संस्मरण

मेरी कहानी – 28

जब जब  गियान चंद की याद आती हैं, साथ ही वोह नज़ारा भी याद आने लगता है जो उस की दूकान के दाईं ओर हुआ करता था। गियान की दूकान की इस ओर छोटा सा खाली मैदान होता था जिस में बहुत रौनक होती थी। दूकान के बिलकुल सामने भी बहुत बड़ा खुला मैदान होता था और बाईं ओर भी  बहुत बड़ा मकान था जो मेला सिंह आहलुवालिये का था। यह मकान गाँव में सब से बड़ा और शानदार हुआ करता था और इस घर के सामने एक फोल्डिंग शटर होता था जिन के ऊपर और नीचे छोटे छोटे वील लगे हुए थे। शटर दोनों तरफ थे और जब बंद करने हों तो दोनों तरफ से खींच कर वीलों की मदद से बंद हो जाते थे और वोह लोग रात को ताला लगा देते थे। मेला सिंह मलाया में रहता था और कभी कभी अपनी फैमिली ले कर आता था (आज इस मकान की हालत बहुत खस्ता है और शटर हमेशा खुला ही रहता है, शायद जाम हो गिया हो और इस के फ्रंट एक कमरे में गाँव का पोस्ट ऑफिस खुला हुआ है).

एक तरफ होती थी डाक्टर  सोहन लाल की सर्जरी। सोहन लाल को ज़्यादा लोग हकीम कह कर ही पुकारते थे। सोहन लाल के पिता जी बंता सिंह रामगढ़ के स्कूल में पढ़ाते थे. हर सुबह जब  बनता सिंह रामगढ़ को पढ़ाने के लिए जाता था तो बाइसिकल पर गाँव के बाहिर जा कर सवार होता था। इस का कारण किया होगा हमें पता नहीं लेकिन वोह पहले बाइसिकल की पिछली सीट पर बैठता था और चलाते चलाते जम्प करके ऊपरली सीट पर बैठ जाता  था और हम सब उस को देखते रहते थे और जब वोह जम्प करके ऊपरली सीट पर बैठता तो हम ताली बचाते और हँसते। सोहन लाल की बेटी बिमला हमारी क्लास में पड़ती थी। सोहन लाल की सर्जरी बहुत साफ़ थी, हर तरफ दुआई की बोतलें शीशे की अल्मारीओं में रखी हुई थीं। सामने की  दीवार पर ग्रैंड फादर क्लॉक था जिस में नीचे पैंडुलम दाएं बाएं चलता रहता था और जब बारह बजते तो बारह दफा टन टन बजता जो बहुत मनमोहक लगता। बहुत देर से  अंग्रेज़ों के ज़माने से सोहन लाल जी इसी सर्जरी में पोस्ट ऑफिस भी चलाते थे जो बाद में शायद १९५७ ५८ में सरकार ने वापिस ले कर इलग ही  एक नया पोस्ट ऑफिस बना दिया था।

जब की बात मैं करता हूँ तब सोहन लाल जी काफी मसरूफ रहते थे। एक बड़े मेज़ पर चिठीआं लफाफे बिखरे होते थे और वोह उन पर मोहरें लगाया करते थे जिस से  लगातार खट खट होता रहता था। साथ में एक बूढ़ा पोस्ट मैंन जिस को आम लोग डाकिआ कहते थे एक बड़े थैले में चिठीआं डाले जाता रहता। इस डाकिये के पास एक लाठी जिस के ऊपर बरछा (spear )लगा हुआ होता था हमेशा अपने पास रखता था। यह डाक का बैग ले कर डाकिया जिस को भाई कहते थे (नाम याद नहीं ) हर रोज़ पैदल चल कर  चहेरु गाँव को जाया  करता था जो चार किलोमीटर दूर था। चहेरू बहुत छोटा सा गाँव था लेकिन इस के साथ छोटा सा रेलवे स्टेशन भी होता था जो अभी भी है लेकिन आज वहां यूनिवर्सटी बनी हुई है और बहुत बदल चुक्का है । वापिस आते वक्त डाकिआ हमारे गाँव की डाक ले कर आता था। वापिस आ कर राणी पुर  के घरों को  चिठीआं बांटने जाता था, हमारे घर की  कोई चिठ्ठी होती तो हमें उसी वक्त पकड़ा देता था।

