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आईना बोलता है

एक समाचार के अनुसार,  सेना के लिये जरूरी समझी जा रही बुलेट प्रूफ जैकेट का सौदा पिछले छः सालों से सुबह की रोशनी देखने को तरस रहा है, परन्तु वो ‘लाल फीता’ ! जी वही, जिसे काट कर योजनाओं का उद्घाटन करते हुए हमारे नेता यह सांकेतिक एलान भी करते हैं कि देश की प्रगति ‘लाल फीताशाही’ की भेंट नहीं चढ़ने दी जाएगी, फाइलों का मुँह ही नहीं खोलने देता ।

2009 की ‘विदेशी’ सरकार ने यह सौदा ‘अतिआवश्यक’ की श्रेणी में डाला था और तय किया था कि 2012 तक यह खरीद पूरी कर ली जानी चाहिये पर, कई आकांक्षाओं की तरह, यह भी अधूरी रह गयी। यह सीधा-सादा सौदा इतना पेचीदा निकला कि ‘स्वदेशी’ सरकार के कार्य काल में भी पूरा होता नहीं दिखता । एक साल तो हो ही चुके हैं इस पर ‘मगज मारते’।

क्या कारण हो सकता है इस अनिश्चितता  का ? चलो ! माना कि पिछली ‘बोफोर्स’ सरकार की अपनी मजबूरियाँ थी । उनके हर सौदे में, कहते हैं, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की मूल अवधारणा आड़े आ जाती थी जो सौदों को अटका कर रखती थी, और पारदर्शिता का हाल यह कि, जब वो पूरा होता था तो उसकी चर्चा गली गली होती थी। परन्तु वह तो कल की बात थी ! आज तो नई सरकार का ‘फंडा’ ही अलग है। न खाएँगे, न खाने देंगे। या फिर, विदेशी सरकार को हिस्सेदार बना कर बाकी सबका पत्ता साफ !  कहीं यही तो वजह नहीं है अनिश्चय की ! मंत्रालय की माने तो ‘अच्छे-बुरे का विश्लेषण चल रहा है और शीघ्र सौदा पूरा हो जाएगा’ । किस ‘अच्छे बुरे’ का ? वस्तु (जैकेट) का, कम्पनी का या ‘आप जानते हैं किसका’ ! पहली दो स्थितियों में छः साल लग जाना तर्कसंगत नहीं है। इतने समय में तो एक अंधा भी जान लेगा की क्या अच्छा है और क्या बुरा ।

तो फिर ! ले दे के तीसरी स्थिति ही रह जाती है हमारी विवेचना के लिये। और यह सत्य है कि ऐसा मसला वाकई बहुत जटिल होता है। न सिर्फ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का प्रतिशत तय होना होता है, बल्कि आज कल तो बाबा रामदेव ऐसों की खुराफातों के चलते ‘सर्वे सन्तु निरामयः’ का मी खयाल रखना जरूरी हो गया है। हमारे वकील रूपी वित्त मंत्री जिस प्रकार कालेधन के मुद्दे पर रामदेव समेत ‘अपने खाते में पन्द्रह लाख’ का सपना संजोए तमाम भारतवासियों को टहला रहे हैं, हमारे आँखों पर पड़े कई पर्दे उतार रहा है। कैसी विडम्बना है की देश का भला ‘चाहने’ वाले अपनी हरकतों से देश का भला ‘करने’ वालों की राह का रोड़ा साबित हो रहे हैं।

फिर, प्रश्न वरीयता के स्तर का भी है। अगर यही लाइफ जैकेट माननीयों और ‘मानदेय’ प्राप्त माननीयों के लिये खरीदी जानी होती तो अब तक तीन बार रद्दी घोषित कर बदली भी जा चुकी होती। आखिर वे ‘जन प्रतिनिधि’ जो ठहरे। वे अगर सुरक्षित रहे तभी तो देश सुरक्षित रहेगा । उनकी सुरक्षा व्यवस्था देख कर तो यही लगता है कि उनका चला जाना जनता को विधवा बनाने वाला होगा क्योंकि वो शायद दूसरा ‘देश भक्त’ चुनने के काबिल ही नहीं है । यह बात आप उनकी ‘जन सेवा’ के लिये आपसी मारामारी से भी समझ सकते हैं। फौज का क्या है ! उसे तन्ख्वाह किस बात की ‘दी’ जाती है। और ठीक भी है। गोलियों से इतना ही डर लगता था तो फौज में क्यों भर्ती हो गये ? बन जाते वो भी ‘जन प्रतिनिधि’ !

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “आईना बोलता है

  • आपकी बात में दम है. नयी सरकार भी क्यों नहीं खरीद पायी इसका एकमात्र कारण यह हो सकता है कि जिस जाकेट को खरीदने की बात हुई थी वह वास्तव में घटिया है और हमारी जरूरतों को पूरा नहीं करती. नयी जाकेट की खोज में समय लगता है पर इतना नहीं लगना चाहिए.

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