कहानी

कहानी : “अंत भला तो सब भला”

“देख भाई-बहन का हमारा रिश्ता अपनी जगह है, लेकिन मैं कमीशन के पैसे नहीं छोड़ने वाला। तू पहले मेरा कमीशन का दस हज़ार रुपया दे।” बीच गली में अपना स्कूटर खड़ा करने के उपरान्त ही गुरवीर ने बड़ी भद्दी ज़बान में चिल्लाते हुए कहा। आते-जाते लोग कौतूहलवश वहीं खड़े हो गए।

“भाई, घर के अंदर आ जाओ। ” लाजवन्ती, जो अपने पति हरभजन सिंह के साथ द्वार पर ही खड़ी थी। शर्मिंदा होते हुए बोली। लोग-बाग, भाई-बहन के बीच होने वाले किसी नए तमाशे की उम्मीद में, उनके और करीब आने लगे। उनके लिए यह बात बड़ी अटपटी थी कि, एक प्रॉपर्टी डीलर भाई, कैसे बेशर्मों की तरह अपनी बहन से कमीशन के पैसे मांग रहा है!

“यहाँ क्या फिल्म चल रही है?” गुरवीर ने अपने पीछे खड़े लोगों को झिड़कते हुए कहा, “अरे जाओ आगे बढ़ो। तुम लोगों को कोई काम-धंधा है या नहीं।” खड़े राहगीर शर्मिंदा होकर अपनी राह हो लिए।

“वीर जी, अब आपसे क्या छिपा है? सारा पैसा मकान ख़रीदने और रजिस्टरी करवाने में चला गया है।” लाजवंती ने अपना दुखड़ा भाई के आगे रोया। फिर बेमन से अपने पर्स से दस हज़ार रुपए निकालकर भाई की ओर बढ़ा दिए, “ये बंटी की स्कूल फ़ीस के पैसे हैं…” आगे के शब्द लाजवन्ती के मुंह में ही रह गए। बेबस निगाहों से वह भाई की तरफ देखती रही। शायद दया की कोई किरण शेष हो।

“देख बहना, घोडा अगर घास से यारी करेगा, तो खायेगा क्या? फिर तेरे से ज़ियादा थोड़े ले रहा हूँ। ” नोट गिनते हुए गुरवीर का स्वर थोड़ा नरम हो गया। उसकी आँखों में हरे-हरे नोटों की हरियाली देखकर नई चमक पैदा हो गई थी। वह पुनः बोला, “कोई दूसरा प्रॉपर्टी डीलर होता तो पच्चीस हज़ार से एक पैसा कम न लेता।”

“सो तो है।” लाजवन्ती के पीछे मिट्टी का माधो बने गुरवीर के जीजा हरभजन सिंह ने सहमती में सर हिलाते हुए कहा। हरभजन बेहद दुबला-पतला व्यक्ति था, बिलकुल अपनी पत्नी लाजवन्ती की तरह। दोनों पति-पत्नी ने अपना पेट काट-काट कर मकान ख़रीदा था। अच्छा भोजन उन्होंने कब किया था? इसका उन्हें ध्यान नहीं।

“तुम यहाँ खड़े-खड़े मेरी छाती पे मूंग क्यों दल रहे हो? बाज़ार से जाकर कुछ सौदा-पानी ले आओ। ” लाजवन्ती हरभजन को डांटते हुए बोली, “वीर जी खड़े हैं। उनके लिए कुछ भोजन-पानी तैयार करना है।”

“न बहना, तेरी परजाई घर में इन्तिज़ार कर रही होगी। ” गुरवीर ने पैसे जेब के हवाले करते हुए कहा, “तेरे घर किसी और दिन खाऊंगा।” और बिना वक़्त गंवाए अपने स्कूटर को किक मरते हुए गुरवीर वहां से चल दिया।

