धर्म-संस्कृति-अध्यात्मविज्ञान

ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों बनाई?

ओ३म्

हम पृथिवी पर पैदा हुए हैं व इस पर रहते हैं परन्तु हमें शायद यह नहीं पता कि इस पृथिवी सहित समूचे ब्रह्माण्ड को किसने व क्यों बनाया? इसे कब बनाया यह भी बहुत कम लोग जानते हैं। क्या यह जानना आवश्यक नहीं है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर प्रत्येक व्यक्ति को इसको जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिये। देखा यह जा रहा है कि हमारी आंखों व बुद्धि पर  सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने और उन्हें भोगने का पर्दा पड़ा हुआ है जिसमें यह प्रश्न दब गया है और हम इसके प्रति पूरी तरह से उदासीन व लापरवाह हैं। आईये, इन प्रश्नों व शंकाओं को हल करने में हम परस्पर विचार कर इनके उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं। संसार का यह नियम हमें समझ लेना चाहिये कि कोई भी रचना जो बुद्धिपूर्वक या किसी प्रयोजन से की गई होती है, वह अकस्मात वा अपने आप नहीं हो जाती। इसके पीछे कोई सत्ता होती है व उसके कुछ प्रयोजन होते हैं। हम यदि इससे जुड़े सभी प्रश्नों पर विचार करें तो हम उस कर्त्ता व उसके प्रयोजन को अपनी बुद्धि, तर्कशक्ति, गवेषणा व ऊहापोह आदि से जान सकते हैं। इन्हें हमारे पूवजों ने जाना भी था व उसे समझ कर उपदेश भी किया था। महाभारतकालीन व इससे पूर्व के हमारे पूर्वज अज्ञानी व अन्धविश्वासी नहीं थे अपितु पूर्ण ज्ञानी कहे जा सकते हैं। उन्हें वह सब कुछ ज्ञात था जितना कि किसी मनुष्य के लिये जानना सम्भव होता है। उनके पास इस कार्य में सहायता के लिए चार वेद एवं वैदिक साहित्य भी था तथा उस समय इस देश में बड़ी संख्या में ऋषि-महर्षि जिन्हें आज की परिभाषा में आध्यात्मिक व भौतिक वैज्ञानिक कह सकते है जो प्रत्येक बात का सही-सही, सत्य व तर्क-प्रधान उत्तर देने में सक्षम होते थे। यदि कोई जिज्ञासु उनके पास जाता था तो वह उसकी योग्यता का अनुमान लगा कर उसे उत्तर से सन्तुष्ट करते थे। प्रश्नोपनिषद् नाम से एक उपनिषद् हमारे पास है जिसमें 6 विद्वान सुकेशा, सत्यकाम, गाग्र्य, कौशल्य, वैदर्भि तथा कबन्धी अपना एक-एक प्रश्न लेकर महर्षि पिप्लाद के पास गये और उनसे उनके प्रश्नों के उत्तर अर्थात् शंकाओं का समाधान करने के लिए कहा। प्रश्न गम्भीर वा गूढ़ हो सकते हैं, अतः उन प्रश्नकर्त्ताओं में उसको जानने की योग्यता वा पात्रता पैदा करने के लिए महर्षि पिप्पलाद ने उन्हें अपने आश्रम में एक वर्ष रहकर उनके दिशा निर्देश में ब्रह्मचर्य का पालन और तपश्चर्या करने का निवेदन किया। प्रश्नकर्त्ता सुपात्र थे, अतः उन्होंने कोई बहाना नहीं बनाया और महर्षि के तपश्चर्या विषयक नियमों का उनके सान्निध्य में एक वर्ष तक रहकर पालन किया। एक वर्ष बाद ऋषि ने उन प्रश्नकर्त्ता ऋषियों के सभी प्रश्नों का समाधान किया। यह प्राचीन पुस्तक जो बहुत छोटी है तथा जिसे एक-दो दिनों में ही पढ़कर समझा जा सकता है, ईश्वर की कृपा से आज भी उपलब्ध है। इसी प्रकार की केनोपनिषद व कठोपनिषदें हैं जिनमें प्रश्नोत्तर से इच्छित विषयों का समाधान किया गया है। अन्य उपनिषदों में भी संवाद शैली में अनेक जटिल व कठिन प्रश्नों व समस्याओं का ऋषियों द्वारा प्रस्तुत समाधान उपलब्ध है जिसे पढ़कर लाभ उठाया जा सकता है।

