आत्मकथा

स्मृति के पंख – 35

इससे पहले का वाकया है जब हम दो पार्टनर रह गये थे मैं व ताराचन्द, तो एक सीजन हमारे पास जम्मू का माल नहीं आया था। कुछ दिन इंतजार के बाद ताराचन्द ने कहा- दिल्ली चले जाओ, चाचा लक्ष्मीदास से बात करना। मैं शाम को दिल्ली को तैयार हुआ और सुबह-2 ही मण्डी जा पहुँचा। लक्ष्मीदास एण्ड ब्रदर्स की दिल्ली की मेवा मण्डी में भी दुकान थी और मुझे इलम था कि लक्ष्मीदासजी आजकल दिल्ली में हैं। अपने पास मुझे बिठाकर पहले कुशल मंगल पूछी। फिर बोले कैसे आना हुआ। मैंने उन्हें कहा- चाचाजी, सेवा को मौका दो हमें। बाहर माल आ रहा है, हमारे पास नहीं है। उसने कहा- भुगतान कैसे होगा? मैंने कहा- बहुत ठीक तरह से करूँगा। उसने सवाल किये- तुमने जम्मू मण्डी के कितने रुपये देने हैं?

जवाब- सब मिलाकर कोई 5 हजार होगा।

सवाल- क्या सबूत है? मैं मान लूं और वह लोग आपको तंग करे और मेरा रुपया बंद हो जाये?

जवाब- मैंने सबको लिख दिया है मैं रुपया जरूर दूँगा, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता। फौरी तो मुझे मदद की जरूरत है।

सवाल- इस बात गारंटी क्या है कि मेरा रुपया रुकेगा नहीं।

जवाब- जितना माल आपका रोजाना आयेगा, उतना रुपया रोजाना जायेगा।

सवाल- कैसे रोजाना जायेगा? 500 रु. का माल आया वह तो बाजार कर्ज चला गया, तुम भुगतान रोजाना कैसे कर सकते हो? पहले दिन का रुपया तुम्हें 5 दिन बाद मिलेगा और अगर 500 रु. के हिसाब से लगायें तो 2500 रुपया हो जायेगा। देखो बेटा, मुझे पूरा विश्वास है कि तेरे पास रुपया मरता नहीं। लेकिन कारोबारी आढ़ती रुपया रोक नहीं सकता।

जवाब- चाचाजी विश्वास करो, एक चांस दो, विश्वास में खुदबखुद बहाल करूँगा। ये साथ में बैठे आपके बच्चे भी तो खर्च करते हैं, मैं भी आपका बच्चा हूँ।

सवाल- यह सामने मेरे बच्चे हैं। खर्च के लिए इन्हें जितने जरूरत हो ले सकते हैं, लेकिन व्यापार का शाम को पैसे-पैसे का हिसाब इन्हें देना है। तुमने बच्चों की बात की है, खर्चा के लिए तुम्हें जितना जरूरत हो, ले जाओ। व्यापार में तसल्ली हो जाये, तब माल दूँगा।

अब मैं लाजवाब था। कैसे विश्वास पैदा किया जाय उसके मन में। लुधियाना से जाते दफा मै0 सुन्दरदास रामनाथ को मिलकर गया था। रामनाथ से सिफारशी चिट्ठी मांगी थी। उसने कहा था- चाचा तेरी बहुत इज्जत करता है। माल तेरे कहने पर जरूर देगा। अगर न कर दिया तो जबानी मेरा नाम इस्तेमाल कर लेना। रुक्का अभी रहने दो। फिर कभी मुश्किल के समय जरूर दूँगा। और यह रामनाथ था कौन? रावलपिण्डी में लक्ष्मीदास और इनके पिता सुन्दरदास भाइयों जैसे थे। मरते समय ये अपने दो बेटों का हाथ लक्ष्मीदास के हाथ में थमाकर आप स्वर्गवास हो गया था। लक्ष्मीदास आज तक उन बच्चों को अपने बच्चों की तरह मानता था और बाजार भाव से काफी रियायती माल उन्हें जम्मू से आता था, जैसे अखरोट, अनारदाना, लाल मिर्च। ऐसा माल उनका आता और रात को हमारी दुकान पर उतरता, सुबह हम उन्हें इत्तला देते कि अपना माल उठा लो। बस हमारी इतनी ही जान पहचान थी उन लोगों से।

