आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 16)

पप्पूजी की बीमारी

मेरी साली राधा (गुड़िया) का विवाह हो चुका था, परन्तु दुर्भाग्य से उसके कोई सन्तान नहीं थी। एक बार उम्मीद हुई तो गर्भपात हो गया। बहुत बाद में उसको एक पुत्री प्राप्त हुई। उसके पति श्री विजय कुमार जिन्दल कपड़े के कमीशन एजेंट हैं और शेयरों का काम भी कर लेते हैं। उनका प्यार का नाम ‘पप्पू’ है। वे बहुत ही व्यवहार कुशल हैं और सज्जन हैं। मेरी तो उनके साथ बहुत पटती है। मैं उनको ‘पप्पूजी’ या ‘विजय बाबू’ कहा करता हूँ। उनमेें सभी अच्छाइयाँ हैं, परन्तु दो व्यसन भी हैं- एक तो यह कि वे तम्बाकूवाला पान-मसाला (गुटखा) बहुत खाते हैं और दूसरा यह कि वे ताश बहुत खेलते हैं। ताश मैं भी खेलता हूँ, पर कभी-कभी। इसका व्यसन मुझे नहीं है और तम्बाकूवाला पान-मसाला तो मैं बिल्कुल नहीं खाता। कभी-कभी सुपाड़ी अवश्य खा लेता हूँ। गुटखा ज्यादा खाने से पप्पू जी के पेट में ऐंठन होने लगी थी। कब्ज बहुत पुराना पड़ जाने के कारण ऐसा होता है। ज्यादा मसाला खाने और चाय पीने से यह बीमारी पैदा होती है।

कब्ज जब हद से ज्यादा हो जाता है तो तमाम तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। वास्तव में कब्ज ही सभी बीमारियों की माँ है। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा में कब्ज दूर करने पर ही सबसे ज्यादा और सबसे पहले जोर दिया जाता है। परन्तु सभी लोग इस बात को नहीं जानते, इसलिए कब्ज को बीमारी मानने के बजाय दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए भाग-दौड़ करते हैं। पप्पूजी का इलाज पहले ऐलोपैथी से चला, उससे फायदा न होने पर होम्योपैथी से भी कराया गया। उससे भी फायदा न होने पर वैद्यजी की शरण में गये और लम्बे समय तक उनकी दवा खाते रहे। परन्तु उससे भी फायदा नहीं हुआ। वैद्य जी ने उनको ‘संग्रहणी’ नामक रोग बताया था, जो वास्तव में कब्ज का ही दूसरा नाम है। जब कब्ज बहुत पुराना पड़ जाता है और आँतों में रुका हुआ मल सड़ने लगता है, तब यह रोग होता है और पेट में ऐंठन होती है। पेट में ऐंठन के कारण दिमाग पर भी असर पड़ता है, जिससे मरीज कुछ का कुछ बोलने लगता है और घर वाले उसे भूत-प्रेत का चक्कर समझते हैं। एक बार तो पप्पूजी की मानसिक हालत ऐसी हो गयी कि वे जीवन से निराश हो गये और गुड़िया से कहने लगे कि तू सारा सामान लेकर मुझे छोड़कर चली जा, क्योंकि मैं बचूँगा नहीं और बाद में तुझे कोई कुछ नहीं ले जाने देगा। परन्तु गुड़िया वहीं डटी रही।

