आत्मकथा

स्मृति के पंख – 19

पिताजी घर में और मुझसे किसी न किसी बात पर उलझ पड़ते। मैं शांति चाहता था। अब भ्राताजी और भाभीभी नहीं थे, फिर पिताजी नाराज क्यूं रहते हैं। मैं ऐसी हालत में हर समय उदास रहता। घर में महाभारत हो तो किसके दिमाग में सकून हो सकता है। मुझे कोई ऐसी बात भी बड़ी बुरी लगती थी। लेकिन पिताजी जैसे झगड़ा करना ही चाहते हों। एक दिन तकरीबन 8 बजे का समय था। दुकान बन्द करके घर आया, तो पिताजी गुस्से में बोल रहे थे। मुझे भी गुस्सा आ गया। कई दिनों से मन उदास था। ऐसी क्या जिन्दगी और गुस्से में दरवाजे में बसता से टक्कर मार दी। टक्कर इतनी जोर की थी कि लकड़ी के तख्ते टूट गये और उस धमाके से ऐसे लगा कि जैसे बन्दूक चल गई हो। गश्त पर आई पुलिस घर आ गई, पूछने लगी कि किसने किया है। तभी उन्हें असलियत बताई और टूटा तख्ता देखकर और मेरा माथा भी सूजा हुआ देखकर वे चले गये।

मेरा दिल बहुत अशान्त रहने लगा। एक दिन सुशीला को बुरा भला कह रहे थे और गुस्से में मायके जाने को बोल रहे थे। इसीलिये मैं दूसरे दिन सुशीला को मायके छोड़ आया और वापस आकर भ्राताजी से बात की कि मैं घर नहीं रह सकता। पिताजी ने हमें घर से निकाल दिया है। मुझे भी भ्राताजी ने मरदान में दुकान खोलने की सलाह दी कि जिसके लिये मैं तैयार हो गया, क्योंकि मैं ज्यादा काम में व्यस्त रहना पसन्द करता था। यहाँ थोड़े ही दिनों में मेरा मन उचाट होने लगा। सारे दिन में एक-दो ग्राहक आते और मैं उदास रहने लगा। विद्या से छोटी बहन राम शंकरी थी। उसका रिश्ता मेरे मामु के लड़के दीनानाथ धवन से होना था। लेकिन मैं इस शादी में शामिल न हुआ। मेरा मन बहुत अशान्त था।

एक दिन हमारे पुरोहित पंडित बिहारी लाल तोरू वाले और खुशहाल चन्द जो सी.आई.डी. के आदमी थे, दोनों मेरे पास आये। उन्होंने मुझे गाँव वाली दुकान संभालने को कहा। मेरे पिताजी जैसा काम कर रहे थे, वह उन्हें ठीक नहीं लगता, जो नुकसान होगा। बहरहाल नुकसान तो तुमने पूरा करना होगा, इसलिये हमारी सलाह मानो और गाँव की दुकान संभालो। एक तो मरदान की दुकान पर काम न था, दूसरे उनकी सलाह में वजन था। बेहतरी इसी में थी कि गाँव वापिस चला जाऊं। भ्राताजी को सब माल दुकान का और लेन-देन सब हवाले करके मैं गाँव चला आया। मैंने देखा कि पिताजी जिस ढंग से काम कर रहे हैं वह ठीक नहीं है। चार-पांच दिन तो मैंने दखल नहीं दिया। फिर हर बात का जायजा लेना शुरू कर दिया। मुझे लगने लगा कि पिताजी सोच समझकर कुछ नहीं कर रहे। हकीकत यह थी कि उनका दिमाग पूरा काम कर न पाता था। अब उनसे ज्यादा बातचीत करने का फायदा न था। मैंने दुकान पर काम करना शुरू कर दिया। मुझे उल्टी सीधी तो बराबर कहते रहते, लेकिन अब गुस्से की बजाय रोना आता। रात को काफी देर तक कमरा बंद करके रोता रहता। माताजी भी बहुत दुखी थी। मेरे आने से उन्हें हौसला मिला। माताजी से बात करने पर भी यह बात यकीनी थी कि पिताजी का दिमाग ठीक काम नहीं कर रहा।

अब तो सब्र के सिवाय कोई चारा न था। दुकान की हालत खराब हो चुकी थी। ज्यादा दुख इस बात पर था कि माताजी की चूड़ियां भी पिताजी ने रहन रख दी थीं। एक तो अकेले काम संभालना, दूसरा पिताजी की हालत को देखकर रोना, तीसरा कर्जदारों का तकाजा, जिससे बहुत परेशानी रहती। अभी तक सुशीला भी मायके से वापस नहीं आई थी। दिल को हल्का करूँ तो किससे बात करके। ससुराल जाकर सुशीला को ले आया। एक देसी हकीम से पिताजी इलाज शुरू किया। दवाई के साथ बादाम रोगन की मालिश, खाने के लिये बादाम वगैरह और पीने के लिये अरक गुलाब वगैरह। माताजी को दवाई खिलाते समय बहुत मुश्किल होती। ना मालिश कराते, ना दवाई लेते, आसानी से कोई काम कराना मुश्किल था। तकरीबन छह महीना इलाज करने पर उनका ज्यादा बोलना और गुस्सा करना तो कम हुआ, लेकिन उन्हें लगता जैसे घर में कुछ बारूद वगैरह हो, ऐसा हर वक्त सुनते रहते। खाने पिलाने में भी बहुत मुश्किल आती। कहते सब कुछ क्यों बर्बाद कर रहे हो। मैं तो मर चुका हूँ। बस कभी खामोशी और कभी बोलना शुरू कर देते।