मैंने चाचाजी से कहा अगर आपको रोजाना रामनाथ लिख दिया करें कि आज मैंने इतना रुपया जमा कर दिया उनके पास, तो तुम्हें मंजूर है। उसने कहा- हां। बस फिर क्या है, अगर वह लिख दे, तो रोजाना जितना कहो, मैं भिजवाता रहूँगा। और मैंने कह दिया- जब रामनाथ की चिट्ठी आपको मिल जाये तो ऐसा करना। और लक्ष्मी दास ने मुझे बेटे की तरह प्यार किया और कहा कि बुरा मत मानना, रुपये के मामले में बहुत एहतियात जरूरी है। पहली बात, तुमने सच बोला है, जम्मू मण्डी में जो देना है। दूसरा सच, सबको आहिस्ता-आहिस्ता दूँगा। मेरा अपना मन चाहता है तुम्हारी मदद करूँ। बस तुम्हारे काम और इमानदारी से मैं बहुत खुश हूँ। मैंने पहले भी तुम्हें कहा था, अब फिर कहता हूँ कि भले ही मुकाबले में तुम्हारी बिक्री कम हो या ज्यादा, इस बात की परवाह मत करो कि बिक्री कम है और अगर ज्यादा है तो भी ज्यादा आनी चाहिए। बिक्री में तो यह सब होता ही है। और मेरे काम में ईमानदारी से मुझे खुशी होती है। फिर भी रुपये की हर वक्त हिफाजत का ख्याल रखता हूँ। सच्चे और ईमानदार आदमी के पास अगर रुपया न हो तो वह क्या कर सकता है, इसलिए रामनाथ की चिट्ठी अगर मुझे रोजाना मिलती रही, तो जितना माल लिखेंगे, उतना ही जाता रहेगा।

फिर मैंने कहा- एक और सवाल करता हूँ। आगे अखरोट का सीजन है, मुझे रियायती भाव से 10-15 बोरी अखरोट रोजाना बीजक पर रवाना कर दिया करें। खैर यह बात मैं तेरी मान लेता हूँ, लेकिन एक साल के लिए। दूसरे साल बीजक पर माल नहीं दूँगा। मेरा माल कमीशन पर ही फरोख्त करोगे। लुधियाना आकर मैं पहले रामनाथ को मिला। उससे पूरी बातचीत की। मैंने कहा- रामनाथ, अब तुम्हारी मदद की जरूरत है। उसने कहा- बोलो। मैंने कहा- मैं रोजाना रुपया तो तेरे को दे नहीं सकता। वह बोला- मुनीम को रुक्का लिख दिया करो कि आज इतना रुपया जम्मू लिख दो। वह बोला- मैं तेरा अलग से खाता रख दूँगा, लेकिन मुझे वह रुपया कितने दिन बाद मिलेगा। मैंने कहा- एक हफ्ते बाद। और फिर जब माल आना शुरू हो गया, तो वैसे ही शाम को ज्वन्द सिंह मुनीम को रुक्का लिख देता कि आज की तारीख में चाचा लक्ष्मीदास को इतना रुपया जमा हुआ लिख दो। इस तरह रामनाथ की वजह से चाचा के दिल में हमारे लिए भरोसा पैदा हुआ। मैं हसबे वायदा एक हफ्ते के बाद वह रुपया रामनाथ के पास जमा करा देता। जब लक्ष्मीदास का माल शुरू हुआ, तो बाकी सब लोगों ने भी माल शुरू कर दिया। इस धारणा से कि इस पार्टी को लुधियाना में उठाना है, भले ही कुछ अरसा हमारा रुपया रुका रहे। दूसरी पार्टी के गलत प्रचार से हमारा अक्स अच्छा उभर कर सामने आया। जो हमने लोगों का रुपया भी देना था, सिर्फ वह हमारी मदद करने में जुट गये।

अब काम अच्छा था पुराना कर्जा भी तकरीबन खत्म होने को था। गरीब साहब का तो पहले ही उतार दिया था। जम्मू का थोड़ा ही बाकी था। हम अपनी मर्जी से भेज देते और लक्ष्मीदास का 10-12 हजार रुपया हर वक्त हमारे पास लगता रहता। उसने सिर्फ इतना कहा कि मै एक अप्रैल को किताबें बदलता हूँ, इससे पहले मेरा हिसाब साफ होना चाहिए। यह फैसला मेरा व्यापारियों से है। जम्मू से जाते हुये लक्ष्मीदास लुधियाना जरूर रुकते। बहुत से लोग उनकी कार घेर लेते। हर एक माल मंगाने का सवाल करता। सबको उनका जवाब था- बहुत काम है तुम्हारे पास। मेरा थोड़ा माल अगर लुधियाना आयेगा, तो (हमारी तरफ इशारा करके कहते) उनको ही आयेगा।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 35

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक ने जिस तरह एक बड़े व्यापारी का विश्वास जीता, वह बहुत बुद्धिमानी पूर्ण कार्य था। ऐसी साख होने पर सफलता निश्चित होती है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अब कुछ कुछ अच्छा होने के असार नज़र आ रहे हैं . all is well that ends well .

  • Man Mohan Kumar Arya

    चाचा लक्ष्मी दास, रामनाथ जी तथा राधा कृष्ण कपूर जी के संबंधों व उनके वार्तालाप को पढ़कर अच्छा लगा. लगता है कि अब श्री कपूर जी का काम जम गया / रहा है।

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