संस्मरण

मेरी कहानी – 37

दादा जी की यादें बहुत हैं ,इसी लिए वोह हर घड़ी याद आते रहते हैं।  उन को पशुओं से बहुत स्नेह था। उन का धियान हर वक्त इन गाये भैंसों की ओर  ही रहता था , अगर यह कह लें कि उन की रूह उन में ही रहती थी तो अत्कथनी नहीं होगी। जब भी बाहिर से आते ,पहले पशुओं की खुरली में देखते कि उस में चारा था या नहीं। अगर खुरली खाली होती तो माँ को बोल देते ,” तुम ने पशु भूखे मार दिए “. माँ बोलती ,” मैंने तो चारा डाला था , उन्होंने खा लिया होगा तो मैं किया करूँ “. फिर दादा जी पानी की बाल्टी भर के पशुओं के आगे रखते तो वोह पी लेते।  दादा जी फिर बोलने लगते ,” पशु पियासे मार दिए “. माँ फिर जवाब देती ,” मैंने अभी पानी पिलाया है , अगर उन्होंने फिर पी लिया तो मैं किया करूँ ?”. यह मीठी नोंक झोंक दादा जी और माँ के बीच हमेशा ही रहती थी। दादा जी का गुस्सा ऐसा होता था कि एक दम पारा चढ़ जाता और एक मिनट के बाद नीचे आ जाता। माँ ने भी  हमेशा दादा जी को  ताज़ी रोटी दी जिस में माखन दही लस्सी जरूर होती और कभी कभी शककर घी होता। फिर भी दादा जी की एक आदत थी, बाहिर से आते ही माँ को पूछते ,” आज रोटी के साथ किया बना है ?”. अगर माँ कहती ” कद्दू ” तो एक दम बोल देते ,” बना लिया वाई का घर “. अगर वोह कहती ” करेले ” तो दादा जी बोल देते ,” बना लिया गर्मी का घर “. माँ को दादा जी की इस आदत का पता था और कभी जवाब नहीं देती थी। यह नोंक झोंक आखिर तक रही लेकिन दादा जी ने भी पिता जी की गैर मौजूदगी में माँ को कोई तकलीफ नहीं होने दी। कहीं जाना हो तो दादा जी आगे आगे और माँ पीछे पीछे घुंगट निकाले चली जाती थी।

