गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

जिंदगी जब से सधी होने लगी
जाने क्यूँ उनकी कमी होने लगी

डूब कर हमने जिया हर काम को
काम से ही अब अली होने लगी

हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी

नेक दिल की बात करते है चतुर
हर कहे अक से बदी होने लगी

चाँद पूनम का खिला जब यूँ लगा
यादें दिल की फिर कली होने लगी

——- शशि पुरवार

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी गजल !

Comments are closed.