धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गौतम-अहिल्या-इन्द्र आख्यान का यथार्थ स्वरूप

ओ३म्

रामायण में गोतम-अहिल्या का एक प्रसंग आता है जिसमें कहा गया है कि राजा इन्द्र ने गोतम की पत्नी अहिल्या से जार कर्म किया था। गोतम ने उसे देख लिया और इन्द्र तथा अहिल्या को श्राप दिये। रामायण के पाठक इसे पढ़कर इस घटना को सत्य मान लेते हैं। क्या यह सम्भव है कि एक एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि की पत्नी ऐसा अनुचित कार्य करे। ऋषि की पत्नी तो स्वयं भी ब्रह्मज्ञानी ही हो सकती है न कि कोई साधारण अज्ञानी व दुर्बल चरित्र की। क्या यह भी सम्भव है कि कोई पुरूष वेश बदल ले तो उसे अपने पति व अन्य पुरूष का अन्तर ही पता न चले, यह सर्वथा असम्भव है। इस कथा का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि यह कथा ऐतिहासिक न होकर वेद के एक वैज्ञानिक आख्यान व रहस्य का विद्रूप वर्णन है। यह कथा ऐतिहासिक तथ्य न होने के कारण सत्य नहीं है। इसका जैसा अर्थ रामायण में दिया गया है वह सत्य व यथार्थ से सर्वथा भिन्न है। महाभारत काल के बाद हमारे देश में हमारा पण्डित वर्ग स्वच्छन्द, बन्धनों व अनुशासन से रहित हो गया था। ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थ प्रेस वा मुद्रणालय में तो छपते नहीं थे कि उनकी अनेक प्रतियां प्रकाशित हो जायें, अतः यदि उस काल में कोई ग्रन्थ लिखता था तो उसकी एक ही प्रति बनाता था। यदि वह अपने शिष्यों व अन्यों की सहायता से उसकी अतिरिक्त प्रतियां बनवाता था तो जितने लेखक होंगे उतनी ही प्रतियां बन सकती थी। इसका लाभ उठा कर कुत्सित मन वाले, भाषा व काव्य लेखन में सक्षम लोगों ने मिथ्या व भ्रान्तिपूर्ण श्लोक बनाकर हमारे मान्य व लोकप्रिय ग्रन्थों में अयथार्थ व असत्य विचारों व कथा कहानियों को जोड़ दिया जिसका प्रमाण रामायण में गोतम-अहिल्या तथा इन्द्र की मिथ्या कथा का पाया जाना है।

महाभारत काल के बाद संस्कृत, वेद, वैदिक साहित्य, इतिहास आदि के सबसे अधिक प्रमाणित विद्वान  महर्षि दयानन्द सरस्वती हुए हैं। इन्होंने समस्त संस्कृत साहित्य का अन्ध्ययन किया। ग्रन्थों में जो लिखा था उसे सत्य व असत्य की कसौटी पर कसा व असत्य के कारणों को जानने का प्रयास किया व उसमें सफलता प्राप्त की। उन्हें पता चला कि हमारे प्राचीन साहित्य यथा मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि में अनेकत्र अनेक प्रक्षेप विद्यमान हैं। वेदों में प्रक्षेप इस कारण न हो सके कि प्राचीन ब्राह्मण वेदों को स्मरण करने के साथ प्रत्येक मन्त्र के साथ देवता, छन्द, ऋषि आदि का प्रयोग करते थे जिस कारण कि प्रक्षेप सम्भव नहीं था। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका के रूप में        ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका नाम से अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा है जिसकी देशी व विदेशी विद्वानों ने प्रशंसा की है और स्वामी दयानन्द को ऋषि परम्परा का विद्वान घोषित किया है। यह कहा गया है कि वैदिक साहित्य का आरम्भ वेदों से होता है और ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर समाप्त होता है। यह यथार्थ टिप्पणी है जिसे महर्षि दयानन्द सरस्वती के साहित्य के अध्येता अपनी विवेक बुद्धि से सत्य स्वीकार करते हैं। इसमें कहीं अत्योक्ति नहीं है, निम्नोक्ति सम्भव है।

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः’ अध्याय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इन्द्र और अहल्या की कथा मूढ लोगों ने अनेक प्रकार से बिगाड़ कर लिखी है। उन्होंने ऐसा मान रखा है कि देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया किहे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा। अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायं, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तुझ पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आजावेगी।’ महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इस प्रकार से पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी गई है। सत्य ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। सत्यग्रन्थों में इस कथा का स्वरूप निम्न प्रकार है।