                  जब माँ की आँखों में तकलीफ हुई थी तो  दादा जी ने बहुत कुछ किया था , बहुत जगह वोह माँ को ले के गए थे यहां तक कि जब माँ ने अफ्रीका जाना था तो पहले जालंधर ट्रैवल ऐजेंट हरी सिंह ऐंड सन्ज़ के पास सीट बुक कराने के लिए जाते थे और उन को बहुत दफा जाना पड़ा था और सब से कठिन काम था पंजाब से मुंबई सी पोर्ट जाने का क्योंकि माँ  ने बाई सी जाना था। उस समय लोग अफ्रीका को बाई एअर नहीं जाते थे। माँ कभी गाँव से बाहर नहीं गई थी और उस के लिए भी अफ्रीका अकेले जाना और वोह भी बाई सी ,बहुत मुश्किल था। माँ रास्ते में रोती गई थी और शिप में चढ़ते समय दादा जी को बहुत परेशान किया। वोह जहाज़ पे चढ़ना नहीं चाहती थी और घर वापिस आना चाहती थी। फिर दादा जी ने कुछ पंजाबी लोगों को माँ की मदद करने के लिए कह दिया। जब दादा जी वापिस गाँव आये तो बहुत गुस्से में थे और बोल रहे थे ,” जब तुम्हारी माँ अफ्रीका से वापस आएगी तो पूछूंगा ” इतना तंग किया उस ने !. बस इतना ही गुस्सा था और जल्दी समानय हो गए। दो हफ्ते में माँ किस्समू सी पोर्ट पर पौहंच गई और पिता जी ने उसी वक्त पत्तर डाल  दिया। जब पत्तर गाँव आया तो दादा जी ने भी  सुख का सांस लिया। दादा जी ख़ुशी ख़ुशी फिर अपने काम में वयस्त हो गए।
पशु पक्षिओं से स्नेह अब भी लोगों में बहुत है । इसी लिए तो कोई पक्षी खत्म होने लगें तो यह लोगों में चर्चा का विषय बन जाता है लेकिन उस वक्त भी सभी लोग जानवरों से पियार रखते थे। उन को यह कोई कहता नहीं था बल्कि यह ज़िंदगी का हिस्सा ही होता था। उस वक्त तो मुझे यह गियान नहीं था लेकिन अब मैं सोचता हूँ कि लोग कितना खियाल रखते थे जानवरों का। पहले तो सुबह ही रसोई में जब रोटी बनती थी तो कोई न कोई कुत्ता आ जाता और रसोई के बाहर बैठ जाता जैसे उस को पता हो कि रसोई में उस के लिए जाना मना था। रोटी पकाते पकाते माँ उस की तरफ एक रोटी फैंक देती , वोह खा लेता लेकिन फिर भी वोह पिछली टांगों पर बैठा अपने मुंह को ऊपर उठाये बैठा रहता। माँ झिड़क देती और कहती ” जाह अब ,और कितना खाएगा ?”. कुत्ता समझ जाता और किसी दूसरे घर की ओर चले जाता। सुबह का खाना खा कर सभी अपने अपने काम में लग जाते और बाद में  माँ भी खाना खा कर कुछ रोटिओं के छोटे छोटे टुकड़े छत पर फैंक देती जिस से छत पर चिड़िओं की चहल पहल हो जाती  ,मैं भी स्कूल को चले जाता और दादा जी पशुओं की देख भाल में सरगर्म हो जाते।
हर दूसरे तीसरे दिन दादा जी भैंसों को नहलाने लगते। अच्छी तरह नहलाते और कभी कभी उन के शरीर पर तेल की मालश भी करते। कभी भी गाये भैंस की आँखों में कुछ चिट्टा चिट्टा जिस को गिड़ कहते थे दिखाई  देता तो दादा जी एक तेल का काहड़ा तैयार करते जिस में सरसों का तेल सौंफ ठीकरी नौशादर और एक दो और चीज़ें एक बांस के पाइप में डाल  कर गाये भैंस के मुंह में डाल देते। जब मुझे टाइम मिलता तो मैं देख भाल करता। सब से ज़्यादा प्रेम मुझे गोरी गाये के साथ था। यह गाये मुझे सब से ज़्यादा प्रिया थी ,यह छोटी सी एक सुन्दर गाये थी जिस ने बहुत बछे बछड़ीआं पैदा किये और आगे जा कर वोह गाये और बैल बने। यह गाये बहुत ही शांत सुभाऊ की थी ,कभी भी किसी को मारती नहीं थी। घर आते ही जब मैं अपने बाइसिकल की घंटी बजाता तो वोह हिल जुल करने लगती। मैं उस के मुंह पर हाथ फेरता , उस के सींगों को सहलाता और कभी कभी उस के गले लग जाता। वोह मेरे हाथ चाटने लगती। कई दफा तो मैं बच्चों की तरह उस के साथ खेलता। मैं अपनी कमीज़ उतार कर उस के आगे बैठ जाता और वोह मेरी पीठ को अपनी जीभ से चाटने लगती। माँ हंसने लगती और कहती “किया बच्चों की तरह करता है “. मुझे यह अच्छा लगता और बाद में नहा कर नई कमीज़ पहन लेता। जब इस गाये ने दूध देना बंद कर दिया था तो वोह बूढ़ी होने लगी थी। उस की टांगों में इतनी ताकत नहीं रही थी और मुश्किल से उठ पाती थी। धीरे धीरे उठना बहुत  मुश्किल हो गिया था, मैं और  दादा जी उस के नीचे से एक लठ डाल कर जोर से  उसे उठाते , वोह भी जोर लगाती और उठ जाती। हमारे लिए वोह ऐसी थी जैसे घर में कोई बज़ुर्ग हो। उस से हमारा प्रेम पहले से भी ज़्यादा बड़  गिया था। सर्दिओं के दिन थे। ठंड बहुत ज़्यादा थी। गोरी के ऊपर मोटा कपडा जिस को झुल कहते थे दिया हुआ था। खड़ी खड़ी गोरी गिर गई और सांस खींच कर आने लगी। दादा जी भी पास ही थे ,कहने लगे ,” लगता है अंतम समय आ गिया है “. देखते ही देखते गोरी यह दुनिआ छोड़ गई। मैं रोया , माँ  और दादा जी भी उदास, वातावरण ग़मगीन हो गिया था।
