आत्मकथा

स्मृति के पंख – 32

उन दिनों पृथ्वीराज की तबीयत काफी खराब थी और रुपये की भी बहुत मजबूरी थी। एक दिन पृथ्वीराज की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई। डा0 फौजा सिंह उस दिन नहीं मिले। मैंने रघुनाथ को कहा कि डा0 किशन स्वरूप को चोड़ा बाजार से बुला लाओ। एम0बी0बी0एस0 डा0 की काफी प्रैक्टिस चलती थी। उसका शाम का टाइम था। रघुनाथ डाक्टर को ले आये, ऊपर छत पर पृथ्वीराज मेरी गोदी में पड़ा था। सांस बहुत तेजी से चल रही थी। सांस कभी आती कभी जाती। दरअसल राज उसे ऐसी हालत में देख नहीं सकी। डाक्टर ने देखने के बाद मुझे कहा कि बच्चे की हालत ठीक नहीं है, दवाई मैं भिजवा देता हूँ। अगर किसी डाक्टर या अस्पताल ले जाना है, तो ले जाओ। लेकिन रघुनाथ के वापस पहुँचते ही जब वह दवाई लेकर वापस आये, उसी वक्त ही पृथ्वीराज ने मेरी गोदी में आखिरी हिचकी ली। कुछ ही देर पहले उसने कहा था- पापा मैं जा रहा हूँ और वह चला गया।

ऐसी ही हालत उसकी पहले भी कई दफा हुई थी। फौजा सिंह ग्लूकोज का इंजेक्शन लगा देता था, तो उसकी हालत सुधर जाती थी। आज मैं डाक्टर को यह भी न कह पाया कि इसे ग्लूकोज का इंजेक्शन लगा दो। उसका समय आ चुका था। मेरी याददाश्त ने साथ ही नहीं दिया। उसका बेजान शरीर मेरी गोदी में पड़ा था। दूसरे कमरे से राज की आवाज सुन पाया ‘‘हुण की होसी” और राज बेहोश हो गई। हम सब लोग रो भी रहे थे, लेकिन राज की देख भाल में जुट गये, जो बेहोश हो गई थी। राज के हाथ पांव सर्द पड़े थे। चेहरा भी बिल्कुल सर्द था, जैसे शरीर में एक बूंद भी खून भी न हो। मुझे ऐसा लगा जैसा राज भी हमें छोड़ कर जा रही है। फिर थोड़ी देर बाद उसके हाथ पांव मलने और चांटा देने पर उसे थोड़ा होश आया। होश आने पर उसने फिर वही कहा ‘हुण की होसी’ और दुबारा बेहोश हो गई।

मैं सिर्फ महसूस कर रहा था कि क्या बन रहा है। एक होनहार 14 साल का बच्चा जो नौवीं क्लास में पढ़ता था, जिस पर मेरी उम्मीदों के महल बनने थे, मुझे यह कह कर चला गया कि मैं जा रहा हूँ और दूसरी तरफ बेटी की ऐसी हालत है। दुनिया की बेसबाती और इंसान की मजबूरी का कितना दर्दनाक मंजर था। मेरी धर्म बहन राजे चोपड़ा भी उस दिन हमारे घर आयी हुई थी। उनके पर्स में 60 रुपये थे। हमदर्दी और प्यार का भारी जज्बा था। राज और पृथ्वीराज की दुनिया अलग थी दोनों की ऊँची उड़ान थी। उनमें एक का खत्म हो जाना, दूसरे का जीवन मौत से बदतर छोड़ गया। पृथ्वीराज की अर्थी के साथ गली मुहल्ले के इलाका के अलावा स्कूल के भी काफी बच्चे थे। राज का स्वभाव और मेलजोल अच्छे लोगों की सोसायटी में से था। हँसना खेलना मेल मिलाप उसके स्वभाव का बेहतरीन हिस्सा था, लेकिन अब उदास और गमगीन रहती। मैने रोजाना थोड़ा समय राज के साथ बैठकर उसे समझाता कि बेटी इतना ही सम्बंध था उसका हमारे साथ। लेकिन राज को ऐसी बातों से भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे तो यही मालूम होता, जैसे उसका मिशन व जीवन अधूरा हो गया है।