सोहन लाल की सर्जरी के आगे ईंटों का बहुत अच्छा आँगन सा होता था जिस पर एक चारपाई पडी होती थी, कुछ लोग ईंटों पर ही  बैठ जाते थे। इस छोटे से आँगन के साथ मेरी यादें बहुत जुडी हैं। इस आँगन में बैठ कर सोहन लाल और कुछ दूसरे लोग ताश खेलते रहते थे और हम इर्द गिर्द खड़े हो कर उन को देखते रहते थे । जब कभी मरीज़ आ  जाता तो सोहन लाल उठ कर मरीज़ को देखने लगता, मरीज़ को देखने के बाद फिर आ कर ताश खेलने लगता। कभी कभी शतरंज खेलने लगते। खेलते खेलते बहुत शोर मचता। इस आँगन के ऊपर टीन की छत्त होती थी, इस लिए धुप हो या बारिश लोग बैठे ही रहते थे। इस आँगन को थड़ा बोलते थे। कभी कभी गाँव की पंचायत भी यहां बैठती और फैसले होते थे  । इसी थड़े पर मैंने ज़िंदगी में पहली दफा रेडिओ देखा था। सोहन लाल के रिश्तेदार दिली से ले कर आये थे, इस रेडिओ के साथ थी ऐवरैडी बैटरी जिस का मुझे बहुत देर बाद गियान हुआ।

जब मैं यहां इंग्लैण्ड आया तो यहां हम काम करते थे, उस के सामने ही एक ऐवरैडी फैक्ट्री होती थी जिस में कोई एक हज़ार लोग काम करते थे। इस फैक्ट्री को देख कर मुझे वोह बचपन में देखा रेडिओ और बैटरी याद आ जाती और सोचता था की भारत अंग्रेज़ों की मंडी ही तो था , किया मालूम यहां से ही बैटरियां भारत को आती होगी। उस वक्त सोहन लाल के आँगन में वोह लोग  रेडिओ लगा कर बैठे हुए थे, गाँव के लोगों की बहुत भीड़ थी, शायद बहुत से और लोगों ने भी रेडिओ पहली दफा देखा होगा। उस वक्त मैं तो शायद पांच छ: साल का हूँगा। खेलने के इलावा एक और बात भी थी जिस के कारण लोग बैठे ही रहते थे, वोह था एक उर्दू का अखबार जो शायद मिलाप या प्रभात होता था। गाँव में यह शायद एक ही अखबार सोहन लाल के पास आता था, इस लिए लोग एक एक वरका ले कर पड़ते रहते और बीच बीच में एक दूसरे के साथ खबर के बारे में बहस करते रहते।

यहां और भी दुकाने होती थीं। इसको आहलूवालिओं का मोहल्ला बोलते थे। हमारे मोहल्ले के पीपलों में भी बहुत रौनक होती थी लेकिन इस मोहल्ले की ख़ास बात यह थी कि एक तो यहां  काफी दुकाने थीं, दूसरे पड़े लिखे लोग यहां ज़्यादा थे और इन में पैसे वाले लोग भी ज़िआदा होते थे। सिआसत की बातें यहां ही होती थी क्योंकि सोहन लाल कांग्रस को बहुत सपोर्ट करता था और जब भी कभी हमारे हलके का एमपी हंस राज शर्मा आता तो सोहन लाल सबसे आगे हो कर हंस राज शर्मा ज़िंदाबाद के नारे लगाता और रोटी पानी का इंतज़ाम भी सोहन लाल ही करता। गियान चंद और सोहन लाल की दुकाने आमने सामने ही थी, इसलिए इन में प्रेम भी बहुत ज़्यादा होता था। सोहन लाल की सर्जरी की एक तरफ खुला मैदान होता था जिस में एक दफा शाह जी ने चर्मकारों और मेहतरों को अपनी लड़की के बरातिओं की बची हुई मठाई खिलाई थी। इस मैदान में लड़के खेलते रहते थे और कभी कभी यहां गाँव के लोग रात के समय ड्रामा भी किया करते थे। बहुत बड़ी स्टेज और बड़ी बड़ी कपड़े की शीटों पर तरह तरह के सीन छपे होते थे। एक दफा राणा परताप का ड्रामा हुआ था जिस में एक गाने के बोल मुझे अभी तक याद हैं जो पंजाबी में था। यह शायद जब राणा परताप अपनी पत्नी को छोड़ कर मैदाने जंग में जाने के लिए तैयार था तो उस की पत्नी गाती थी,” छड के ना जावीं सानूं, अज साडे हाणीआं, घड़ीआं विछोड़े दीआं झलीआं नई जाणीआं ”

