आत्मकथा

स्मृति के पंख – 30

मेरा मन बहुत परेशान था। लेकिन पृथ्वीराज का हौसला बहुत था। उसने कहा- भापाजी क्यों खफा होते हो, मैं शादी नहीं कर सकता तो क्या हुआ, सुभाष के बच्चों को प्यार दूँगा। मैं सोचता- बेटा अभी छोटा है। जब जवानी में तुम्हें इस हालत का अहसास होगा, उस वक्त तेरा हौसला भी टूट जायेगा। समय ने धीरे-धीरे जख्मों पर फाए रखे। तब उसे देखकर ही मन खुश रहता कि चलो जिन्दा है। हर औरत की कमजोरी होती है, जेवर शायद मेरी बीवी की भी कमजोरी होगी, लेकिन मैंने उसके तमाम जेवर एक-एक करके फरोख्त कर दिये, लेकिन उसके चेहरे पर मैंने कोई ऐसे असरात कभी नहीं देखे, जिससे मुझे मालूम हो सके कि उसे कोई दुख या रंज है। पृथ्वीराज की बीमारी ने मुझे अन्दर से तोड़ दिया था और खर्चा ज्यादा होने की वजह से घर के हालात मुश्किल से संभाल पाता। मैंने बीवी को कहा कुछ दिनों के लिए तुम मायके चली जाओ, शायद फिर मैं कुछ कर सकूं।

वहाँ मेरे साले लीलाराम तथा परमानन्द ने बच्चों की तालीम बारे में तथा सब जरूरत का ध्यान रखा। बच्चे ऐसी हालत में भी खुश रहते। राज और तिलकराज का प्यार भी उन दिनों बहुत बढ़ा। मैं कभी-कभी बच्चों को आकर मिल जाता। सब खुश थे, मुझे खुद एहसास होता, लेकिन बीवी व बच्चे खुश थे, इससे दिल को ढाढ़स मिलता। किसी भी अवस्था में सब बच्चे हसंते खेलते रहते। 3 अप्रैल 1953 को राकेश का जन्म हुआ। उन दिनों छोटा परिवार सुखी परिवार का कोई नारा नहीं था। बच्चा होने को भगवान की देन समझते। कोई ऐसी चीज भी नहीं थी, जिससे अमल को रोका जा सकता। यही समझते भगवान की देन है, जिसने संसार में आना था, उसने आना है। बावजूद पूरी तंगदस्ती और मुसाहब के बावजूद भी मेरे दिल में नजगश नहीं आई थी। मेरे इरादे अब भी मजबूत थे। बच्चों की देखभाल या तालीम और तबीयत की तरफ ध्यान रखता और सोचता।

इन्हीं दिनों मलेरकोटला में एक इकट्ठा ग्रुप माल सप्लाई करने का दो भाई सिंधी, केसर सिंह और सतनाम सिंह दो भाई और कोटला के कुछ मुसलमान आढ़ती शायद थे। उन्होंने फर्म का नाम रखा रहीमुदीन लाल सिंह। उस पार्टी ने हमारे साथ बहुत काम किया। रोजाना एक ट्रक सब्जी का जरूर ही आना, कभी-कभी दो भी आ जाते। साथ में एक और फर्म ने भी काम शुरू कर दिया मोहम्मद तकी एण्ड संस। उन लोगों का भी हमारे साथ बहुत प्यार था। मलेरकोटला में हमारी पोजिशन काफी अच्छी बन गई और माल भी काफी आना शुरू हो गया। उन्हीं दिनों जम्मू से एक सज्जन कश्मीरी लाल तशरीफ लाए। उसके साथ उसका मुनीम भी था। वह फिरते फिराते मण्डी में हमारे पास आ गये। उससे बातचीत हुई फर्म का नाम था गोविन्दराम हरिशरण। हरिशरण का छोटा भाई कश्मीरी लाल था। उन्होंने नई फर्म जम्मू में खोली थी। थोड़ा अरसा ही उनका काम रहा, लेकिन काम उन्होंने बहुत दिल खोल कर किया। फर्म फेल हो जाने पर करीब 700 रुपये की रकम हमारी उनके जिम्मे बकाया थी। मैंने जम्मू किशनलाल गुलाटी को लिखा। उसने जवाब दिया रुपये की बिल्कुल फिक्र न करें। बहुत अच्छे लोग हैं, रुपये जरूर भेज देंगे।

तकरीबन 4 साल बाद कश्मीरीलाल रुपये लेकर जब मेरे सामने आया, तो कहने लगा मुझे पहचाना। मैं उसे नहीं पहचान सका। मैंने कहा लगता है कि आपको कहीं देखा है, लेकिन याद नहीं आता। और उसने फिर अपना तारूफ करवाया है कि मैं कश्मीरीलाल हूँ। इस 4 साल में उसमें काफी फर्क आ गया था। वह मुझसे कहने लगा इतना सा अरसा रकम रुक जाना मुनासिब नहीं था। हालात की मजबूरी से रुकी रही और रात में हमारे पास ठहरा। वह पहली दफा हमें मिला था, तो होटल में ठहरने का उसने अपना प्रबन्ध किया था। रामलाल गुलाटी दुकान का कैशियर था और कुन्दन लाल के पास दुकान का एकाउंट था। मैं रघुनाथ और ताराचन्द बाहर माल बेचने पर ही रहते। कोई मिलने आ गया था। निजी कोई बातचीत करनी होती तो कर लेते, लेकिन ज्यादा एकाउंट की तरफ या हिसाब किताब की तरफ ध्यान नहीं दिया। लेकिन अचानक ही मैंने एक दिन मैंने रोकड़ यानी डे-बुक उठा ली। उसमें कुछ जमीदार लोगों के नाम रकम पड़ी थी। मेरे ख्याल से उन लोगों में से कोई भी आया नहीं था। फिर मैंने ताराचन्द से पूछा यह जमींदार आये थे, तो उसने भी न में जवाब दिया। फिर स. ज्ञान सिंह व भाई श्रीराम से भी पूछा, लेकिन सबने न में जवाब दिया।

