कविता

बचपन का चाँद

आज चाँद को सब ने देखा
बस मुझे ही नज़र नही आया
जब कोशिश करती उसे देखने की
बचपन नज़र आ जाता था
तब कैसे भागते थे छत पर
ये पूर्णिमा के चाँद का गोला
उसकी सुनहरी चाँदनी की छटा
उफ कैसे पागल कर देती थी
सब बच्चों में होड़ लग जाती थी
कौन इस चाँद को पहले देखेगा
न माँ की आवाज़े सुनाई देती
न बाबू जी की फटकार का डर
अब कहाँ है वो सब कुछ
बच्चे हाथ पकड़ कर घसीटते
तुम्हारी जोर से आती आवाजे
चली गई छत पर घिसटते हुए
आखों में तो आंसू भरे थे यादो के
कानो मे माँ बाबूजी की आवाजे
कुछ नज़र नही आया सच में
लेकिन मुस्कुराते हुए छत से आ गई
काश कोई कोना मिल जाता मुझे
आंसू तो पोंछ लेती अपने ढंग से
मन में झांकती बचपन की यादें
कानो मे गूंजती वो सब आवाजे
कहां छुपाऊं इन सब को मैं
बच्चे कहते हैं कम्पयूटर मे सेव होता है
क्या ये सब भी सेव कर सकते हैं
किससे पूछूं हसंेगे सब मुझ पर
लेकिन मुझे ये करना ही है सेव
हंसने दो सबको मुझ अनपड़ पर
लेकिन जब दिल चाहेगा देख तो लूंगी
कितना अच्छा लगेगा उन सब को देख कर—-
फिर चिड़ाऊंगी सब को दिखा कर
हे भगवान कोई चमत्कार कर दो न
वो बचपन का चाँद सेव कर दो न…..

— रमा शर्मा

रमा शर्मा

लेखिका, अध्यापिका, कुकिंग टीचर, तीन कविता संग्रह और एक सांझा लघू कथा संग्रह आ चुके है तीन कविता संग्रहो की संपादिका तीन पत्रिकाओ की प्रवासी संपादिका कविता, लेख , कहानी छपते रहते हैं सह संपादक 'जय विजय'

5 thoughts on “बचपन का चाँद

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    काश वोह बचपन फिर से मिल जाए बेछक घड़ी दो घड़ी के लिए ही , कितना भी सेव कर लें फिर भी वोह बात नहीं बन पाएगी ,अब तो बस अपने बच्चों पोते पोतीओं में ही वोह बचपन दिख सकता है .

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