स्कूटर आँखों से जब तक ओझल न हुआ। लाजवन्ती और हरभजन एकटक उधर ही देखते रहे। पृष्ठभूमि से जब स्कूटर ओझल हुआ तो आकाश में डूबते सूरज की एक चौथाई छवि शेष रह गई थी। सम्पूर्ण वातावरण को रवि किरणों की लालिमा ने घेर लिया था।

“ये साले प्रॉपर्टी डीलर किसी के सगे नहीं होते। अपनी सगी बहन को भी नहीं छोड़ा, कमीशन के पैसे ले लिए। कैसा नीच भाई है। थू।” वही राहगीर जिसे कुछ समय पहले गुरवीर ने तमाशाई होने की झिड़की दी थी। दुबारा वहां से गुजरते हुए, अपने साथ चल रहे दूसरे व्यक्ति से इस तरह बोला कि लाजवन्ती और हरभजन को यह संवाद स्पष्ट सुनाई पड़ा। शायद ऐसा कहके उस व्यक्ति ने अपनी भड़ास निकाली थी। हरभजन उनकी तरफ देखकर मुस्कुराभर दिया। जबकि लाजवन्ती का सिर शर्म से झुक गया था। उसकी निगाहें दस हाथ दूर मरे चूहे पर केन्द्रित हो गई थी। जिसका मांस एक कौवा नोचने में व्यस्त था।

“चलो पापा-मम्मी एक बार ले चलो। हमें ज्योता वाली के दरबार ले चलो।” सुबह-सुबह दुकान के बाहर स्टूल पर खड़े होकर गुरवीर एक पुराने कपडे से दुकान के साइन बोर्ड को चमकाते हुए, ऊँचे सुर में ‘माँ की भेंट’ गुनगुनाने लगा था।

“जय माता दी प्रापर्टीज।” लाल रंग से साइन बोर्ड पर लिखे बड़े अक्षरों को स्टूल से उतरते हुए, वह धीमे से बुदबुदाया। बोर्ड पर दुकान का पता और मोबाइल फ़ोन न० भी चमक रहे थे। साइन बोर्ड के किनारे पर छोटे अक्षरों में लिखा था —प्रो० गुरवीर मदान।

दुकान के अंदर धूपबत्ती की महक हलके धुंए के साथ वातावरण में तैर रही थी। दुकान के कोने पर लकड़ी का एक छोटा-सा मंदिर था। वैष्णों रानी की एक छोटी-सी सोने की प्रतिमा रखी थी। यह मूर्ति उसने वैष्णों देवी की यात्रा के दौरान तब खरीदी थी। जब उसने एक विवादास्पद ज़मीन के सौदे में भरी मुनाफा कमाया था। इस वक्त उसी मूर्ति के आगे धूपबत्ती जल रही थी। मंदिर छोटा-सा, मगर चन्दन की लकड़ी का बना था। उस पर नक्काशी का खूबसूरत काम हो रखा था। जो देखते ही बनता था। सामने आधुनिक फर्नीचर—मेज़ और कुर्सियां, दुकान की शोभा बढ़ा रहे थे। ऊपर गुरवीर का पूरा परिवार रहता था और नीचे का हिस्सा दुकान में तब्दील था।

“ओये भगवाने, कर्मावालिये, पहले चाय तो भेज दे, अपने शौहर के वास्ते। पराठे बाद में सेक लेना।” इंटरफोन से गुरवीर ने अपनी घरवाली कुलवीर को निर्देश दिया। तत्पश्चात वह अपनी आराम कुर्सी पर पसर गया। उसने मेज़ के नीचे अपने पैर फैला दिए।

“बोल साँचे दरबार की” कहकर उसने एक ज़ोरदार जम्हाई ली।

“जय” एक तेज स्वर दुकान के बाहर से उभरा। चेहरा जाना-पहचाना था और उसकी आवाज़ भी। इसलिए उसी मुद्रा में चौंकते हुए गुरवीर बोला, “अबे जोगिंदर तू! हुश्यारपुर तोँ कब आया?”