सूर्य का नाम इन्द्र है, रात्रि का नाम अहल्या है तथा चन्द्र का नाम गोतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरूष के समान रूपक अलंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस (सूर्य) के उदय होने से (वह) रात्रि के वत्र्तमान रूप श्रृंगार को बिगाड़ने वाला है। इसलिये यह स्त्री पुरूष का रूपकालंकार बांधा है। जैसे स्त्ऱी-पुरूष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम गोतम’ इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है और रात्रि को अहल्या’ इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन का लय हो जाता है। सूय्र्य (इन्द्र) रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए वह उसका ‘जार’ कहलाता है। इस उत्तम रूपकालंकार विद्या को अल्प बुद्धि पुरूषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणों की मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें। ऐसी अनेक मिथ्या कथायें पुराणों में दी गई हैं जिन्हें विवेकशील मनुष्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। रामायण में यह कथा वैदिक ग्रन्थों से आयातित है।

गोतम-अहिल्या के आख्यान व कथा की ही तरह अन्य ऐसी अनेक कथाओं के मिथ्यात्व का कारण अर्वाचीन काल में लोगों का वेदों के मन्त्रों के शब्दों का लौकिक संस्कृत के आधार पर अर्थ करना है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा वेदों के शब्द ईश्वरीय वाक् है। यह वेदों के शब्द धातुज व यौगिक है। अतः वैदिक शब्दों का अर्थ लौकिक संस्कृत से करने से इस प्रकार की त्रुटियां होती हैं। यदि वेदों के शब्दों के अर्थ अष्टाघ्यायी महाभाष्य व निरूक्त पद्धति को अपनाकर किये जायें तो उनका यथार्थ प्रकट होता है जैसा कि महर्षि दयानन्द जी ने किया है।

महर्षि दयानन्द के किये अर्थ ही ग्राह्य, यथार्थ व प्रमाणित हंै। आशा है कि पाठक मिथ्यार्थ को छोड़कर यथार्थ को ग्रहण करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

 