जब मुझे तसल्ली हो गई कि इनमें से कोई नहीं आया तो उनके नाम रुपया कैसे डाला गया है। बाद में जब मैंने खाता देखा, तो उन लोगों की रकम यह रकम डालने पर चुकता होती थी। जबकि उनके साथ हमने पहले हिसाब क्लीयर कर दिया था। मुझे विश्वास हो गया कि यह रकम कुन्दन लाल और राम लाल की जेब ले गई है। मैंने ताराचन्द को बतलाया कि आज ऐसा हुआ है। और फिर रामलाल को बाहर से अलग बुलाकर कहा कि कुन्दनलाल के हाथों में जो रकमात् लोगों के नाम पड़ी है, यह रकम कैसे दी गई है। तब रामलाल ने सारी बात सुनने के बाद मुझसे कहा- तुम मुझे मुलजिम नं0 2 बना रहे हो, मुझे क्या पता है। मैंने कहा- रामलाल, हमारे बिरादराना ताल्लुकात हैं। मैं तो कम से कम ऐसा ही समझता हूँ। कुन्दन लाल की इतनी जुर्रत नहीं कि वह अकेले ऐसा कर सके। ऐसा हुआ है और तेरी सलाह से हुआ है।

इसके बाद मेरे खिलाफ अन्दर ही अन्दर दुकान से अलग करने की साजिश शुरू हो गई, जिसमें कुन्दन लाल सबसे आगे था। फिर खुल्लमखुल्ला बात हो गई कि हम इकट्ठे नहीं रह सकते। दुकान के दो हिस्सों में तकसीम करके अलेहदा होना है। उन्होंने कुन्दन लाल, रघुनाथ, रामलाल, स. ज्ञान सिंह और नानक चन्द का ग्रुप बनाया था। बाकी हम थे- मैं, ताराचन्द, सीताराम, श्रीराम और रामलाल मल्होत्रा। उनके साथ मुझे रघुनाथ का साथ अच्छा नहीं लगा। एक दिन मैंने रघुनाथ से कहा कि आप अपने फैसले पर नजर सानी करो। तुम्हारा उनके साथ देना मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन रघुनाथ ने जवाब दिया कि बाल बच्चों की रोटी का सवाल है, मैंने सोच समझ कर फैसला किया है। मैंने रघुनाथ को कहा- आज मुझे पता चला कि तेरे बच्चे और मेरे बच्चे अलग हैं। फिर मेरी निगाह में तो सब बच्चे हमारे हैं। खैर, जैसी तेरी मर्जी। अब इस बात की किस तरह से फैसला किया जाय।

मण्डी वालों ने भी कोशिश की कि किसी तरह हमारी बन जाए। लेकिन उनकी ख्वाईश कि हम अलग भी रहें और फायदे में भी रहे। फिर उन्होंने ताराचन्द को अपने साथ मिलाने की कोशिश की। यह पक्की बात थी अगर ताराचन्द उनके साथ हो जाता तो मेरा मण्डी में रहना मुश्किल था। उस हालात में ये दुकानें उनके पास रह जातीं और मैं दुकान से निकल जाता। लेकिन बावजूद उनकी पूरी कोशिश के भी वे ताराचन्द को मुझसे जुदा न कर सके। ताराचन्द की ज्यादा तारीफ मैं उसके इस फैसले से करता हूँ, जिसमें मुश्किल में मेरा साथ नहीं छोड़ा। और आगे चल कर जो भी उसकी ख्वाहिश होती, मैं पूरी करता। 40 साल तक मैंने उसके साथ काम किया, इन्तहाई खूबसूरती से अपनी ड्यूटी निभाई। कुछ थोड़ा गड़बड़ तो 40 साल में मामूली बात थी। एक दफा ऐसा हुआ भी, लेकिन श्री देसराज लक्ष्मी फ्रूट और श्री कानचन्द (मिल्की राम करतार चन्द) ने हमारा मनमुटाब मिटा दिया और हमें इकट्ठे ही रहने को कहा। हमारे अंदर के गोशे भी इकट्ठे रहने की ख्वाहिशमंद थे। इसके अलावा ताराचन्द की उस वक्त की बात भी मुझे याद थी, जब उसने मुझे पूरा साथ दिया।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 30

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लेखक की बातें पड़ कर मैं हैरान हो जाता हूँ कि इतना मज़बूत दिल , मेरे जैसे होता तो सब कुछ छोड़ कर कहीं चले जाता . पर्स्थिओं से इस तरह मुकाबला करना हर एक के वश की बात नहीं होती . बेटे की जो हालत थी उस को कौन बाप सह सकता है? ऐसे शख्स के आगे मैं अपना सर झुकाता हूँ .

  • Man Mohan Kumar Arya

    सारा लेख श्रद्धा व उत्सुकता से पढ़ा। लेख का जीवन एवं कार्य तथा धैर्य प्रशंसनीय हैं।

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक महोदय ने जितनी भीषण विपरीत परिस्थितियों में अपने परिवार और कार्य को संभाला, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है. बहुत से लोग ऐसी परिस्थितियों में टूट जाते हैं और कोई गलत कदम उठा लेते हैं, लेकिन लेखक ने बहुत धैर्य का परिचय दिया.

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