आत्मकथा

स्मृति के पंख – 18

अनन्तराम के बड़े भाई किशोरी लाल मरदान में सिनेमा मैनेजर थे। उनसे हमने जिकर किया। एक तो उन्होंने वकील कर दिया जिसका नाम था हरीभजन भाटा और यह भी तसल्ली थी कि वह कोशिश करेगा। हमें लगता था कि मुझे बरी कर दिया जायेगा, लेकिन फैसले वाले दिन नवाब टोरू का एक रुक्का गोकुलचन्द ने मजिस्ट्रेट के नाम था उसको दिया और मुझे दो महीने की सजा का हुक्म दे दिया। मुझे तो वहाँ से जेल ले जाया गया। घर आकर अनन्तराम ने पिताजी को बतलाया और सुशीला को भी तसल्ली दी कि फिक्र न करो कल जमानत हो जायेगी। बाद में अनन्तराम ने मुझे कहा कि जब उसने भाभी को कहा कि अन्दर हो गया हूँ, तो बार बार पूछने लगी कि अन्दर क्या होता है। फिर तफसील से उसे सब बताया। दूसरे दिन ही अपील दायर कर दी गई और मैं जमानत पर घर आ गया।

जिस जज के पास अपील दायर थी वह गढ़ीकपूरा का एक खान था। उसकी जमींदारी की देखभाल चरनदास कपूर करता था। चरनदास कपूर तलवाड़ फेमिली के 9 भाइयों की एक बहन से शादीशुदा था। पता करने पर हम चरनदास को मिलने चले गये। वह घर पर नहीं था। चारसदा में किसी ठेके पर लिये काम को करवा रहे थे। हम वहाँ तकरीबन 4 बजे पहुँचे, उनसे सारी बातचीत की। उसने कहा तुम लोग बेफिक्र रहो, मैं तारीख वाले दिन पेशावर पहुँच जाऊंगा। बाद में चरनदास कपूर ने हमें बताया कि गोकुलचन्द भी उसके पास आया था कि मैं आपकी मदद न करूं। गोकुलचन्द की दूसरी बीवी चरनदास की बहन की लड़की थी। उसने सोचा कि उसकी बात चरनदास शायद मान लें। लेकिन चरनदास एक सच्चाई पसन्द इंसान था और उसने कहा कि हम सच्चाई पर थे, इसलिये हमारी मदद करेगा। मुकर्रर तारीख पर मैं और अनन्तराम राम घर से गये, भ्राताजी भी आ गये थे और चरनदास भी वहाँ पहुँच गये। कचहरी में सब इकट्ठे हो गये। सुबह 8 बजे का समय था। चरनदास मुझे साथ लेकर जज की कोठी पर गये। उसने आने का मकसद बयान किया। जज ने कहा कि यह अपील पहले उसके पास थी। क्योंकि उसके पास काम ज्यादा था, अब यह दूसरे जज के पास है। पर कोई बात नहीं मैं उसको बोल देता हूँ।

हम तीनों एक साथ कोठी से निकले, लेकिन वह अलग होकर दूसरे जज से मिले। सुबह 10 बजे ही पहली आवाज हमें पड़ी। अभी सरकारी वकील भी नहीं आया था। जज ने हमारे वकील से कार्यवाही शुरू करवाई और फाइल पर 1-2 जगह निशान लगाकर मुझे बरी कर दिया। वापसी पर रास्ता में भ्राताजी की किसी बात पर ड्राइवर से तकरार हो गई और बढ़ते-बढ़ते लड़ाई तक नौबत आ गई। हम दोनों मैं और अनन्तराम (मैं क्लीनर से और अनन्तराम ड्राइवर से) लड़ रहे थे। मैंने क्लीनर को गिरा दिया। ड्राइवर बहुत मजबूत आदमी था। अनन्तराम पर हावी था। एकदम अनन्तराम ने चाकू निकालकर जब खोला तो मैं उसकी तरफ दौड़ा। अब ड्राइवर भी पीछे हट गया था। अगर एक भी मिनट की देरी हो जाती तो चाकू ड्राइवर के सीने में होता। बस में एक पुलिस इंस्पेक्टर भी बैठा था। हमारी इतनी जमकर लड़ाई हुई, पर  पहले नहीं उतरा, बाद में उतर आया और सब को लारी में बिठाकर थाने रिपोर्ट लिखाने ले गया, ताकि रास्ते में फिर झगड़ा न हो। उस लड़ाई में मेरे हाथ की एक छोटी उंगली का आभास मुझे बाद में हुआ, जिसकी हड्डी टूट गई थी।