फिर डाक्टरी इलाज शुरू किया। तीन चार माह लगातार करते रहे, कुछ खास फायदा न हुआ। बहुत दुखी अवस्था थी कौन जानता है पीरपराई। मुझे लगता जीवन अब रोने के लिये ही बाकी रह गया है। अपनी ख्वाहिशात तो जैसे मर गई हैं। गम को ही हर वक्त सीने से लगाये रखना है। कभी लोग मुझे बख्ती और मासी बसंतो मुझे हंसनी बुधी कहते थे। वो वक्त और हंसना कहाँ चले गये, मुझे उनका पता ही न था। हालात से समझौता करने के सिवाय चारा ही ना था। मुझे हौसला रखना होगा तभी ही गृहस्थी की गाड़ी चला सकूँगा। मेरी पहली कोशिश थी कि माताजी की चूड़ियां छुड़ा दूं, जो पिताजी ने छह सौ रुपये में रहन रखी थीं। मैंने तीन सौ रुपया इकट्ठा किया कि एक चूड़ी छुड़ा लाऊंगा। इस दिन उनकी दुकान बंद थी। देर हो चुकी थी रुपया वापिस लाना खतरे में लगता था। मैंने भोलाराम धवन जो भ्राताजी के ससुर के छोटे भाई थे, उसके पास रख दिया। लेकिन कई बार मांगने पर भी जब भोलाराम ने नहीं दिया, तो मैंने भ्राताजी से कहा। लेकिन भ्राताजी ने भी कहा वो ठीक आदमी नहीं है। यह रुपया इससे लेना बहुत मुश्किल होगा।

उन दिनों भ्राताजी ने मरदान की दुकान छोड़ दी थी और रिशक्की में आटा पीसने की चक्की लगवा ली थी। उन दिनों डीजल से चलने वाले इंजन थे। घर से निकलने के बाद मरदान में भी कुछ फायदा न हुआ। चक्की के काम का तजुरबा न था। वह खुद भी परेशान थे। मेरी बात सुनकर ज्यादा परेशान हुये। भ्राताजी ने भी भोलाराम से कई बार रुपया मांगा। लेकिन न तो रुपया उसने दिया ना हमें मिला। अब पूरी कोशिश के बावजूद भी मैं दोनों चूड़ियां छुड़ा न सका, तो एक फरोख्त कर दी और दूसरी ले आया। माताजी को इससे भी खुशी न थी कि इतने बिगड़े हालात में एक तो मिल गई। अभी बाजार का कर्जा तो काफी था, लेकिन जिन लोगों से हमारा कारोबार था उन्होंने मेरी मदद की। माल खुला मिल जाता, भुगतान जब भी करना हो तो उन्हें एतराज न था। मेरे काम से वह लोग खुश थे। मेरी हौसला अफजाई भी करते। नुकसान के पेशेनजर मैं जब बाहर जाता, तो दुकान को ताला लगा जाता, ताकि पीछे से पिताजी नुकसान न करें। दिल ना चाहते हुये भी मजबूरन ऐसा करना पड़ रहा था।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

6 thoughts on “स्मृति के पंख – 19

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हाए रे इंसान की मज्बूरिआन , यह गृहस्थ जीवन कितना कठिन है . फिर भी इस शख्स ने बहुत हौसला रखा . और कितने लोग बुरे हैं जो पैसे ले कर मुक्क्र जाते हैं . लेकिन इस कहानी को पड़ कर यह तो ज़ाहिर होता है कि राधा कृष्ण कपूर दिल का कितना मज़बूत था .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाई साहब!

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख को आरम्भ से अंत तक पढ़ा। कथाकार के प्रति संवेदना व सहानुभूति उत्पन्न हुई। आशा है कि आगामी क़िस्त में कथाकार के अच्छे दिन आ सकते हैं। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आगे की कहानी और भी संजीदा है. दिल थामकर पढ़िए.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद जी।

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक को अपने पिताजी की मानसिक अस्वस्थता के कारण बहुत कष्ट उठाना पड़ा था. और कोई होता तो ऐसी स्थिति में कोई खतरनाक कदम उठा लेता. पर उन्होंने इस स्थिति का सफलतापूर्वक सामना किया. उनके धैर्य को प्रणाम !

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