5 thoughts on “गौतम-अहिल्या-इन्द्र आख्यान का यथार्थ स्वरूप

  • चंद्र शेखर पंत

    सही कहाँनी इस प्रकार से है–

    महर्षि
    गौतम बहुत तपस्वी थे. तपस्या के बल
    पर उनके कई पुण्य हो गये थे. एक समय पृथ्वी लोक का एक राजा अपने पुण्यों और अपने
    प्रारब्ध से स्वर्ग का राजा इंद्र बना. (इंद्र एक पद है इस पर अपने पुण्य प्रभावों से कई लोग समय-समय पर आते हैं) उस वक्त के इस इंद्र को लगा कि, गौतम जो हमेशा तपस्या में लीन रहते है, ऐसा न हो कि, जल्दी ही ये मेरा स्वर्ग में स्थान ले
    लें और इसी सोच विचार में तथा स्वर्ग के लालच में अपने पुण्यों को क्षीण करता हुआ
    वो षड्यंत्र रचने लगा. इस इंद्र ने पहले महर्षि
    गौतम के विरोधी ऊन शिष्यों, ब्राह्मणों को जो उनके
    आश्रम में क्षिक्षा प्राप्ति के समय असफल (फेल) हो गये थे, उनको गौतम के विरुद्ध उकसाया और अपना रुप
    बदल–बदल के किसी तरह उनको गौतम के विरुद्ध तैयार कर लिया. फिर छल और कपट के द्वारा
    महर्षि को बदनाम करने के लिये, एक दिन एक गाय और उसके मरे
    हुए बछडे को सहारा देक उनके आश्रम के बगीचे में खडा करवा दिया और अन्य दुष्टों को
    आश्रम के आस पास छुपा दिया. महर्षि अपने ध्यान से ऊठे और
    देखा कि, उनके बगीचे में गौ चर रही है तो उन्होने प्रेम
    पूर्वक उस गौ को बगीचे से बाहर किया और फिर उस बछडे को बाहर करने के लिये जैसे ही महर्षी
    ने उस बछ्डे को हाथ लगाया वो गिर गया और तभी एक दुष्ट व्यक्ति बाहर आया और महर्षि
    को बोला कि, उसकी गौ है शायद चारा खाने के लिये यहाँ तक आ गई
    थी और फिर बछ्डे कि ओर देखकर बोला आपने मेरी गौ के बछ्डे को मार डाला. मुनि ने कहा
    “यह बछडा कैसे इतनी जल्दी मर सकता है पहले खडा था”. तभी कुछ और दुष्ट जन बाहर आके
    बोले अरे मुनिवर आपने बछ्डे को मार डाला, कुछ लोग और आये बोले
    अरे क्या हुआ, कैसे हुआ फिर सब कुछ जानते हुए बोले कि, मुनिवर हो सकता है आप इतनी
    तपस्या करते है और शक्ति के चलते कुछ भी हो सकता है और आप ही तो कहा करते थे अपने
    शिष्यों से कि शक्ति अगर नियंत्रण के बाहर हो जाए तो वो खतरा बन सकती है. इसके बाद
    उन कपटी लोगों ने सब जगह गलत सूचना फैलाने का काम किया कि. मुनि की तपस्या के चलते
    और शक्ति के गलत प्रयोग से ही लगता है उनके आश्रम में गाय का बछडा मर गया. अत:
    मुनि को गौ हत्या का पाप लगता है. समाज के सभी पडे लिखे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी आ
    गये बोले मुनिवर अब आप गो हत्या के पापी हैं नहीं तो आप स्वंय को सही सिद्ध किजिए.
    मुनि ने योगबल से ध्यान लगाकर जान लिया कि, ये ईर्ष्यालु
    प्रवर्त्ति के कुटिल अर्धक्षिक्षित ब्राह्मणों
    और इंद्र की चाल है गौ हत्या हुई नहीं है, इसलिये गौ हत्या
    का पाप ही नहीं बनता है. तब उन्होंने पतित पावनी गंगा जी का अपने तपोबल से आह्वान किया
    और तब गंगा ने आकाशवाणी द्वारा स्वय्ं कहा कि “मुनिवर आपका कोई पाप ही नहीं है
    जिसे धोने के लिये आपने मुझे आह्वान किया है.” तब ऋषि ने गंगा जी को अपने आश्रम में
    प्रकट होने और बने रहने की प्रार्थना की, तब गंगा जी नदी के
    रुप में मुनि के आश्रम के निकट प्रकट हो
    गई जो गोदावरी नाम से जानी गई. इसके उपरांत सभी लोग चुप हो गये और महर्षि के योगबल
    और तपस्या के आगे नतमस्तक हो गये, महर्षि गौतम ने ब्राह्मणों को श्राप दे दिया कि, तुम लोग गायत्री मंत्र विहीन हो जाओगे क्युँकि इस दुष्टकार्य में तुम
    लोगों ने भी कुटिल लोगों का साथ दिया है. इंद्र उस वक्त बच गया क्युँकि वो अप्रत्यक्ष
    रुप में शामिल था. इसके उपरांत इंद्र ने फिर एक बार कुटिलता
    दिखाई, उसे अपने अनुचरों से पता चला और चर्चा सुनी कि, गौतम की पत्नी अहिल्या जैसी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सुंदर स्त्री कोई और
    नहीं है अब ये मूर्ख इंद्र जो कुछ समय तक ही उस पद पर रहने वाला है वो सोचता है कि, किसी तरह से अहिल्या को स्वर्ग में ले आए तो तपस्वी गौतम तपस्या के बजाय उसे
    खोजने में लग जाएंगे और इस तरह से फिर तप नहीं कर पाएंगे. अपनी कुटिलमति से स्वर्ग
    में इंद्र पद पर बने रहने का लालच, उसे अहिल्या जैसी
    पतिव्रता देवी को अपहरण करने पर स्वयं को मजबूर कर दिया और उसने योजना बनाई. उसे
    पता था कि, अहिल्या पतिव्रता स्त्रियों में भी सर्वोपरि है
    इसलिये वो महर्षी गौतम को नहीं छोडेगी. तब इंद्र ने अपनी कुटिलता से एक देवता को
    गौतम ऋषी पर निगरानी रखने को कहा और यह सूचना देने को कहा कि गौतम दिन में कब क्या करते हैं क्या उनकी दिनचर्या
    है? सारी सूचनांए एकत्र कर उस इंद्र ने अपनी योजना बनाई कि, जब गौतम नदी स्नान के लिये जाएंगे, उस समय पर वो
    गौतम का वेश धारण कर के जाएगा और अहिल्या को
    स्वर्ग चलने को कहेगा. इस तरह अपना
    पति समझ कर वो उसके पीछे पीछे आ जाएगी और गौतम अपनी तपस्या को छोड कर अपनी पत्नी की
    खोज में इधर ऊधर व्यस्त हो जाएंगे, इससे उसके स्वर्ग पर गौतम
    अपनी तपस्या के बल पर अधिकार नहीं कर पाएंगे और वो इंद्र बना रहेगा लम्बी अवधी तक, साथ में इस इंद्र का सम्मान भी बढेगा. संसार की सबसे सुंदर और पतिव्रता
    स्त्रियों में रत्न अहिल्या भी इंद्र के स्वर्ग में होगी. इस योजना को सफल बनाने
    के लिये इंद्र ने एक दिन प्रात: एक देवता को मूर्गा बनकर गौतम ऋषी के आश्रम में
    समय से पहले भोर हो जाने की सूचना देने को कहा. वह देवता मूर्गा बनकर भोर होने की
    सूचना दिया. गौतम नदी स्नान को निकले और तभी
    इंद्र ने रुप बदल कर गौतम के वेश में आश्रम में प्रवेश किया और अहिल्या को
    तुरंत उसके पीछे चलने को कहा. अहिल्या आदेश का पालन करने के लिये हाथ मुँह धोने के
    लिये चली गई. इंद्र भय और घबराहट से पसीना-पसीना हो रहा था,
    वो झोपडी के बाहर आया तभी असली गौतम अपने कुटिया में वापस आ गये, क्युँकि थोडी दूर मार्ग़ में जाने पर उन्हें तारों और चंद्रमा की गति देख
    मालूम हुआ कि, अभी भोर होने में काफी समय है अभी तो अर्धरात्री
    है. गौतम ने अपने तपोबल से जान लिया कि इंद्र उनका वेश रखकर अहिल्या को स्वर्ग में
    छिपाना चाहता है उन्होंने इंद्र को श्राप दे दिया. स्वर्ग में इस इंद्र की
    सम्पूर्ण किर्ति नष्ट हो गई, तभी अहिल्या बाहर आ गई और बोली
    चलिये लेकिन अचानक देखा तो, दो-दो गौतम, एक की आँख में भय और दूसरे के क्रोध. सिर्फ इस बात के लिये अहिल्या कपटी
    इंद्र को न पहचान सकी महर्षि ने अहिल्या को भी श्राप दे दिया और कहा कि, तुम्हारी बुद्धि भी जड हो चुकी है जो इस कपटी को न पहचानने की भूल की, इसलिये तुम भी जड हो जाओ पत्थर की शिला की तरह और इस पत्थर की शिला से
    स्वय्ं श्री हरि जब राम रुप में अवतार लेंगे तब वो ही तुम्हारा उद्धार करंगे.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , आप ने मेरे सवाल का जवाब दे दिया , इस लिए आप का धन्यवाद करता हूँ . अगर मैं यही बात किसी धार्मिक विअकती को कहता तो वोह मेरे साथ लड़ने के लिए तैयार हो जाता . सिख धर्म तो ५३६ साल पुराना ही है जो बिलकुल नया है और इस में भी इतने वहम भरम घुसेड़ दिए गए हैं कि दुःख होता है . सिख धर्म में वहम व् भरम के लिए कोई जगह ही नहीं लेकिन कुछ लोगों ने सिख धर्म को इतना बदल दिया है कि मैं गुरदुआरे जाने से झिझकता था . तो हिन्दू धर्म के ग्रन्थ इतने पुराने हैं कि उस में तबदीली करके लोगों को मनभावत बातें कहना कोई दूर की बात नहीं है . आप ने बहुत अच्छा विस्तार से लिखा है और मुझे यकीन हो गिया जो मैं सोचता था वोह सही निकला . मैंने आप को इसी लिए लिखा था और मेरे शंका नविरत हो गई .