बीवी की हालत राज से भी ज्यादा बदतर थी। जब छोटे बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती थी या खाना बनाते हुये बस रोती रहती, जैसे रोना ही रह गया है। उसे ढाढ़स बन्धाते हुये मैं भी रो पड़ता था। मां को दृष्टांत सुनाने में थोड़ी तसल्ली होती है। उसके दिल का टुकड़ा छिन गया था। मेरी बातें उसे ज्यादा रूलातीं। मां के दिल का दर्द मां ही जाने या भगवान। समय ने सब दर्द समेट लेने हैं। कितनी कृपा थी कि उस आग से पूरा परिवार बचकर आ गया था। वहाँ कैम्प गाड़ी पर चढ़ते हुये एक मिलेट्री नौजवान ने मुझसे कहा था- तेरे पास कुछ सामान नहीं है, उठा लो, जो उठा सकते हो। (लोग जो सामान नहीं ला सकते थे, वह फेंक देते थे)। मैंने जवाब में कहा था- जवान मुझे कुछ जरूरत नहीं है। मेरी पूरी पूंजी बच्चे व परिवार मेरे हमराह हैं। और अब वह फूल भगवान तुमने तोड़ दिया, जिससे चमन की खुशबू और रौनक खत्म हो गई। “फूल वह तोड़ा चमन से जिससे वीरानी हुई”।

अब दुकान का काम बराए नाम था। कुछ मुसीबत ने उथल पुथल कर दिया, कुछ भाइयों की मेहरबानी ने। दुकान को उठाने में पहले ज्यादा मेहनत और सरमाया की जरूरत थी। शरायत काफी सख्त थी। हफ्ता वार भुगतान, हफ्ते का 3 रु. सूद और भुगतान न देने की हालत में अगले हपते का सूद डबल। एक बिजनेस मैन के लिए ऐसा करना बहुत मुश्किल था। फिर भी हमने जहर का घूंट पिया। मेरे पास तो कुछ भी बाकी न बचा था। ताराचन्द ने भी कहा- मेरे पास रुपया नहीं है। जिम्मेदारी तो सिर्फ हम दोनों की थी। श्रीराम, सीताराम और रामलाल तो बस ड्यूटी देने तक महदूद थे। हमनें उन दिनों फैसला किया कि कुछ वक्त के लिए 2 रुपये रोज फी मेम्बर दुकान से खर्चा उठायेंगे। मैंने घर में कह दिया कि 1 रुपये का आटा और 1 रुपये मजीद गुजारा करो, जिसमें बच्चों को स्कूल भी जाना है, कपड़े भी साफ सुथरे चाहिए। ऐसी हालत में बच्चों की फरमाईश का सवाल ही पैदा नहीं होता था। फिर भी बच्चों को मुझसे शिकायत न थी। माताजी को 10 रुपये माहवार दुकान से देने शुरू किये। ऐसी हालत में जी सकना बहुत मुश्किल था। 5-7 महीने बाद ही बरदाश्त होना मुश्किल हो गया।

जब थोड़ा दुकान का भुगतान ठीक होने लगा, तो व्यापारी फिर खुदबखुद आने लगे। स. सतनाम सिंह ने भी हमारी मदद फौरी भुगतान के लिए रुपये दे देने की की। साथ में रहीमुद्दीन लाल सिंह के फरोख्तशुदा माल का रुपया भी दूसरे तीसरे दिन लेता, जिससे हमें काफी सहारा मिला। दिसावर की डाक लिखने पर भी मैंने जोर दिया। माल आने पर साथ ही रुपया भिजवा देता, ताकि बाहर बैठे लोगों में भी फिर से अपना असर बन सके।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 32

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , पड़ कर मेरा तो कलेजा ही मुंह को आगिया . पृथ्वी राज का जाना कितना दुखदाई था , अगर पैसा होता तो वोह ठीक रह सकता था लेकिन रोजाना इन्सुलिन के इंजेक्शन भी पैसे के बगैर संभव नहीं थे . ऐसे में इन्सान टूट जाता है ,फिर भी राधा कृष्ण जी दिल के बहुत तगड़े थे जो इतना कुछ होने के बावजूद जिंदगी की गाडी को धकेल रहे थे .

  • विजय कुमार सिंघल

    पुत्र के बिछोह का दु:ख बहुत बड़ा होता है। लेखक ने ग़रीबी के साथ साथ बहुत दु:ख सहन किये थे। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

  • मनमोहन कुमार आर्य

    करुणा एवं दर्द से भरी यथार्थ कहानी है श्री राधा कृष्ण कपूर जी की। उनमे हर दर्द को सहन करने की अपार शक्ति एवं क्षमता है। उनका प्रारब्ध एवं परिस्थितिया उनके प्रति सहनुभूिति उत्पन्न करती हैं। धन्यवाद।

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