कविता

मुखौटा

मुखौटा तूने ओढा है मुखौटा मैंने ओढा है
मगर नजरें तो सारे भेद जानती हैं सुन

हंसी तेरी भी मुखरती हैं हंसी मेरी मुखरती हैं
दिलों की चोट से हमदम कहां अनजान हैं हम सुन

पिघलति तेरी आंखों की पुतलियाँ बोलती हैं ये
गमों का ये तराना तो हमारा भी तुम्हारा भी सुन

जमानें को खुशी देकर शुकुन क्या हमने पाया हैं
खुशी का ये फसाना तू मेरे अंदाज मे भी सुन

बिखरते तेरे सपनों को संजोना चाहती हूँ मैं
मुखौटा ओढ कर हकीकत छुपाना चाहती हूँ सुन

तू मुझे ना देख पाये मैं तुम्हें  ना देख पाऊ
दिलों का जो हैं आहसास जताना चाहती हूँ सुन

धड़कने तेरी बजती हैं गुंजार मेरे हृदय में हैं
धड़कनों की मधुर आहट मेरे दिलसाज से भी सुन

मुखौटा तूने ओढा है मुखौटा मैंने ओढा है
मगर नजरें तो सारे भेद जानती हैं सुन

मधुर परिहार

2 thoughts on “मुखौटा

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वाह वाह , इस को डर कहें या चोरी छिपे पियार !

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कविता !

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