“बस यारा, पिण्ड से उठके सीधा तेरे पास, तेरे घर चला आ रहा हूँ।” और जोगिंदर ने दोनों हाथ फैला दिए, “आ गले लग जा।”

” क्यों नहीं?” उसी गर्मजोशी से गुरवीर ने कहा। कुर्सी से खड़ा होकर जोगिंदर की तरफ बढ़ा, गले मिलने के लिए।

“आ यारा आ, झप्पी पा ले।” और गले मिलते हुए उसने गुरवीर की पीठ पर ज़ोर से थपकी मारी।

“साले सुंअर! पीठ पर मारने की तेरी आदत नहीं गई।” गुरवीर ने दर्द से करहाते हुए कहा। तमाम अौपचारिकताओं से नबटने के उपरांत गुरवीर ने इंटरफोन हाथ में लेकर अपनी पत्नी कुलवीर कौर को निर्देश देते हुए कहा, “एक चाय और ले आना, पिण्ड से जोगी आया है, चार पराठे और लेती आना। तुझे तो मालूम ही है खाने की मामले में पूरा राक्षस है। रा SSक्ष S S स S S …।” दूसरी बार गुरवीर ने स्वर को थोड़ा-सा लम्बा खींचते हुए राक्षस शब्द को तोड़ते हुए, जोगिन्दर की तरफ बड़ी विचित्र दृष्टि से देखा था। जोगी ने आँखें बड़ी करके अपनी जीभ बाहर निकल कर गुरवीर के कहे अनुसार राक्षस बनने की कोशिश की।

“ये क्या कर रहे हो?” कहते हुए गुरवीर की हंसी छूट पड़ी।

“तेरे कहे को किये में ढाल रहा हूँ। पर ऐ तुसी चंगा कित्ता पराह। पराठे दा नाम सुनके, मेरे भीतर के राक्षस को ज़ोरों की भूख लग गई है।” अपने पेट पर हाथ मलते हुए जोगी ने कहा और एक डकार ली, “खाली पेट दी डकार हैगी।”

“रब दा शुक्र है, तुसी मुह ते ही डकार लित्ति।” गुरवीर के इस कथन पर दोनों यार खुल के हंस दिए। गप्पों का दौर जारी रहा।

कुछ ही देर बाद कुलवीर कौर पराठे और चाय एक ही तस्तरी लेकर हाज़िर हुई तो जोगिन्दर तपाक बोला, “सत श्री अकाल परजाई जी … त्वाडे पराठे दियां महक तो अंतर-आत्मा विच समा गई। गुरवीर बड़ा लक्की है। ”

“मेरी साली जसविंदर जवान हो गई है। तू कहे तो तेरी बात चलाऊँ यारा। ” गुरवीर ने हाथों से अपने बाल सेट करते हुए कहा।

“ओ न जी न। अस्सी छड़े ही अच्छे। कहाँ फंसा रहे हो? शादी तो जी दा जंजाल है। ” जोगिन्दर कुर्सी पर फैल गया, “फिर तेरा करेक्टर मैं नहीं जानता क्या?” कहकर जोगिन्दर ने पराठे की प्लेट हथिया ली। ठहाका।

“अबे साले एक तो दे दे। देसी घी के छः पराठे पचा लेगा क्या ?” गुरवीर चाय का प्याला हाथ में लिए बोला, “खाली पेट चाय पीने से मेरे पेट में गैस हो जाती है। भागवाने तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है। एक-दो पराठे और ले आ। ये पाजी तो देने वाला नहीं है।” अपनी घरवाली की तरफ देखकर गुरवीर ने वाक्य ख़त्म किया। कुलवीर कौर को दोनों की बातों में बड़ा लुत्फ़ आ रहा था।

“ले तू भी क्या याद करेगा? किस रहीस से पाला पड़ा है ?” आधा पराठा गुरवीर की ओर फैंकते हुए जोगिन्दर बोला।