कुछ देर बाद चार चर्मकार आये और गोरी की टांगों को दो बड़ी लकड़ीओं से  बाँध कर उठा कर ले  जाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे घर से बज़ुर्ग जा रहा हो। यों तो हमारे घर में बहुत पशु थे लेकिन गोरी गाये ही ऐसी थी जिस का चेहरा अभी तक याद है। बहुत दिनों तक मेरा मन उदास रहा। फिर एक दिन मैंने किसी के घर कुत्ती के क्तूरे  देखे  , मुझे बहुत पियारे लगे , यह शायद चार या पांच थे। मैंने उन को कहा दो मुझे दे दें , उन्होंने मुझे दो दे दिए। एक चिट्टे रंग का था और एक काले रंग का। काले रंग के कतूरे का नाम मैंने टौम रख दिया और दूसरे का नाम जैक रख दिया। दादा जी को भी उन से लगाव बड़ गिया। हर दम दादा जी के पीछे दौड़ते रहते। मैं उन दोनों को दूध को कटोरिओं में डाल कर उन के सामने रखता। जैक इतना लालची था कि तेज तेज पी कर मोटा हो जाता और हम उस का पेट देख कर हँसते  लेकिन टौम धीरे धीरे पीता और कुछ छोड़ भी देता। दोनों में बहुत अंतर था , टौम ऐसा था कि कोई भी घर में आ जाए, भौंकने लगता लेकिन जैक कभी न भौंकता। हम जैक के मुंह पर चुपेड  मारते कि वोह भौंके लेकिन उस पर कोई असर ना होता। बहुत समय पहले जब मैं बहुत छोटा था तो दादा जी ने एक चिट्टे  रंग का कुत्ता भी  रखा हुआ था ,जिस का नाम मोती था। यह कुत्ता इतना गुस्से वाला था कि कोई घर के अंदर घुस नहीं सकता था। अक्सर वोह खिड़की से बाँधा हुआ  होता था। मैंने माँ से सुना था की एक दफा दादा जी खेतों में गेंहूँ की रखवाली के लिए सोये हुए थे जब कुछ लोग गेंहूँ चुराने के लिए आ गए तो  इस मोती ने उन का पीछा किया और गेंहूँ बच गई थी। कुछ देर बाद जब मोती बाहर घूम रहा था तो किसी ने उस की टांग पर कोई चीज़ ऐसी मारी कि उस की टांग टूट गई और लटकने लगी। पिता जी भी उस वक्त इंडिया में थे और उस की टांग पर दुआई लगा कर पट्टी किया करते थे। कुछ देर बाद मोती भगवान को पियारा हो गिया था।
दादा जी की एक बात पर हम बहुत हंसा करते थे ,वोह थी चाय की कहानी। इस को हम चाय की कहानी ही कहते थे। बात यह थी कि दादा जी रोज़ाना दो वक्त चाय पीते  थे। लेकिन वोह गुड़ की चाय ही पसंद करते थे और उन में भैंस का बहुत सा दूध पसंद करते थे। सुबह को सर्दिओं में वोह एक बड़ी अलसी की पिन्नी खाते थे , गर्मिओं में मूंगी की पिन्नी लेते थे। उन की चाय के लिए  एक गढ़वी होती थी जो भरी हुई होती थी। चाय पी कर वोह डकार मारते और बोलते आनंद आ गिया। बहन कई दफा कह देती ” दादा ,कहाँ है आनंद ?” दादा जी हंस पड़ते। एक दिन दादा जी ने कपूरथले किसी काम के लिए जाना था। उन्होंने चाय के साथ एक पिन्नी खाई और बाइसिकल पर कपूरथले को रवाना हो गए। जब मेरी बहन ने बर्तन साफ़ करने शुरू किये तो देखा कि जस पतीली में चाय बनाई थी उस में चाय पत्ती का नामों निशाँ ही नहीं था यानी बहन पतीली में चाय पत्ती पाना भूल ही गई थी। सभी हंसने लगे कि दादा जी ने चाय पत्ती के बगैर ही पानी गुड़ और दूध पी लिया था और कुछ नहीं बोला था। गुड़ की चाय क्योंकि गाहड़ी होती है ,उन्होंने नोटिस ही नहीं किया। जब शाम को दादा जी घर आये तो बहन पूछने लगी ,दादा ! सुबह चाय स्वाद थी ? . दादा जी बोले ,” ठीक ही थी “. सभी हंसने लगे। बहन बोली ,” चाय पत्ती तो मैं पाना भूल ही गई थी “. अच्छा अआआ ,तभी सारा दिन सर दुखता रहा ” और हंसने लगे।
दादा जी की अनगिनत यादें हैं। जब भी घर में कोई पुरानी बात होती तो आखिर में दादा जी की बातें ही होने लगतीं। कभी कभी सोच आती है , काश एक मिनट के लिए ही दादा जी आ जाएँ , कहाँ चले जाते हैं लोग… ?
चलता…