आज हमने प्रश्न लिया कि ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों बनाई गई है? इसका समाधानकारक उत्तर हमें वैदिक एवं महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त हो जाता है। कोई भी योग्य रचनाकार जिसे रचना करने का ज्ञान हो व उसके लिए सभी साधन व सामथ्र्य उसके पास हो तो वह खाली नहीं बैठेगा। हम तीन वर्ष पूर्व सेवानिवृत हुए। इसके बाद हम एक दिन खाली नहीं बैठे। हम या तो पुस्तकों के अध्ययन में व्यस्त रहते हैं या फिर लेखन कार्य, जो हमारी क्षमता में है, वह करते हैं और कई बार उससे भी कुछ अधिक करने का प्रयास करते हैं। इसी प्रकार से तर्क व अनुमान से यह तथ्य ज्ञात होता है कि संसार में हमारे अलावा भी अन्य सत्ता व सत्तायें हो सकती हैं जो हमसे भिन्न व बड़े कार्यों को करने में सक्षम हों। यह बात सत्य है कि वह हमें आंखों से दिखाई न दें। इसका उत्तर यह है कि क्या हम स्वयं को देख पाते हैं। हमारा अनुमान है कि हम स्वयं को भी नहीं देख पाते और न देख सकते हैं।  हमने स्वयं को अपनी आंखों से कभी नहीं देखा है। हम अपने शरीर के अंगों व उपांगों व नाना अवयवों को देखते हैं जो भौतिक पदार्थों मुख्यतः पृथिवी तत्व से बने हैं।  हमारा यह शरीर व उसके सभी अंग अन्नमय पदार्थों से बने हैं। क्या हम शरीर मात्र ही हैं? इस विचार को कोई स्वीकार नहीं करता। मैं अपने शरीर के लिए मैं शब्द का प्रयोग कभी नहीं करता अपितु यह कहता हूं कि यह मेरा शरीर है, यह मेरी आंखें हैं, यह मेरे हाथ, पैर, नाक, कान, उदर, बाल, नासिका आदि आदि हैं। यदि मेरा शरीर मैं स्वयं नहीं हूं तो फिर मैं व हम कौन व क्या हैं? इसका उत्तर यह है कि शरीर से भिन्न शरीर में जो एक सूक्ष्म चेतन पदार्थ है, वह हम अर्थात मैं हूं। इस चेतन पदार्थ के लिए जीवात्मा, आत्मा अथवा जीव, रूह वा Soul शब्द का प्रयोग किया जाता है। जब हम पैदा हुए तब हमारा शरीर एक लघु आकार का पिण्ड था। इस शरीर में प्राकृतिक नियमों के अनुसार हमारा पालन हुआ और इससे शरीर वृद्धि को प्राप्त हुआ। आज शारीरिक दृष्टि से हमारा शरीर कई गुना बढ़ गया है परन्तु हम जानते हैं कि मैं बचपन में, युवा अवस्था में व अब वृद्धावस्था में वही व्यक्ति हूं जो जन्म के समय व बाद में शैशव व युवावस्थाओं में था। इसमें परिवर्तन नहीं हुआ है। हमारे वेद, इतर शास्त्र तथा सभी ऋषि-मुनि बताते हैं कि हमारी आत्मा एक अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, नित्य, अजर, अमर, अनन्त, अल्पज्ञ, एकदेशी, समीम, जन्ममरणधर्मा, कर्मकर्त्ता, कर्मों के सुख-दुःखीरूपी फलों का भोक्ता, दुःखों से निवृति व सुखों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहने वाली शाश्वत् व सनातन सत्ता व पदार्थ है। हम आश्वस्त हैं कि सभी मनुष्य इन तथ्यों से पूरी तरह से सहमत होंगे तथा कोई भी इन्हें अस्वीकार नहीं करेगा। इससे यह ज्ञान व आत्मा सम्बन्धी तथ्य सत्य व यथार्थ सिद्ध हो जाता है।