इस मैदान के साथ शाह जी की बहुत बड़ी बिल्डिंग होती थी जो छोटी ईंटों से बनी  हुई थी। इस के आगे वैरान्डा होता था और साथ ही नत्थू राम की दूकान होती थी जिसमें से घर का सारा सौदा, दालों से लेकर साबन सोढे और मूंगफली रेडीआं मिल जाती थी। मेरी माँ तो घर से बाहिर नहीं जाती थी, इसलिए मुझे ही नत्थू राम की दूकान को भेज देती थी। नत्थू राम सौदा लेने के बाद मुझे ऊपर से कभी मूंगफली कभी कुछ रेडीआं दे देता जिस को उतों (ऊपर से ) कहते थे। बस यह लालच ही था कि मैं अपनी गली की दूकान छोड़ कर यहां नत्थू राम की दूकान को आता था ताकि उतों (ऊपर से) मिल सके । नत्थू राम की दूकान के बिलकुल सामने होती थी किशन की सोढा वाटर की दूकान। किशन को किशन ठोलू कहते थे। यह नाम उस के दोस्तों ने  ही रखा हुआ था। इस दूकान पे भी काफी लोग सोढा पीने  जाते थे ख़ास कर विम्टो। इस के आगे मेला राम भट की हलवाई की दूकान होती थी जिस में लडू वेसन सीरनी और पकौड़े ही ज़्यादातर होते थे। इस के साथ ही यमुना दास हकीम की दूकान होती थी  जिस में देसी दुआइआं होती थी। इन दुकानों के सामने ही एक खूही और आहलूवालिओं का गुरदुआरा होता था। गियान चंद की दूकान से लेकर यहां तक बहुत चहल पहल होती थी।

कहने की बात नहीं हमारी गली के पीपलों से ज़्यादा रौनक इसी छोटे से कम्पलैक्स में हुआ करती थी। जब दीवाली दसैहरे का अवसर होता तो इस जगह पर बहुत रौनक होती थी। उस समय पटाखे सिर्फ गियान की दूकान से ही मिलते थे। गियान की दूकान पर बहुत भीड़ होती थी। इस समय कुछ लोग शराब भी पीते थे और जुआ भी खेलते थे। जुआ खेलते खेलते कभी लड़ाई भी हो जाती थी। दीवाली के दिन कुछ लोग बोला करते थे कि रात को दरवाज़े खुले रखो, लक्ष्मी बहुत धन देगी। जुआ खेलने वाले लोग अक्सर  बोलते थे कि जो दीवाली के दिन जुआ नहीं खेलेगा वोह कुत्ते की जून को पायेगा, इस पर अक्सर लोग हंस देते थे।

जब भी कभी गुरु नानक देव या गुरु गोबिंद सिंह जी का पर्व होता तो जलूस निकलता था। यह जलूस सारे गाँव के ऊपर ऊपर से हो कर जाता था। एक छकड़े पर रागी बैठे होते थे जो हारमोनियम और तबले के साथ गाते थे । दूसरे पर ढाडी जथा होता था जिन के पास एक सारंगी होती थी और दो या तीन के पास छोटे छोटे डमरू होते थे जिन को ढड बोलते थे। यह लोग अक्सर हाई नोट पे गाते हैं और खड़े हो कर ही गाते  हैं । यह सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द साहब जी की देन है। उन्होंने लोगों को मुसलमान हुकमरानों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहत  किया था और यह जथे बनाये थे जो ऊंची आवाज़ में गाते थे और लोगों की रगों में लड़ने के लिए खून खौलने लगता था। इन के जितने भी गीत होते हैं वोह बहादरों की कहानीआं होती हैं जिन को सुन कर सिख लड़ने के लिए तैयार हो जाते थे।