“मैं और ले आती हूँ। मैंने बनाके रखे हैं। ” कुलवीर हंसने लगी।

“परजाई तू बैठ आराम से। अपने देवर के साथ गपशप कर।” जोगिन्दर ने कुलवीर कौर का हाथ पकड़ के उसे अपने बगल में बैठा लिया। तीनों प्राणी गपशप करने लगे। हाल ही में घटे गांव के ताज़ा किस्सों को मनोरंजक बनाते हुए जोगिन्दर ने खूब नमक-मिर्च लगा कर सुनाए। कुछ चुटकुले भी। इस बीच चाय का एक दौर और चला। कुलवीर कौर ख़ुशी-ख़ुशी ऊपर जाकर गरमा-गरम चाय और बाकी बचे हुए पराठे भी ले आई थी। जिन्हे भी जोगिन्दर ने अपने मुंह से निगलते हुए विशाल अजगरनुमा पेट में छिपा लिया था। अंत में डकार लेते हुए जोगिन्दर बोला, “मज़ा आ गया परजाई, तेरे हाथ के पराठे खाके। ऐसे स्वाद पराठे पूरी ज़िंदगी में नहीं खाए। ”

“अब ये कुर्सी-मेज़ बची है। दस पराठों के बाद इनको भी निगल जा। तेरे एनाकोंडा जैसे पेट में अभी भी काफी जगह होगी। इस तरह तेरा नाश्ते का कोटा भी पूरा हो जायेगा। ” गुरवीर को अपने हिस्से के पराठे की कुछ कसक बाक़ी थी।

“खबरदार जो देवर जी के लिए एक शब्द भी बोला। ” कुलवीर कौर ने अपने पति को टोकते हुए कहा, “एक देवर जी हैं, जो इतनी तारीफ कर रहे हैं। और दूसरी तरफ आप हैं जो एक पराठा खाकर ऊब जाते हैं। कहते हैं तुझे ठीक से पराठे बनाने भी नहीं आते।” कुलवीर कौर ने जोगिन्दर से गुरवीर की शिकायत की।

“परजाई हीरे की कदर जौहरी ही कर सकता है। तू इसको फालतू बकवास करने दे। मुझे कोई दिक्कत नहीं। इसे कलसने दे। ये दिल की भड़ास निकलने के सिवा कर भी क्या सकता है? ” जोगिन्दर ने कहा तो कुलवीर कौर ठहाके लगाकर हंसने लगी। गुरवीर अपना सा मुंह लेकर रह गया। इस बीच जोगिन्दर की बक-बक ज़ारी रही। जिसे गुरवीर झकमार कर सुनता रहा।

“अरे हाँ कुलवीर, ये ले दस हज़ार रुपए। सेफ में रख देना। ”

कुलवीर ने रुपये और तमाम खाली बर्तन समेटे। जिन्हे लेकर वह ऊपर चली गई।

“कहाँ हाथ मारा। सुबह-सुबह दस हज़ार की मोटी रकम भाभी जी को थमा दी।” जोगी ने दुबारा डकार ली।

“अरे कुछ नहीं यारा। कल बहन लाजवन्ती ने दिए थे। उसको मैंने बढ़िया मकान दिलवाया था और रजिस्टरी भी करवा दी थी। बहुत ही अच्छे दामों में। ” और गुरवीर ने शेखी बघारते हुए कल घटित हुआ सारा किस्सा कह सुनाया, “अरे लाजवन्ती तो मेरा कमीशन का पैसा दे ही नहीं रही थी। वो तो मैंने बेशर्म होकर माँगा। मैंने बीच चौराहे पर ही चिल्लाकर कहा था—देख भाई-बहन का रिश्ता अपनी जगह पर है, लेकिन मैं कमीशन के पैसे नहीं छोड़ने वाला। तू पहले मेरे कमीशन का पैसा दे।” इसे गुरवीर ने अपनी एक बड़ी उपलब्धि मानते हुए जोगिन्दर को ‘लाजवन्ती से पैसा मांगने वाला वाक्या’ दुबारा से सुनाया, “वो तो बहाना बना रही थी कि बंटी की स्कूल की फ़ीस देनी है। मगर मैं कहाँ छोड़ने वाला था। ”

