आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 1)

अथ

अपनी आत्मकथा के पिछले भाग ‘दो नम्बर का आदमी उर्फ आ ही गया बसन्त’ में मैं लिख चुका हूँ कि किस प्रकार प्रोमोशन होने के बाद मेरी पोस्टिंग कानपुर में होने का आदेश आया। मुझे 1 जनवरी 1996 (सोमवार) को इलाहाबाद बैंक के कानपुर मंडलीय कार्यालय में वरिष्ठ प्रबंधक (कम्प्यूटर) के रूप में कार्यभार ग्रहण करना था। इसलिए मैं 31 दिसम्बर को ही इलाहाबाद तक बस में फिर वहाँ से ट्रेन में बैठकर कानपुर पहुँच गया। थोड़ी पूछताछ के बाद में शाम को लगभग 6 बजे अपने चचेरे बड़े भाई डाॅ. सूरज भान के निवास स्थान पर चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय में पहुँच गया, जिसे बोलचाल में ‘पत्थर कालेज’ कहते हैं। वैसे मैं उन्हें फोन द्वारा सूचित कर चुका था कि मेरा ट्रांसफर कानपुर हो गया है और मैं 31 को आ रहा हूँ।

उस समय मेरा एक भतीजा मुकेश उसी विश्वविद्यालय में एक होस्टल में रहकर कृषि विज्ञान में पीएच.डी. कर रहा था। मुझे कानपुर आया जानकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता इस बात की थी कि कानपुर में मुझे अच्छा रहने लायक घर मिल पायेगा कि नहीं, परन्तु मुकेश ने कहा कि इसकी कोई चिन्ता नहीं है।

अगले दिन मैं मुकेश के साथ ही अपने मंडलीय कार्यालय गया, जो स्वरूप नगर में मोतीझील के ठीक सामने मुख्य सड़क के किनारे है। मैं वहाँ 10 बजे से ठीक 5 मिनट पहले ही पहुँच गया। उस समय वहाँ मेरे परिचित केवल एक व्यक्ति दिखाई पड़े। वे थे- श्री आर.के. अवस्थी। जब मैं एक बार नागपुर में ट्रेनिंग के लिए गया था, तो वे हमारे प्रशिक्षकों में से एक थे। उन्हें कानपुर में देखकर मुझे आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। स्केल 3 में प्रोमोशन के बाद उनको कानपुर में पदस्थ किया गया था। उन्होंने भी मुझे पहचान लिया। फिर उन्होंने अन्य लोगों से मेरा परिचय कराया।

उस समय कानपुर मंडल के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में सहायक महा प्रबंधक श्री राम विजय पांडेय जी नियुक्त थे। वे कुछ समय तक हमारे वाराणसी मंडल के भी सहायक महा प्रबंधक रह चुके थे। वाराणसी में ही दुर्भाग्य से पहले उनकी श्रीमतीजी और फिर वृद्ध पिताजी दोनों का देहावसान हुआ था। राजनीति के कारण उन्हें वाराणसी से शीघ्र ही चलता कर दिया गया और वे कानपुर में सेवारत थे। वे मुझे बहुत मानते थे। उस दिन अर्थात् 1 जनवरी को वे मंडलीय कार्यालय में नहीं थे, बल्कि नये वर्ष की शुभकामनायें देने शहर की विभिन्न शाखाओं में गये हुए थे। इसलिए मैं उस समय उनसे नहीं मिल सका।

वहीं मुझे पता चला कि हमारा कम्प्यूटर सेंटर वहाँ से काफी दूर बड़े चौराहे पर है। वहाँ हमारे बैंक की एक बहुत पुरानी और मुख्य शाखा है, जो अपने ही परिसर में पुराने ढंग के एक सुन्दर भवन में चल रही है। उसी भवन के पिछवाड़े में एक बड़े कमरे के साथ दो बरामदों को मिलाकर कम्प्यूटर सेंटर बना दिया गया था। यह कम्प्यूटर सेंटर मंडलीय कार्यालय से काफी दूर था और कार्यालय के अन्य विभागों को असुविधा होती थी। इसलिए मेरे आने से पहले दो-तीन बार उस कम्प्यूटर सेंटर को मंडलीय कार्यालय परिसर में लाने की कोशिश की जा चुकी थी, परन्तु वह असफल रही, क्योंकि वहाँ पर पदस्थ कम्प्यूटर अधिकारी वैसा नहीं चाहते थे और किसी न किसी बहाने से इसे टाल देते थे।