एक जथा होता था, अमर सिंह शौंकी का जिस को लोग बहुत चाह से सुनते थे। उन के बहुत रिकार्ड भी हुआ करते थे जो पत्थर के होते थे। एक दिन यूट्यूब पर मैंने उन के गाये गीत सुने थे लेकिन आम लोग उस को भूल चुके हैं।

जब जलूस सारे गाँव का चकर लगा कर इन दुकानों के पास आता तो बहुत देर तक इस जगह रुकता । बहुत स्त्रीआं और बच्चे मेला सिंह के मकान के ऊपर चढ़ जाते। मेला सिंह के मकान के सामने भी खुला मैदान हुआ करता था, इस लिए बहुत लोग जमा हो जाते थे। अमर सिंह शौंकी जब आता  तो लोग खिल जाते और उसे एक गीत की फरमाइश करते,” नी वाह धरती पंजाब दी ए “. इस गीत पे लोग बहुत रूपए देते।

गियान की दूकान के पास जो मैदान था, उस में भी कुछ लोग बैठे ताश खेल रहे होते, जिन में ज़्यादा तर नत्थू राम का बेटा बलबीर, मेला राम सुनार, उस का एक बेटा जो किसी स्कूल में पढ़ाता भी था ( इस का नाम मुझे याद नहीं आता ), गिरधारी लाल, कुंदन लाल और एक होता था उस शाह जी का लड़का जो बहुत सुन्दर मैहँघे और  अच्छे कपडे पहनता था। नत्थू राम का बेटा छोटा लेकिन मोटा गोल मोल था और उस के साथी उसे हंस कर बीरबल भी कहते थे, यह बीरबल नाम तब पड़ा था जब उस ने एक ड्रामे में बीरबल का पार्ट अदा किया था। यहां ताश खेलते समय बहुत शोर होता था। ताश में ज़्यादा सीप और दुसरी और कभी कभी देवर भाबी खेलते थे। जो भाबी बन जाता था उस को बहुत शर्मिंदा करते थे। मेला राम सुनार का बेटा जो स्कूल में पढ़ाता  भी था, उस की भी अजीब कहानी है।

बारह तेरह साल की बात है, जब भी हम इंडिया आते थे तो एक आदमी नंगे पाँव मैली कमीज पहने हुए मेरे भाई की सर्जरी के बाहिर बैंच पर बैठा होता था और अखबार पड़ता रहता था। मैंने भाई से पुछा कि यह शख्स कौन है ? तो भाई साहिब ने बताया कि वोह मेला राम सुनार का लड़का था और कुछ वर्ष इस ने पढ़ाया भी था लेकिन इस की नौकरी छूट गई थी। उस के बाद इस को नौकरी मिली नहीं और अब इस की बेटी भी शादी के काबल है लेकिन गरीबी इतनी है कि माँ बेटी लोगों के घरों में काम करके गुज़ारा करती हैं। यह विचारा जब कभी किसी के घर में कोई उत्सव होता है तो वहां जा कर खूब रोटी खाता है और घर को भी ले आता है। भाई की बात सुन कर मुझे बहुत दुःख हुआ लेकिन समझ नहीं आती थी कि यह है कौन और दिमाग पे जोर दे कर उस का पुराना चेहरा याद करने की कोशिश करता लेकिन याद नहीं आता था। खैर मैंने भाई साहिब को कहा कि मेरे पास कपड़े थे और अगर वोह कहें तो इस शख्स को दे दूँ। भाई साहब ने बोला यह तो अच्छा काम ही होगा। मैंने दो नई कमीज़ें और एक पजामा सूट उस को दे दिया जिस से  वोह बहुत खुश हो गिया। जब मैं वापिस इंग्लैण्ड आया तो कई महीने बाद अचानक उस भाई का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गिया जब वोह टीचर हुआ करता था। वोह पैंट बुशर्ट पहने हुए होता था और जेब में रुमाल भी रखता था और बहुत स्मार्ट होता था। तब और अब की हालत देख कर मुझे बहुत दुःख हुआ कि ज़िंदगी किया किया खेल रचाती है।