“अबे कंजर। सगी बहन को तो छोड़ देता। लानत है तेरे जैसे भाई पर, बहन से भी कमीशन! वो भी बीच रोड में। लानत है तेरे पर।” जोगिन्दर ने गुरवीर को लताड़ा, “अबे बहन और बेटी को तो ज़िंदगी भर दिया है। कुछ लेते थोड़े हैं।”

“देख जोगी, रिश्तेदारी अपनी जगह और कमीशन अपनी जगह।” गुरवीर ने दो टूक शब्दों में कहा, “और ये फालतू की नसीहत रहने दे। अभी-अभी जो तूने चाय-पराठे खाए हैं और कीमती फर्नीचर पर आराम से बैठा है। ये सब फ्री का नहीं आता है। इसके लिए पैसा लगता है। पैसा ! ऐसे कमीशन छोड़ने लगा तो हो लिया धंधा-पानी। ” जोगिन्दर चुपचाप गुरवीर की अमृतवाणी सुन रहा था।

“गुरवीर तू बिजनेसमैन तो बन गया मगर व्यवहारिक नहीं है।” जोगी ने बड़ी गंभीरतापूर्वक कहा।

“वैसे किस काम से आया था तू ?” गुरवीर ने इतनी देर बाद दो टूक शब्दों में जोगिन्दर से आने का विशेष प्रयोजन पूछा !

“क्या बताऊँ यारा ? चाचा जी अब यहाँ अकेले रहते-रहते बोर हो गए हैं। बाक़ी जीवन होशियार पर में ही बिताना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि पंजाब की मिट्टी, पंजाब में ही ठिकाने लगे। ” बड़ी ही दर्शनिकतापूर्वक जोगी ने कहा। फिर अपनी सोने की चैन पर उंगली फिराते हुए कहा, “अपना मकान बेचना चाह रहे हैं। किसी और प्रॉपर्टी डीलर को तो मैं नहीं जनता। इसलिए तेरे पास चला आया हूँ। ” जोगिन्दर ने अपने होंठो पर मुस्कान लाते हुए कहा।

“अरे यार मेरी बात का बुरा मत मानना।” गुरवीर ने जोगी के पैर पकड़ने की कोशिश की तो जोगी ने उसे रोक दिया, “मेरी नज़र में एक पार्टी है। तुम्हारे चाचा जी का मकान मैंने देखा हुआ है। वह उस आदमी को ज़रूर पसंद आएगा। मुंहमांगी कीमत मिल जाएगी।”

जोगी गुरवीर की बातें सुनकर हंसने लगा। उसने मन ही मन सोचा! ये बिजनेसमैन है। इसके लिए मान-अपमान, रिश्ते-नाते कुछ भी मायने नहीं रखते। शायद लक्ष्मी का वाहन उल्लू इसलिए ही है कि जिसके सिर पर पैसा नाचता है। वह खुद उल्लू हो जाता है। यहाँ इसे दोस्त नहीं। दोस्त की शक्ल में आते हुए पैसे दिखाई दे रहे हैं। इसलिए उम्र में मुझसे काफी बड़ा होते हुए भी मेरे पांव छूने को तैयार है।

“क्या सोच रहे हो मित्र?” गुरवीर ने जोगी को सोचपूर्ण मुद्रा में देखा तो बोला, “इसमें तुम्हारा भी फायदा है। मैं अपनी कमीशन में से तुम्हे कुछ प्रतिशत दे दूंगा।”

“मैं सोच रहा हूँ कि कहीं लक्ष्मी का वाहन उल्लू तू ही तो नहीं है!” जोगिन्दर ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाते हुए कहा।

“अरे यार मैं बुरा नहीं मानूंगा तू कुछ भी कह।” गुरवीर बोला, “चल देर क्यों कर रहा है। मैंने झाड़-पोंछकर स्कूटर तैयार करता हूँ।” फिर गुरवीर ने इंटरफोन पर अपनी बीबी से संपर्क साधा, “सुन भगवाने मैं जोगी के साथ, उसके चाचा के घर जा रहा हूँ। मेरे लिए दिन का खाना मत बनाना। ”
फिर अपनी जेब में रखे मोबाईल फ़ोन से उसने एक फ़ोन लगाया।

