मुक्तक/दोहा

कुछ मुक्तक

(1)
जीवन की आड़ी तिरछी राहों पर आगे बढ़ता चल
बाधा से घबराना कैसा सोच समझ पग धरता चल
जन काँटों को चुन एक तरफ कर समतल कर दे राहों को
दुःखी हृदय में प्रेम जगा कर मुस्कानों से भरता चल
(2)
सुजला सुफला शस्य श्यामला सपनों में ही शेष रह गया
बहुत किया दोहन धरती का मरुथल ही परिवेश रह गया
हरे-भरे तरु और लताएं गए काल के गाल में समा
पंछी तो उड़ चला गगन को पिंजर का अवशेष रह गया
(3)
रंग-तूलिका लिए हाथ में निकल पड़ी हूँ नंगे पांव
नवल चित्र निर्मित हो कैसे मन में सदा यही है भाव
जीवन के कोरे पृष्ठों पर भाव उकेरूं कुछ मन के
धरती की धानी चूनर को बैठ रंगूं पीपल की छाँव
लता यादव

लता यादव

अपने बारे में बताने लायक एसा कुछ भी नहीं । मध्यम वर्गीय परिवार में जनमी, बड़ी संतान, आकांक्षाओ का केंद्र बिन्दु । माता-पिता के दुर्घटना ग्रस्त होने के कारण उपचार, गृहकार्य एवं अपनी व दो भाइयों वएकबहन की पढ़ाई । बूढ़े दादाजी हम सबके रखवाले थे माता पिता दादाजी स्वयं काफी पढ़े लिखे थे, अतः घरमें पढ़़ाई का वातावरण था । मैंने विषम परिस्थितियों के बीच M.A.,B.Sc,L.T.किया लेखन का शौक पूरा न हो सका अब पति के देहावसान के बाद पुनः लिखना प्रारम्भ किया है । बस यही मेरी कहानी है

One thought on “कुछ मुक्तक

  • गुंजन अग्रवाल

    bahut sundar muktak aadarniy

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