दोपहर को लगभग 11 बजे मैं अपने कम्प्यूटर सेंटर गया। वहाँ पर मेरे विभाग के सभी अधिकारी मिल गये। उनमें से एक को छोड़कर सभी मेरे पूर्व परिचित थे। यहाँ उनका परिचय देना उचित रहेगा। वहाँ पर मेरे बराबर के पद पर अर्थात् वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में थे श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव, जो मेरे ही बैच के थे और प्रारम्भ से ही कानपुर में पदस्थ थे। उनको वहाँ रहते हुए 7 वर्ष हो चुके थे। मुझसे दो वर्ष पहले ही उनका प्रोमोशन तब हो चुका था, जब मैं पहली बार असफल रहा था। वैसे वे भी अपील करने पर ही सफल हुए थे।

अन्य अधिकारियों में थे सर्वश्री शैलेश कुमार श्रीवास्तव, अनिल मिश्र और अब्दुल रब खाँ। ये तीनों स्केल 2 अधिकारी थे और लखनऊ से प्रतिदिन आते-जाते थे। बड़े चौराहे से कानपुर सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन पास पड़ता है और मोतीझील से वह बहुत दूर है। इसलिए वे नहीं चाहते थे कि कम्प्यूटर सेंटर वहाँ से कहीं और जाये। इनमें से पहले दो अधिकारी कुछ समय तक मेरे साथ लखनऊ में रहे थे, जब मैंने बैंक में सेवा प्रारम्भ की थी। बाद में मैं वाराणसी चला गया था और उसके कुछ समय बाद वे दोनों कानपुर आ गये थे।

वहाँ पाँचवें अधिकारी थे श्री के.सी. श्रीवास्तव। वे कानपुर के ही रहने वाले थे और स्केल 1 से आगे कभी प्रोमोशन इसलिए नहीं लेते थे कि उनकी पोस्टिंग कहीं दूर न कर दी जाये।

वहाँ एक क्लर्क भी थे श्री आर.के. गौड़, जो एक बहुत पुराने सिर दर्द से पीड़ित थे और उनकी चिकित्सा चल रही थी।

इन सभी अधिकारियों में से केवल श्री शैलेश कुमार ऐसे थे जिनके साथ मेरी बहुत घनिष्टता थी। लखनऊ में भी और फिर कानपुर में भी। वे वास्तव में मुझे उचित और हितकारी सलाह दिया करते थे, इसलिए मैं उन पर बहुत विश्वास करता था। उनकी ही सलाह से मैं दोपहर बाद फिर मंडलीय कार्यालय गया और अपने सहायक महा प्रबंधक श्री पांडेय जी से मिला। मुझे आया जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे कहा कि अगर किसी भी तरह की कोई समस्या हो, तो मुझसे कहना। मैंने इसके लिए उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। फिर मैंने कहा कि यदि बैंक का कोई फ्लैट खाली हो, तो मुझे एलाट करा दें, तो उन्होंने बताया कि एक फ्लैट अशोक नगर में खाली पड़ा है। उसी के पास वाले फ्लैट में वहाँ के तत्कालीन मुख्य प्रबंधक श्री पी.के. कपूर रहा करते थे। श्री पांडेय जी ने मुझसे कहा कि इसके लिए मैं वहाँ के प्रबंधक (प्राॅपर्टी) श्री पी.के. दीक्षित से मिल लूँ। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और फिर उनके कमरे से बाहर आकर श्री दीक्षित से मिला। श्री दीक्षित ने मुझे उस फ्लैट का पता बताया और देखकर आने के लिए कहा कि वह ठीक रहेगा या नहीं।

मैं उसी दिन शाम को लगभग 7 बजे मुकेश के साथ उस फ्लैट को देखने गया। हालांकि अँधेरे में मैं उसे अच्छी तरह नहीं देख सका, लेकिन फिर भी मुझे पसन्द आ गया। इसलिए मैंने वही फ्लैट अपने नाम एलाट करा लिया। दो दिन बाद ही मैं अपना सामान लेने वाराणसी चला गया।