“अरे कालरा साहब कहाँ व्यस्त हैं? इतनी देर से फ़ोन ट्राई कर रहा हूँ कि अगर रॉकेट होता तो उसका पृथ्वी से चाँद तक का सफर तय हो जाता।” गुरवीर ने मज़ाकिया मूड में कहा।

“तो पृथ्वी पर क्या कर रहे हो। उसी रॉकेट में बैठकर चाँद पर निकल जाते।” कालरा ने भी नहले पर दहला मारते हुए कहा।

“मज़ाक़ छोडो यार। मैंने तुम्हें ख़ास इसलिए फ़ोन किया है। एक बहुत बड़े फायदे का सौदा हाथ में आ गया है। एक कोठी है। कोठी क्या महल है? महल!” गुरवीर ने तुरंत मुद्दे पर आते हुए कहा।

“तुम प्रॉपर्टी डीलर वालों का भी अजीब रवैया है। हमारे महल को भी झोपड़ा बताकर खरीदते हो। और अपने झोपड़े को भी महल बता कर बेचते हो।” कालरा ने व्यंग किया। मोबाइल फ़ोन की बात जोगिन्दर भी सुन रहा था। क्योंकि मोबाइल का लाऊड स्पीकर ऑन था।

“भई तेरे को तो पता ही है, अगर दो पैसे का फायदा न हो तो दुकान खोलकर क्या फायदा? ख़ैर मैं तो तेरे फायदे की बात कह रहा था अब तू नहीं सुनना चाहता तो कोई बात नहीं!” इतना कहकर गुरवीर ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया। वह समझ चुका था कि कालरा से बातकर के दाल नहीं गलने वाली।

गुरवीर ने धड़ाधड़ दो-चार फ़ोन और किये। लेकिन इस बार लाऊड स्पीकर ऑफ़ कर दिया ताकि जोगिन्दर उसकी कोई बात न सुन ले। क्योंकि ऐसी बातों से गुरवीर का चेहरा उजागर होता है। अंतिम फ़ोन करते वक्त उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान तैरने लगी। शायद उसने अंतिम कॉलर को नए सौदे के लिए पटा लिया था। इस बीच जोगी माचिस की तिल्ली से दांतों की सफाई कर रहा था। साथ ही वह सोच रहा था कि मेरा दोस्त कितना बड़ा शिकारी बन गया है। जो किसी भी सूरत में शिकार को हाथ से नहीं निकलने देना चाहता। दाँत खुरचने वाली मुद्रा में ही जोगी, गुरवीर के पीछे-पीछे बाहर खड़े स्कूटर में बैठने तक चलता रहा।

स्कूटर ठीक चाचा करनैल सिंह के मकान के सामने रुका। चाचाजी ने द्वार खोला तो पहले जोगी ने चाचाजी के चरण छुए। फिर गुरवीर ने भी उसका अनुशरण करते हुए कहा, “पैरी पोणा चाचा जी।”

“ज्यून्दा रह पुत्तर। ” जोगिन्दर के बाद चाचा जी ने गुरवीर को भी उसी स्वर में आशीष दी।

“आहा! चिकन की कितनी जबरदस्त खुशबू आ रही है। ” भीतर कक्ष में कुछ सूंघते हुए जोगिन्दर बोला। गुरवीर जोगिन्दर के व्यवहार पर हैरान था कि नाश्ते में १० पराठे खाने वाले व्यक्ति को इतनी जल्दी भूख लग आई है।

“कल तेरा फ़ोन आते ही मैंने खाने-पीने की तैयारियां शुरू कर दी थी। कल ही व्हिस्की की छह बोतलें फौजी कैंटीन से उठा लाया। आज सुबह-सुबह दो किलो चिकन ले आया। ” चाचा जी ने दरवाज़ा भेड़ते हुए कहा।