एक दिन रघुनाथ कपूर मेरे पास आया। काफी उदास और परेशान था। मैंने उससे उसका कारण पूछा तो उसकी आंखें छलक पड़ीं। कहने लगा कि मरने के बाद मेरी मां का जेवर और 2000 रुपया मामा के पास था। मामु ने कहा था कि उसकी शादी पर देगा और अब तो शादी में सिर्फ 15-20 दिन बाकी है और उसने रुपया देने से इंकार कर दिया है। अब मुझे बहुत फिकर है कि वह काम कैसे होगा। मैंने कहा घबराते क्यूँ हो। हौसला रखो, सब ठीक हो जायेगा। थोड़ा आराम करने के बाद मैंने आमीर खान को बुलाया और कहा कि मैं 2-4 दिन शायद घर न आ सकूं, तो रात को घर का पूरा ध्यान रखना। पिताजी बीमार हैं और वहाँ जाना भी जरूरी है।

शाम 5 बजे हम बेबे सीता देवी के मकान पर प्रोग्राम बनाने के लिये इकट्ठे हुये। जो कुछ जरूरी था उसकी लिस्ट बनाकर बाजार से सामान खरीदना शुरू कर दिया। कुछ कपड़ों की भी कमी थी। कटड़ा से जो भी जरूरी कपड़ा था सब खरीद लिया। उसके बाद बारातियों का काम करना था। उन दिनों हर बाराती को 2 सेर चीनी और जुबानी कह कर आना होता। उसमें दो दिन लग गये। अब बाकी काम सब्जी बगैरा का, जो कि उसको ही करना था। बड़ा काम अब जेवर बनाने का बाकी था। मैं इस बात से डरता था कि न जाने जेवर कितना मिलता है और कल कोई मुझे इस बारे में बात न कर सके, इसलिये मेरे साथ किसी दूसरे का होना जरूरी था। मैंने सोचा कि हरिकिशन खन्ना को साथ लेकर पेशावर जाना अच्छा होगा।

पहले मैं सरढेरी पहुँचा। हरिकिशन दुकान करता था। मैंने उससे बात करके कहा कि दुकान बंद करो। रात तक हम पेशावर पहुँच जायेंगे। और दूसरे दिन हम सन्तराम सराफ की दुकान पर पेशावर पहुँचे। यह सन्तराम सराफ गढ़ीकपूरा वाले महाराजजी के पास बहुत आते जाते थे। उसे जल्दी गहना बनाने की ताकीद की और साथ में पुराने जेवर की रसीद और वेट हमें दे दो। यह सामान हमें 2 दिन बाद जरूर मिल जाये। लेकिन कड़े (गोखलू) जो पुराने थे, उस पर सिर्फ सोने का पतरा चढ़ा था, अन्दर से चांदी थी, तो कुछ और सोना डालना जरूरी था। वह सब करने के बाद हम शहर गये। दो दिन वहीं पर रहे और तीसरे दिन उसके पास जेवर लेने आ गये। 2-4 घण्टे के इंतजार पर फिर भी वक्त पर उसने हमें जेवर दे दिये। इसी बीच गाँव का एक चक्कर 2-4 दिन का लगा आया और फिर शादी वाले दिन पहुँच गया। भ्राताजी को इतना कहा कि रघुनाथ का वेदियों में रात का खर्चा थोड़ा होना चाहिये। भ्राताजी ने मुझे कहा- सुना है रघुनाथ की शादी में तुम मदद कर रहे हो, मुझसे बिना पूछे ही। मैंने कहा- भ्राताजी समय न था और फिर यह काम तो करना जरूरी था। इसीलिये सलाह नहीं कर सका और उसका काम सब ठीक हो चुका है।

उन दिनों रघुनाथ की तनख्वाह 15 रुपये महीना थी। वह एक इमारती लकड़ी वाले के पास मण्डी में काम करता था, मुझे इस बात की भी फिकर थी कि 15 रुपये में अब गुजारा कैसे होगा। लेकिन शादी के बाद उसका लकड़ी चिराने में आरा वालों से कमीशन तय कर दिया, जिससे उसकी आमदनी अच्छी हो गई।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 18

  • Man Mohan Kumar Arya

    दूसरों के दुखों में सहायक होना मनुष्यत्व वा देवत्व का प्रमाण है। श्री राधा कृष्ण कपूर जी में मानवीय गुण भरपूर है। कथा रोचक है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राधा कृष्ण जी बहुत नेक और दिल के अछे और मज़बूत इरादे के मालिक थे . हम कभी कह देते हैं कि पुराने दिनों में लोग अछे और सभय होते थे लेकिन यह कहानी पड़ कर लगता है , हर समय में भले बुरे लोग हुए हैं . कहानी इतनी अच्छी लिखी है कि पड़ने से रुका नहीं जाता .

  • विजय कुमार सिंघल

    इस कड़ी से लेखक महोदय की सहृदयता का परिचय मिलता है. अपने कई रिश्तेदारों से धोखा खाने के बाद भी वे अन्य रिश्तेदारों की सहायता को तत्पर रहते थे, यह पढ़कर बहुत प्रसन्नता होती है. व्यक्ति की महानता का परिचय ऐसे ही अवसरों पर मिलता है.

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