गीत/नवगीत

गीतिका

मरघट के सन्नाटे में आवाज लगाने निकला हूँ
मुरदों को नव-जीवन का राज बताने निकला हूँ

संवेदनाहीन हुआ है जो मनुज हृदय पाषाण सम
उस उर में पर पीड़ा की आग जलाने निकला हूँ

नारी रुदन-क्रंदन भी विचलित जिन्हें करता नहीं
उन कौरवों से द्रोपदी की लाज बचाने निकला हूँ

भेड़ों के लिबास में घूमते भेड़िये चारों ओर यहाँ
गिरगिट बने समाज को दर्पण दिखाने निकला हूँ

मातम की शहनाई सुन-सुन पक चुके कानों को
मानव चेतना का मधुरिम गान सुनाने निकला हूँ

मार्ग की बाधाओं से अब ठहरेगी न कलम मेरी
इंसानों में इंसानियत का भाव जगाने निकला हूँ

सुधीर मलिक

भाषा अध्यापक, शिक्षा विभाग हरियाणा... निवास स्थान :- सोनीपत ( हरियाणा ) लेखन विधा - हायकु, मुक्तक, कविता, गीतिका, गज़ल, गीत आदि... समय-समय पर साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे - शिक्षा सारथी, समाज कल्याण पत्रिका, युवा सुघोष, आगमन- एक खूबसूरत शुरूआत, ट्रू मीडिया,जय विजय इत्यादि में रचनायें प्रकाशित...

One thought on “गीतिका

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर गीतिका !

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