“छह बोतल व्हिस्की और दो किलो चिकन।” गुर वीर हिसाब-किताब लगाने लगा, “कम से कम दो हज़ार रुपया तो खर्च हो गया होगा चाचा जी। कोई बड़ी पार्टी-शार्टी कर रहे हैं! पंजाब जाने से पहले। ”

“अबे ये हमारे खाने-पीने का तरीका है मक्खीचूस।” जोगी ने चाचाजी की तरफ देखकर कहा। दोनों चाचा-भतीजे ठहाका लगाकर बड़ी ज़ोर से हँसे।

“ये तो हमारे दो दिन का कोटा है। ” चाचाजी ने सोफे पर बैठते हुए कहा, “सब कुछ तैयार है। जग में पानी है। काँच के प्याले हैं। पीने को शराब। खाने को चिकन कबाब। अरे खड़े-खड़े क्या सोच रहे हो. बैठो और टूट पड़ो। जश्न मनाओ। ” चाचाजी ने बड़े ही रहीसों वाले अंदाज़ में कहा। तीनों प्राणी दावत का लुत्फ़ लेने लगे। गप्पशप का दौर भी जारी था। जोगिन्दर ने गांव के ताज़ा किस्से फिर से सुनाने शुरू कर दिए।

“चाचा जी, एक बात बताओ। आपको पीने से कोई रोकता नहीं।” गुरवीर ने पूछा।

“अब कौन रोकेगा? जब तक तुम्हारी चाची जिन्दा थी। उसने कभी पीने नहीं दिया। बस उसकी शराबी आँखों से पीते थे।” करनैल सिंह ने अपने दिल की बात कही। उसके आगे अपनी स्वर्गीय पत्नी सतनाम कौर का चेहरा घूम गया। सतनाम की मुस्कुराती हुई एक बड़ी-सी फोटो दीवार पर टंगी थी। दोनों पति-पत्नी में बड़ा प्यार था। ३५ बरस तक दाम्पत्य सुख का दोनों ने आनंद लिया मगर अौलाद के सुख से वंचित रहे। इस बीच खाते-पीते करनैल सिंह अपनी पत्नी से जुडी कई यादें सुनते रहे।

“चाचा जी, एक बात पूछूँ?” गुरवीर ने कहा।

“पूछो!” करनैल सिंह ख़ाली गिलास को मेज़ पर रखते हुए बोले।

“चाची जी की फोटो पे हार क्यों नहीं है?” गुरवीर ने मदिरा के ख़ुमार में झूमते हुए कहा।

“दुनिया की निगाह में भले ही सतनाम मर चुकी है, मगर मेरे लिए वो आज भी ज़िंदा है।” करनैल सिंह ने अजीब से अंदाज़ में कहा। तीनो प्राणी सामने दीवार पर टंगी चाची सतनाम कौर की फोटो की तरफ ध्यान से देखने लगे।

कुछ समय बाद एक कॉल बैल बजी।

“मैं देखता हूँ। ” व्हिस्की का तीसरा पैग हलक से नीचे उतारने के बाद जोगी खड़ा होते हुए बोला।

“कौन आया होगा इस वक्त।?” चाचाजी ने हैरानी व्यक्त की।

“होगा कौन ? अमित सुनेजा आया होगा!” गुर वीर ने झूमते हुए कहा।

“कौन अमित सुनेजा ?” चाचाजी को भी मदिरा चढ़ गई थी।

“आपका मकान खरीदना चाह रहा है। मैंने घर से निकलने से पहले ही उसे फ़ोन कर दिया था और आपका पता लिखवा दिया था। ” गुर वीर ने खाली प्याला मेज़ पर रख दिया और चिकन का लेग पीस उठकर चबाने लगा।

“करनैल साहब का मकान यही है।” दरवाज़ा खुलते ही आगंतुक ने जोगिन्दर से प्रश्न क्या।

“आजा भई सुनेजा … भीतर आ जा। ” इससे पहले जोगी कुछ कहता। पीछे से गुरवीर का तेज स्वर उभरा।