जीवात्मा को हमने अनादि अर्थात् इसका आरम्भ नहीं है, स्वीकार किया है। हम संसार में पृथिवी व अनेक जड़ पदार्थों को देखते हैं। विज्ञान ने सृष्टि को परमाणुओं से निर्मित सिद्ध किया है। वैदिक मान्यता भी लगभग यही है। वहां इसे जड़ प्रकृति कहा गया है जो सत्व, रज व तम गुणों वाली है। इनके संघात से परमाणुओं की उत्पत्ति होकर सृष्टि की रचना होती है वा हुई है। वैदिक दर्शन में सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया में आरम्भ में जो पदार्थ निर्मित होते हैं उनका विवरण देते हुए बताया गया है कि सत्व, रज तम गुणों वाली मूल प्रकृति से प्रथम महत्तत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस, पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीव और छब्बीसवां परमेश्वर है। विज्ञान महत्तत्व, अहंकार, पांचतन्मात्राओं तथा 10 इन्द्रियों की मूल प्रकृति से उत्पत्ति के सिद्धान्त से वर्तमान में भी सर्वथा अनभिज्ञ है। आशा है कि भविष्य में कोई वैज्ञानिक वैदिक दर्शन की इस अनूठी, गम्भीर तथा यथार्थ देन का अध्ययन कर इसका समायोजन आधुनिक विज्ञान में करेंगे। यदि महतत्व, अहंकार आदि चैबीस पदार्थ नहीं बनेंगे तो मनुष्य व प्राणियों के शरीर नहीं बन सकते। मूल जड़ प्रकृति से यह विविध व विशिष्ट गुणों से युक्त पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, अभ्य सभी नक्षत्रादि स्वमेव नहीं बन सकते। जीवात्मा की सीमित सामर्थ्य होने के कारण वह भी इसे बना नहीं सकता। इसके लिए अपौरूषेय सत्ता की आवश्यक है। यह सत्ता इस सृष्टि में ईश्वर है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र होने के साथ सृष्टि रचना के ज्ञान से परिपूर्ण है। उसने इस सृष्टि को पहली बार नहीं बनाया अपितु यह सृष्टि प्रवाह से नित्य है। सृष्टि बनने से पूर्व प्रलय की अवस्था होती है, प्रलय से पूर्व सृष्टि और उससे पूर्व प्रलय, यह चक्र अनन्त काल से चला आ रहा है और सदा-सर्वदा चलता रहेगा।  इसे ही प्रवाह से अनादि होना कहा जाता है। यहां यह भी जान लेना आवश्यकता है कि यदि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप न होता, निराकार और सर्वव्यापक न होता, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ न होता, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी न होता, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र न होता तो वह इनमें से एक गुण के भी न्यून व अनुपस्थित होने पर उसके द्वारा यह सृष्टि बनकर अस्तित्व में नहीं आ सकती है। यह ऐसा ही है कि जैसे एक बहुत अच्छे कलाकार के दुर्घटना आदि किन्हीं कारणों से हाथ न रहे हों तो वह स्वयं अपने ज्ञान व अन्य सामर्थ्य के अनुसार कलाकृति की रचना नहीं कर सकता। कलाकृति के बनाने के अन्य साधनों व उपायों के साथ हाथों का होना भी आवश्यक है अन्यथा कलाकृति नहीं बन सकती। यही स्थिति ईश्वर की भी है। उसमें जितने भी गुण, कर्म, स्वभाव व शक्तियां हैं, उन सबसे ही वह सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति वा संचालन तथा प्रलय को करने में समर्थ हैं। इसी कारण से उसके द्वारा यह सृष्टि बनकर अस्तित्व में आई है। उसने सृष्टि की आदि में अपना वेद के रूप में जो ज्ञान दिया है उसका अध्ययन करने के बाद यह निर्भ्रांत बोध हो जाता है कि ईश्वर सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति करने में सर्वथा समर्थ व सक्षम है। इसमें कहीं कोई शंका की सम्भावना नहीं है। यह भी एक नियम है कि यदि कोई अन्य प्रमाण न हो तो वहां अनुमान प्रमाण को मानना ही होता है। इस दृष्टि से भी सृष्टि की रचना करने में अन्य कोई कारण व शक्ति के विद्यमान न होने पर वेद वर्णित ईश्वर को ही सृष्टिकत्र्ता मानना हमारे लिए अनिवार्य है।