गियान की दूकान के बिलकुल सामने भी कुछ लोग बैठे रहते थे। एक दिन बहुत बारिश हो रही थी और हर जगह कीचड़ ही कीचड़ था। एक लड़का दर्शन जो हम से पांच छी साल बड़ा था गियान की दूकान के कुछ दूरी पर बारिश में खेल रहा था कि उस का पैर एक ईंट से लगा और वोह गिर गिया और वोह ईंट उखड़ गई। उस के नीचे उस को सोने के पौंड दिखाई दिए। कहते थे कि यह २८ पौंड थे। उस ने सभी पौंड उठाए और घर को ले कर भाग गिया। यह मैंने लोगों से सुना था और यह भी सुना था कि कुछ लोग अपना हक़ जमा रहे थे लेकिन दर्शन के पिता और चाचे बहुत तगड़े थे और किसी में इतना साहस नहीं था कि लड़ाई झगड़ा करें।

अब गियान की दूकान के न दाईं ओर न बाईं ओर न सामने कोई खुली जगह है। इंच इंच जगह लोगों ने इस्तेमाल कर ली है। गियान के सामने और साइड को छोटी छोटी दुकानें बन गईं। जिस जगह कभी हम सारा दिन भी बिता देते थे, अब पांच मिनट से भी ज़्यादा ठैहरने को जी नहीं मानता।

चलता ……

5 thoughts on “मेरी कहानी – 28

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    वाह बहुत खूब आदरणीय

  • Man Mohan Kumar Arya

    सारा वर्णन रोचक एवं प्रभावशाली है। ऐसा लग रहा था की मैं लेखक के साथ सभी जगहों पर घूम रहा हूँ। मेलाराम सुनार के टीचर लड़के की स्थिति देखकर दुःख हुआ। समय बड़ा प्रबल होता है, यह किसी को अर्श पर भी चढ़ाता है और अर्श पर चढ़े हुओं को फर्श पर भी गिराता है। इसे पढ़कर “वक़्त” चलचित्र की याद हो आयी। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , यों तो सभी गावों में यह ही कुछ होता है , यह मेरी अकेले की कहानी नहीं हो सकती , हाँ कुछ छोटे बड़े गाँव में फर्क हो सकता है , मेला राम सुनार के बेटे का जब अचानक मेरे दिमाग में आया तो मैं तो काँप ही गिया यह सोच कर कि वोह कितना स्मार्ट हुआ करता था , सच में मुझे बहुत दुःख हुआ था .

  • विजय कुमार सिंघल

    आपके गाँव की कहानी बहुत रोचक है, भाई साहब.
    एक प्रश्न मन में उठा है- हमारे गाँव में और आसपास के गांवीं में भी सप्ताह के किसी एक दिन बड़ा बाजार लगता था, जिसमें दूसरे गांवों के दुकानदार भी आते थे. उसमें सप्ताह भर की जरुरत की सभी चीजें मिल जाती थीं. आपके किसी संस्मरण में इसका कोई जिक्र नहीं है. क्या वहां ऐसा नहीं होता था?

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , हमारे गाँव या इर्द गिर्द के गाँवों में ऐसा नहीं होता था , हाँ कभी कभी किसान मेले लगते थे , जिस में किसान लोग अपने खेतों में उगी सब्ज़िआन लाते थे , जो नुमाएश में रखे जाते थे और जीतने वाले को इनाम मिलता था . हमारे गाँवों के लिए तो फगवारा शहर ही होता था और शहर को छकड़े जाते ही रहते थे जिस पर लोग बैठ जाते थे . जब की बात मैं लिख रहा हूँ उस वक्त तो बाइसिकल भी बहुत कम होते थे और कई लोग तो पैदल भी फगवारे को जाया करते थे .

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