4 thoughts on “मेरी कहानी – 37

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आज की किस्त पढकर मज़ा आ गया। गाँवों की सारा कार्य ही पहले पशुओं पर आधारित होता था। इसलिए उनसे लगाव होना स्वाभाविक है। आपके दादाजी बहुत मनोरंजक और मेहनती भी थे।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , आप ने ठीक कहा ,गाँव के सभी लोग ऐसे ही होते थे ,इसी लिए अपनी कथा बता कर सारे गाँव का चित्रण करने की कोशिश की है . दादा जी की इतनी यादें हैं और वोह भी दुसरे गाँव वालों से भिन्न कि हैरानी होती है. एक बात वोह बताया करते थे कि वोह कुछ दोस्त मिल कर उन दिनों शिमले जाया करते थे वोह भी पैदल चल कर . सारा दिन पैदल चलते रहते थे ,यहाँ रात हो जाती वहीँ सो जाते और जब वोह अपनी तन्खुआह बताते थे तो हम बहुत हँसते थे . उन की तन्खुआह दो आने रोज़ की होती थी और हम बहुत हँसते थे .

  • Man Mohan Kumar Arya

    दादा जी तथा माता जी की खाने को लेकर मीठी मीठी नोक झोक तथा माता जी की अफ्रीका की समुद्र यात्रा का वृतांत पढ़ कर अच्छा लगा। आपका पशु प्रेम सराहनीय है। आत्मा शरीर बदलता रहता है। हम कभी मनुष्य बनते हैं और कभी कर्मानुसार पशु भी बनते है। इसलिए वैदिक नित्य कर्मो में बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान किया गया है। गाय को चारा व रोटी खिलाना व उसकी सेवा करना तथा अन्य पशुओं को भी भोजन देना ही बलिवैश्वदेव यज्ञ है। हो सकता है कि हमें अगले जन्म में पशु बनना पड़े। यदि किसी पशु प्रेमी के घर में रहे तो हमारा जीवन अच्छा कट सकता है। आज की सुन्दर, रोचक एवं प्रभावशाली रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , गाँव की जिंदगी बहुत सादी होती थी और मेरा खियाल है आज भी है . मेरा खियाल है गाँव में बहुत लोग अपने जानवरों से लगाव रखते हैं . मुझे बक्रिओं के छोटे छोटे लेले बहुत अछे लगते थे लेकिन हम बक्रिआन रख नहीं सके . जब हमारे पास जानवर होते हैं तो वोह घर के सदस्य ही हो जाते हैं , भले ही जानवर बोल नहीं सकते लेकिन बहुत समझ लेते हैं . आप को आज की किश्त अच्छी लगी ,बहुत बहुत धन्यवाद .

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