हमारी श्रीमती जी के सामने पहली बार मेरा स्थानांतरण हो रहा था, इसलिए वे सामान ले जाने के बारे में बहुत चिन्तित थीं। कहावत है कि ‘सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ’। अतः उन्होंने सहायता के लिए अपने भाई आलोक को ही वाराणसी बुला लिया, हालांकि मैं इसे अनावश्यक मानता था। कानपुर से मेरा भतीजा मुकेश चन्द भी मेरे कहने पर वाराणसी आ गया था। मुझे उस पर बहुत विश्वास था और है, क्योंकि वह बहुत व्यवहारकुशल है और इंतजाम का कार्य अच्छी तरह कर लेता है। उसी ने वाराणसी से कानपुर के लिए एक मिनी ट्रक तय किया, जो हमारे सामान की मात्रा के अनुसार पर्याप्त था। हम चाहते तो सामान को उस ट्रक से भेजकर स्वयं सपरिवार ट्रेन से भी कानपुर जा सकते थे। परन्तु सबका यही विचार बना कि सभी उस ट्रक में ही कुछ आगे, कुछ पीछे बैठकर कानपुर चलेंगे।

हमने रात को ही ट्रक अपने घर के बाहर खड़ा करा दिया और ड्राइवर के साथ ही दो मजदूरों को भी रात में घर पर ही सुला लिया, ताकि सुबह जल्दी उठकर वे सामान लाद सकें और हम जल्दी से जल्दी निकल सकें। हमारा विचार अंधेरा होने से पहले ही कानपुर पहुँच जाने का था। अपनी योजना के अनुसार हम कानपुर पहुँच गये। रास्ते में हालांकि कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन थकान बहुत हो गयी थी। कानपुर में सामान उतारने के लिए हमने मजदूर तलाशे और किसी तरह सामान अपने फ्लैट में पहुँचा दिया।

अगले ही दिन मैं अपने कार्यालय अर्थात् कम्प्यूटर सेंटर पहुँच गया। उस समय हमारे कम्प्यूटर सेंटर की हालत बहुत विचित्र थी। पहले दिन मैंने काम की जानकारी ली तो पता चला कि कोई भी काम पड़ा हुआ अर्थात् बकाया नहीं है। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ। शीघ्र ही इसका रहस्य मुझे ज्ञात हो गया। वास्तव में वहाँ ज्यादा काम होता ही नहीं था। मंडल की 128 शाखाओं में से केवल 35-40 शाखाओं का वेतन वहाँ बनता था, जो श्री अब्दुल रब खाँ बना दिया करते थे। पेंशन जरूर सबकी बन जाती थी, जो श्री शैलेश कुमार बनाया करते थे। यह कार्य भी महीने में केवल तीन दिन का होता था। वीकली का अकेला काम श्री के.सी. श्रीवास्तव कर देते थे। एडवांस शीट का कार्य बाहर कराते थे। इसके अलावा कुछ छुटपुट काम श्री अनिल मिश्र कर देते थे। इन कामों के अलावा वे कोई नया काम अपने हाथ में लेना ही नहीं चाहते थे।

इतने पर भी कम्प्यूटर सेंटर के बारे में मंडलीय कार्यालय की धारणा बहुत अच्छी थी। इसका रहस्य यह था कि कम्प्यूटर सेंटर के पास ही कर्मचारियों की सोसाइटी का आॅफिस था। वहाँ नेता लोग बैठते थे। उस आॅफिस में उस समय न तो कूलर था और न कोई टेलीफोन, जबकि कम्प्यूटर सेंटर में टेलीफोन के साथ एयरकंडीशनर भी था। इसलिए नेता लोग प्रायः कम्प्यूटर सेंटर में ही बैठकर अपनी गतिविधियाँ चलाया करते थे। वे ही लोग मंडलीय कार्यालय में जाकर कह देते थे कि कम्प्यूटर सेंटर में बहुत काम होता है और अच्छी तरह चल रहा है।

जब वहाँ मेरी पोस्टिंग हो गयी, तो वे लोग समझ गये कि अब श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव को वहाँ से कहीं और भेज दिया जायेगा और वहाँ उनकी अड्डेबाजी नहीं चल पायेगी। इसलिए कुछ नेता टाइप लोग प्रारम्भ से ही मुझसे खार खाने लगे, परन्तु मैंने इसकी चिन्ता नहीं की। लगभग दो महीने बाद ही श्री श्रवण कुमार का स्थानांतरण भोपाल कर दिया गया। फिर मैंने अपनी स्टाइल के अनुसार कम्प्यूटर केन्द्र के कार्य को व्यवस्थित करना शुरू किया।