“आओ जी बैठो सुनेजा साहब। सही मौके पर आये हो। एक पैग तो लेना बनता ही है। ” चाचाजी बोले, “जोगी किचन से एक गिलास उठा ला।”

“आप लोग भोजन कीजिये। मैं सोफे पर बैठकर, उधर आप लोगों के फ्री होने का इन्तिज़ार करता हूँ। ” सुनेजा ने औपचारिकतावश कहा।

“भई मना मत कर वरना चाचाजी नाराज़ हो जायेंगे। गपशप के बीच काम-धाम की बात भी कर लेंगे। जिनका मकान तूने लेना है। वो करनैल साहब यानि चाचाजी सामने बैठे हैं। मैं यानि प्रॉपर्टी डीलर गुरवीर भी यही बैठा हूँ। ” गुरवीर ने लेग पीस सुनेजा के आगे बढ़ाते हुए कहा।

“मैं अपने आप खा लूंगा भाई साहब।” जो सुनेजा अब तक शर्म की मूर्ति बना औपचारिकताएं निभा रहा था। अचानक मेजबानों के रंग में रंग गया, “पहले कुछ पी तो लूँ।”

“ये हुई न बात।” चाचाजी ठहाका लगते हुए बोले।

लगभग दो-ढाई घंटे तक खाने-पीने के बाद सुनेजा ने बियाने के एक लाख रूपये नकद चाचा करनैल सिंह के हाथ में दिए।तब जाकर सुनेजा झूमता-गाता हुआ विदा हुआ। ये कहकर,”चाचा जी तवाड़ी व्हिस्की तो जबरदस्त है, मैं एक बोतल थैले में डालकर अपने साथ ले जा रहा हूँ।” “ओ ठीक है पुत्तर, एन्जॉय कर लाइफ दा।” चाचा जी का जवाब था।

“ले भाई पच्चीस हज़ार तेरा कमीशन।” सुनेजा के जाने के बाद करनैल सिंह ने गुरवीर को एक लाख रूपये में से निकालकर पच्चीस हज़ार थामते हुए कहा।

“और जोगी, ये तेरा पच्चीस हज़ार।” चाचाजी ने जोगिन्दर को रूपये थमाए।

“किस ख़ुशी में चाचाजी ?” जोगी अपने हाथों में रुपये देखकर हैरान था।

“मुझे न तो प्रॉपर्टी डीलर के पास जाना पड़ा। ऊपर से बिना किसी अड़चन के मुझे मुंह मांगे दाम मिल गए हैं। सब तेरी वजह से।” चाचाजी ने नशे में झप्पी पाते हुए जोगिन्दर से कहा।

“थैंक्यू चाचाजी।” जोगी ने मारे ख़ुशी के चाचाजी को कसकर बाँहों में भींच लिया।

“अच्छा अब मेरा काम पूरा हो गया। मैं भी चलता हूँ। चाचाजी। ” गुरवीर ने रुपये जेब में डालते हुए कहा।

“नहीं अभी तेरा काम ख़त्म।” जोगी ने गुरवीर का हाथ पकड़ लिया।

“मतलब। ” गुरवीर बेखुदी में बोला।

“मतलब ये कि दुनिया में तीन तरह के इंसान होते हैं। ” जोगिन्दर का स्वर बुलंद हो गया, “एक चाचाजी जैसे, जो दूसरों के लिए जीते हैं। दूजा मैं, जो खुद के लिए भी जीते हैं और दूसरों के लिए जीते हैं। तीजे तुझ जैसे, कमीने स्वार्थी और खुदगर्ज होते हैं, जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं। थू है तुझ पर … ” कहते हुए जोगिन्दर ने गुरवीर के चेहरे पर थूक दिया।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

2 thoughts on “कहानी : “अंत भला तो सब भला”

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कहानी ! व्यापारियों की धन की हवस को इस कहानी ने बेनकाब कर दिया है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कहानी बहुत अच्छी लगी .

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