    • Man Mohan Kumar Arya

      आपकी एक-एक बात यथार्थ एवं सत्य है। पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। अच्छे व बुरे लोग सभी मत, सम्प्रदाय व पन्थों में होते हैं। मनुष्य की परिभाषा करते हुए दयानन्द जी ने बहुत ही मार्मिक व महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने कहा है कि मनुष्य उसी को कहना, कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे, और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्व-सामर्थ्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों न हो, उनकी रक्षा उन्नति प्रियाचरण, और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो, तथापि उसका नाश अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें। अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस (मनुष्य) को कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवें। स्वामी दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ईश्वर की सन्तान व परस्पर भाई बहिन मानते थे। उनका कहना था कि सभी का धर्म भी एक है और वह है सत्याचरण अर्थात् सत्य का आचरण और असत्य का त्याग। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. स्वामी दयानंद जी ने एक बहु-प्रचारित पौराणिक झूठ को तार-तार करके उसके सत्य को सामने रखा है. इस बात को हमें बताने के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद !

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते श्रद्धेय श्री विजय जी। हार्दिक धन्यवाद। मैंने यह लेख अपने कल के लेख पर श्री गुरमेल सिंह जी की प्रतिक्रिया के समाधान हेतु लिखा है। आपको यह लेख वा पौराणिक कथानक के यथार्थ स्वरुप का समाधान पसंद आया, यह मेरा अहोभाग्य है। सादर।

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