहा हूँ पर मेरे कई बार गिरने पर तू मुझे एक बार भी नहीं उठा रहा है | मुझे कई जगह चोट भी लगी है जिस पर तू खिलखिला कर हंस रहा है | इस पर रमेश कहता है कि मैं तो पैसा हूँ मेरे पास हाथ-पैर तो है नहीं कि तुझे उठा दूँ | तू आदमी होकर खुद गिर रहा है तो तुझे कौन उठाएगा | अजीब पर समझने लायक झगडा था दोनों का | जिसे सुनकर सभी हंसने लगाते हैं पर एक बुजुर्ग महाशय ने इंसान के चोट पर मरहम लगाने और विवाद को खत्म करने के लिए आगे आते हैं और जो बात वहां कहते हैं वह गौर करने लायक है |

उस सज्जन ने कहा कि तुम लोग अभी खेलने-खाने की उम्र से ही पैसा और इन्शान के गिरने का खेल खेल रहें हों | जिसकी कल्पना मात्र से हम बुजुर्गों के शरीर में सिहरन दौड़ जाती है | तुम्हारे लिए यह खेल होगा पर हमारे लिए आज की कडवी हकीकत है सही में दोनों का वजूद आज पतन की राह पर चला रहा हैं | दोनों का वजूद इन्शान से ही है पर इसके किरदार को निभापाना, समझ पाना दुनियां में किसी के लिए भी एक नामुमकिन काम है | अगर यह कहाँ जाय कि पैसा साधन है जो मनुष्य के सुख-सुविधा व ऐशो-आराम के हर मुकाम को मुहैया कराता है, तो न जाने कितनों का कलेजा छलनी हों जायेगा कारण उनका भगवान यही पैसा ही है | किसी के भगवान को साधन कहना शायद उनके लिए गवांरा न हों पर पैसे को कस कर पकडे रखना, पैसे के बूते पर शाशन करना, पैसे के लिए कुछ भी कर गुजरना इत्यादि उनके अहम सिद्धांत में जुड़ा हुआ है | संक्षेप में कहें तो दुनियां को मुट्ठी में करने के लिए कुछ लोंग पैसा रुपी भगवान को पूजते हैं और मनचाहा वर प्राप्त करते हैं | पैसे में बड़ी ताकत है, येन केन प्रकारेण अगर यह अजूबा भगवान मिल जाय तो ईश्वर और इन्शान दोनों एक ही साथ साधे जा सकते है | मजे की बात यह हैं कि ऐसे लोंग मनाते हैं कि धर्म-कर्म, संस्कार, चारित्रिक-नैतिकता व मानवता इत्यादि जीवन के ऐसे पहलू हैं जिसके चक्कर में पड़कर मनुष्य अपने आप को काहिल बनाता है और आलसी बनकर सनातन सिद्धांतोंके सहारे लुढकता रहता है | दैव-दैव आलसी पुकारा शायद इसी लिए कह गया है | आलसी लोंग अकर्मण्य होते हैं जो सदैव पैसे वालों की भद्दी-गन्दी आलोचना करते हुए इस खोखली नैतिकता पर गर्व करते हैं और अपने आप को सबसे ज्यादे प्रामाणिक बताकर समाज में कुरीति फैलाते हैं |

खैर, अपनी अपनी समझ है | भूखे भजन न होंहि गोपाला……| जीवन है तो जीने के लिए कर्म और साधन उतना ही जरुरी है जीतना कि हवा और पानी | साधन सुख का पर्याय है, पर किसी का यही साधन, यदि दूसरों को दुःख देता है, अपमानित करता है तो असाध्य रोग की भांति दर्द देन लगता है और सामाजिक धरातल पर दूरियां बढने लगती हैं जिसकों स्वीकार करना सहज नहीं होता है | आध्यात्म और मानवता एक आदिकालीन धुरी है जिसे पकड़ कर चलने की सीख सभी मानवतावादी धर्म देते आये हैं | जो यह साबित करते हैं कि इन्शान एक ऐसा पथिक है जो अपने जीवन की मंजिल सुकर्मों की राह पर चलकर पूरा करता है न कि कुकर्म की राह पर | अत: साधनों का दुरुपयोग और बिनावजह विलासिता की भूंख, हमें अपने शाश्वत मार्ग से भटका रही है | हम साधन गामी होकर नैतिक मूल्यों की अवहेलना कर रहें हैं जिसके वजह से पैसा और इन्शान में एक शीत अंतरयुद्ध चल रहा है जो इन्शानी वजूद को विकृत बना रहा है | परिणामत: दोनों की गिरावट बदस्तूर जारी है | ये दोनों कहाँ तक गिरेंगे इस पर कोई भविष्यवाणी शायद किसी के लिए भी सम्भव न हों |