अब इतनी जानकारी हो जाने पर हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है? इसका कारण भी सरल है कि ईश्वर कोई निकम्मी व आलस्य वाली सत्ता नहीं है। ईश्वर में सृष्टि की रचना की पूर्ण सामर्थ्य होना व सृष्टि की रचना में सहायक समग्र जड़ सामग्री कारण-प्रकृति का उसके नियन्त्रण में होना सृष्टि की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारण है। दूसरा कारण जीवात्मायें हैं। ब्रह्माण्ड में विद्यमान असंख्य व अनन्त जीवात्मायें ईश्वर द्वारा बिना सृष्टि रचाये व उनके शरीर बनाये सुख व दुःखों का भोग नहीं कर सकतीं। प्रवाह से सृष्टि के अनादि होने के कारण पूर्व सृष्टि में असंख्य व अनन्त जीवात्माओं के पाप-पुण्य रूपी कर्मों का जो प्रारब्ध था, उसके अनुसार जीवों को सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है। यदि वह न बनाता तो आत्म ग्लानि व अपराध बोध से ग्रसित वह होता। उसे अकर्मण्य व निकम्मा कहा जाता। यह आरोप सृष्टि रचना करने के कारण अब उसमें नहीं आता। यही ईश्वर का सृष्टि बनाने का प्रयोजन है। जीवों को विगत सृष्टि काल के 1,96,08,53,115 वर्षों से निरन्तर सुख व दुख मिल रहा है। इतने वर्ष पूर्व ही ईश्वर ने सृष्टि की रचना कर अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों को जन्म दिया था। जीवों के जन्म व मरण का चक्र सृष्टि में सफलतापूर्वक चल रहा है। इसमें कभी व्यवधान नहीं आया और कभी आयेगा भी नहीं। जीवात्मायें ईश्वर की सन्तानें वा शाश्वत् प्रजायें हैं। जिस प्रकार माता-पिता अपनी सन्तानों का सुख चाहते हैं, उन्हें कोई दुख न हो इसका पूरा प्रबन्ध करते हैं, उनको ज्ञानी व बलवान बनाने का भी उनका पूरा प्रयत्न रहता है, उसी प्रकार से सभी जीवात्माओं का माता-पिता-आचार्य-राजा व न्यायाधीश होने के कारण ईश्वर ने सृष्टि को बनाया है और इसका संचालन कर रहा है और इसी प्रकार आगे भी करता रहेगा। हम पाठकों को सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पुस्तक पढ़ने की सलाह देंगे क्योंकि हिन्दी, भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी आदि में इन पुस्तकों के होने से पाठकों को वैदिक सिद्धान्तों को समझने में सरलता होगी। इसके बाद वह चार वेदों का भाष्य भी हिन्दी व अंग्रेजी में पढ़ कर वेदों व ईश्वर तथा उसके कार्यों से पूरी तरह से परिचित हो सकते हैं। हम आशा करते हैं कि इस लेख के द्वारा पाठकों को ईश्वर द्वारा इस सृष्टि को बनाने का उत्तर मिल गया होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

 

6 thoughts on “ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों बनाई?

  • प्रीति दक्ष

    achcha aur gyanwaan lekh..

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद एवं सादर प्रणाम बहित जी। आपसे प्रार्थना है कि यदि महर्षि दयानंद जी का विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश यदि आपने न पढ़ा हो तो एक बार अवश्य पढ़े। पुनः धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    लेख अच्छा है। इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश में काफ़ी विस्तार से लिखा गया है। कई वेदमंत्र इस पर उपलब्ध हैं।

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद। सत्यार्थ प्रकाश में इस विषय की व्यापक जानकारी है। सत्यार्थ प्रकाश से एक प्रकार से विश्व ज्ञानकोष है। यह भी वेदांग व उपांगों की तरह ही है और इसे धर्म ग्रन्थ एवं धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग कह सकते हैं। वीर सावरकर जी ने लिखा है कि यह ऐसा ग्रन्थ है जिसके प्रकाश में कोई मत या धर्म अपने धर्म की शेखी नहीं बघार सकता। शायद इसमें मनुष्यों के जानने योग्य सभी कुछ है। वेदों के प्रचुर प्रमाण भी इसमें उपलब्ध हैं। धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .

    • मनमोहन कुमार आर्य

      हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

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