(पादटीप : श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव इस समय हमारे ही बैंक में मुख्य महा प्रबंधक हैं और कोलकाता में पदस्थ हैं।)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

10 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 1)

  • मनोज चौहान

    बहुत अच्छे सर ……आपने अपने अनुभवों और स्मृतियों का बखूबी चित्रण किया है ….स्थानातंरण से मन बिचलित तो होता ही है …मगर फिर अंत में यही सोच कर संतोष करना पड़ता है कि यह तो नौकरी का ही एक हिस्सा है l मगर सामान शिफ्ट करना अपनेआप में एक प्रोजेक्ट होता है , मैं भी इसी दौर से गुजर चूका हूँ l पहली कड़ी के लेखन हेतु बधाई ….अब दुसरी कड़ी को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ रही है ….दुसरी कड़ी को पढ़ने के बाद कमेंट करूँगा …l

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , इस भाग की पहली किश्त अच्छी लगी . जगह बदली के कारण सारा सामान ले जाना मुश्किल तो होता है लेकिन हो जाता है . कुछ बौद्रेशन तो होती ही है . बहुत अच्छा लग रहा है और अगली किश्त का इंतज़ार है.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. अचानक स्थानांतरण होने से अपनी दिनचर्या एकदम disturb हो जाती है. लेकिन जल्दी ही फिर पटरी पर आ जाती है. कानपूर में व्यवस्थित होने में मुझे बिलकुल भी समय नहीं लगा था, क्योंकि फ्लैट तुरंत मिल गया था और सामान भी सारा साथ ले आये थे. आते ही महरी वगैरह का भी इंतजाम हो गया था.
      लेकिन आज अभी दो घंटे पहले मेरा ट्रान्सफर मुंबई होने का आदेश आया है. अगले सप्ताह जाना पड़ेगा. मुंबई बहुत दूर है, इसलिए इस बार बहुत गड़बड़ हो सकती है. पर देख लूँगा. मेरे पुराने साथी भी वहां हैं. आशा है कि वहां बैंक का फ्लैट भी मुझे मिल जायेगा.

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        विजय भाई , अच्छी शुरुआत हुई दुसरे भाग की , कि एक नज़र पीछे की ओर एक नज़र आगे की ओर हो गई , मुश्किल तो होगी ही लेकिन जल्दी पटरी पे आ जायेगी . we wish your journey well and relaxed.

        • विजय कुमार सिंघल

          आभार, भाई साहब ! इश्वर की कृपा और आपके आशीर्वाद से सब सही हो जायेगा.

  • Man Mohan Kumar Arya

    धन्यवाद श्री विजय जी। आज की किश्त में कानपुर में जॉइनिंग, वाराणसी से शिफ्ट करना और अपने कार्यालय को व्यवस्थित करने के साथ कानपुर के बैंक के साथियों की जानकारी हुई। जानकारी रोचक एवं प्रेरणादायक है। अगली किश्त का इंतजार है। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

    • विजय कुमार सिंघल

      मान्यवर, मेरा स्थानांतरण अभी अभी मुंबई हो गया है. लेकिन आशा है कि वेबसाइट और पत्रिका का काम चलता रहेगा.

      • Man Mohan Kumar Arya

        आपका स्थानांतरण का समाचार सुनकर मन को कुछ कष्ट हुआ। अच्छा नहीं लग रहा है परन्तु नौकरी व सेवा में मनुष्य परतंत्र होता है। यह इसी कारण से है। ईश्वर हमारे साथ है। ईश्वर के भरोसे हर कार्य व चुनौती में मनुष्य सफल होता है। आप भी सफल होंगे। मेरी आपको बहुत बहुत शुभकामनायें हैं। कुछ ही दिनों में सब कुछ परिस्थितियों के अनुसार व्यवस्थित हो जाएगा। आपको इस अवसर पर मेरी हार्दिक शुभकामनायें हैं।

        • विजय कुमार सिंघल

          बहुत बहुत आभार, मान्यवर ! प्रभु की कृपा और आप सबका आशीर्वाद ही मेरा संबल है !

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