पैसा दो तरह से गिरता है | पहला पलक के निचे से तो दूसरा पीठ पीछे से | पहला इन्शान के हाथ से अचानक जब पैसा फिसलता है तो इन्शानी लोलुपता उसे लपकने के लिए गिद्ध जैसी कुत्सित नजर लेकर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाने लगती है | इतना ही नहीं कितने तो उसे अपने पैर के निचे दबाकर ही बकुले की भांति खड़े हों जाते हैं मानों उन्होंने कुछ देखा ही नहीं और सबकी नजर बचाकर उड़नछू हों जाते हैं | जिसका पैसा होता है वह आँखें फाड़-फाड़ हर कोने-कचरे में अपने ऊंट को घड़े में टटोलते हुए धराशायी होकर धड़ाम से जमीन पर गिर जाता है पर उसे कोई नहीं उठाता क्यों कि वह एक लुटा हुआ इन्शान है | अपने मेहनत का पैसा न सम्हाल पाने वाला खुद को जीवन भर कोसता हुआ अधमरा होंकर उठते-गिरते रहता है |

दूसरा, पीठ पीछें भी पैसा गिरता है जब जीवन भर की कमाई बेटा शराब और जुआ में गिरा आता है | कोई परिचित या रिश्तेदार   जमा-पूंजी हड़प कर जाता है | दहेज के लिए जोड़ी हुयी पाई-पाई पर किसी की दानत बिगड जाती है और बेटी क्वारी ही रह जाती है | दहेज देने के बाद भी बेटी अगन ज्वाला में समां जाती है अथवा बाप के घर वापस आकर रोज-रोज हर किसी के सामने गिरते-गिरते दम तोड़ देती है | यह बहुत पुरानी बात है जहाँ पैसा और इन्शान दोनों एक ही मंच पर गिरते आये हैं | पर आज तो सडकों पर, खेतों में, गलियों में, धर्म व कर्म स्थानों पर, विद्यालयों में, बागों में, बहारों में, रश्म और रिवाजों में, और न जाने कहाँ-कहाँ पैसा उछल-उछल कर गिर रहा है और इन्शान तमाशबीन बन वाह-वाह कर रहा हैं |

इन्शान की क्या कहें, वह तो अपनी ही नज़रों में दिन-प्रतिदिन गिर रहा है | मजबूर है वह, चरित्र अब चरित्र को अलग अंदाज में परिभाषित करने में लगा है | पैसा ही चरित्र को उठा और गिरा रहा है जो कभी इन्शान की सबसे अनमोल ताकत हुआ करती थी | ज्ञान जो इन्शान का अभेद अस्त्र था, तर्क में बौना बना हुआ है और छिछोरेपन से पराजित हों रहा है | धर्म, ढोंग से लबालब भर कर जनूनी हों गया है | “नाचे गावे तुरे तान तेकर दुनियां राखें मान”……भीड़, हर चौराहे पर अलग-अलग भगवान बनाकर पूजा-आरती कर खुश हों रही है | | सत्य देर से आता है जिसके कारण झूठ सत्य का संसार सजा रहा है | न्याय की अपनी न्यारी गति है, साक्ष्य है तो न्याय, अन्यथा आँख पर पट्टी और गीता- कुरान की कसम तो सभी खाते ही हैं | समाज और परिवार की अपनी अलग कहानी है जहाँ बेईमानी का डंका और ताकतवर हाथ की लाठी ही भैंस का दोहन करके मलाई खा रही है |

गिरों जीतना मर्जी करें गिरों, जब उठना ही नहीं है तो जहाँ पहुंचे वहीं सुगम स्थान | शायद यही नजारा आज रमेश और महेश अपने बचपने में खेल रहे थे | ईश्वर ने इन्शान बनाया और इन्शान ने पैसा | आज दोनों पर असंजस सा क्यूँ है | एक अंधे किरदार ने किसी फिल्म में कुछ इसी तरह से कहाँ था | सब कुछ होते हुए आज सुनसान और अँधेरा क्यूँ है भाई | काश इसका जबाब कोई इन्शान दे पाता तो शायद दोनों का गिरना रुक जाता |

सज्जन की बात सुन सभी चुप हों जाते हैं | रमेश और महेश दोनों दौडकर गले मिल जाते हैं और न गिरने के कसमे-वादे पर चलते हुए अपने-अपने घर चले जाते हैं |

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on “पैसा और इंसान

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी कहानी अच्छी है, उसका सन्देश भी बहुत अच्छा है.
    लेकिन… इसमें वर्तनी की अनगिनत गलतियाँ हैं. पहले पैराग्राफ की अधिकांश गलतियाँ मैंने ठीक कर दी हैं. लेकिन शेष पैराग्राफों में बची हुई हैं. विशेष रूप से आपने अनुस्वार का बहुत गलत उपयोग किया है, जहाँ जरूरी है वहाँ नहीं किया और जहां नहीं होना चाहिए वहाँ किया है. जैसे हर जगह ‘रहे’ को आपने ‘रहें’ लिखा है, ‘हो’ को ‘हों’ लिखा है. जबकि ‘मैं’ को ‘मै’ लिखकर छोड़ दिया है. कृपया वर्तनी पर ध्यान दें.

    • महातम मिश्र

      बिलकुल सही कहा आप ने विजय कुमार जी, वर्तनी की गलती टाइपिंग में हो जाती है जो गूगल इण्डिक में अक्सर होता है आगे से ध्यान रहेगा, आप ने सुधर किया आभार, कहानी सन्देश देने में सफल रही मुझे ख़ुशी हुयी, मै वैग्यानिक हूँ अतः हिंदी लेखन मुझसे थोडा हट के है पर मेरा शौक है और लिखता हूँ । आप के सलाह सुझाव से प्रगति होगी, सादर धन्यवाद मान्यवर

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