जब मुझे पप्पूजी की इस हालत का पता चला, तो पहले तो हमने अपने साप्ताहिक हवन में उनकी बीमारी ठीक होने के लिए प्रभु से प्रार्थना की और विशेष आहुतियाँ डालीं। मैं पीछे लिख चुका हूँ कि हम प्रायः ऐसी प्रार्थना नहीं करते और बहुत मजबूर होने पर ही केवल दूसरों के लिए प्रभु से याचना करते हैं। ऐसी प्रार्थना पहली बार हमने सूरजभान भाईसाहब के सफल आॅपरेशन के लिए की थी और दूसरी बार पप्पूजी के लिए की। मुझे प्रसन्नता है कि प्रभु ने दोनों बार हमारी प्रार्थना सुन ली। इसके बाद हम आगरा आये। वहाँ पप्पूजी को देखने गये, तो उन्होंने बताया कि मुझे भूख बिल्कुल नहीं लगती और सुबह उठते ही इतनी कमजोरी होती है कि सिर चकराता है और एक कदम भी चला नहीं जाता। कुछ खा लेने के बाद ही वह कमजोरी खत्म होती है। मैंने उनको समझाया कि इसका कारण केवल कब्ज है और इस बीमारी में कोई दवा कुछ नहीं कर सकती। अगर मेरी बतायी हुई क्रिया करोगे, तो ठीक हो जाओगे। काफी समझाने पर वे क्रिया करने का राजी हो गये। मैंने उनको सुबह कटिस्नान लेने को कहा और खूब पानी पीने को भी कहा। कटिस्नान की सरल क्रियाविधि मैंने उनको समझा दी और अगले ही दिन से उन्होंने उसे प्रारम्भ कर दिया। वे कई दिन से नहाये नहीं थे, इसलिए एक दिन मैंने उनके शरीर को गर्म पानी में कपड़ा भिगो-भिगोकर खूब रगड़ा। इससे उनके शरीर से इतना साबुनदार मैल निकला कि पानी ऐसा हो गया जैसे किसी ने साबुन घोल दिया हो। इस स्नान के बाद उनको काफी आराम मिला और अच्छी नींद भी आयी।

सौभाग्य से लगातार कटिस्नान लेने और हल्का टहलने से उनके शरीर में ताकत आने लगी। पहले उठते ही जो कमजोरी आती थी, वह गायब हो गयी और भूख लगने लगी। मैंने उनसे कहा था कि यह क्रिया लगातार दो माह करनी है। उन्होंने लगभग डेढ़ माह यह क्रिया की और इतने में ही वे बिल्कुल स्वस्थ हो गये। हालांकि साथ में वे वैद्य जी की दवा भी खा रहे थे। अब वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। परन्तु दुर्भाग्य से गुटखा खाना उन्होंने फिर शुरू कर दिया है और मेरे समझाने का उन पर कोई असर नहीं हुआ है।

इन्द्रम जी का कार्य

सन् 2000 में हमारे मंडलीय कार्यालय में पंजाब से एक अधिकारी प्रोमोशन पाकर आये। वे थे श्री इन्द्रम नंदराजोग। उन्हें मार्केटिंग विभाग के वरिष्ठ प्रबंधक का दायित्व दिया गया था। एक दिन मेरा उनसे सामान्य सा परिचय कराया गया। इसके कुछ दिन बाद ही उनको प्रवीण जी ने मेरे पास भेजा। वे कानपुर और आसपास के डाक्टरों को एक पत्र भेजना चाहते थे कि वे हमारे बैंक की विभिन्न ऋण सुविधाओं का लाभ अपने व्यवसाय में उठा सकते हैं। उन्होंने इंडियन मेडीकल एसोसिएशन के कानपुर कार्यालय से डाक्टरों के नाम-पते प्राप्त किये थे, जो एक सूची के रूप में थे और एमएस-वर्ड के फाॅर्मेट में थे। वे चाहते थे कि मैं उस सूची को किसी ऐसे फाॅर्मेट में बदल दूँ कि उनको मेल-मर्ज सुविधा से सरलता से पत्र भेजा जा सके।

काम थोड़ा लम्बा था, परन्तु मैं क्योंकि सभी विभागों की सहायता किया करता था, इसलिए उनका कार्य करने को तैयार हो गया। वैसे भी उस समय मेरे पास अधिक कार्य नहीं था। इन्द्रम जी ने सोचा था कि यह कार्य एक-दो घंटे में हो जाएगा। परन्तु मैंने बताया कि एक-दो दिन लग जायेंगे। तब उन्होंने कहा कि रहने दीजिए, मैं किसी तरह पत्र भेज लूँगा। लेकिन मैंने कहा- ‘नहीं, अब यह मेरा कार्य है।’ इससे वे बहुत प्रभावित हुए। दूसरे लोग जहाँ कार्य को अधिक से अधिक टालते हैं, वहीं मैं स्वयं इस कार्य को ले रहा था। कहने लगे- ‘तो, मैं सही जगह आया हूँ?’ मैंने कहा- ‘हाँ, आप बिल्कुल सही जगह आये हैं।’ मैंने दो दिन कड़ी मेहनत करके उनकी आवश्यकता के अनुसार सूची बना दी और उन्होंने पत्र भेज भी दिये। ऐसा ही कार्य दो-तीन बार आगे भी किया। अब यह तो पता नहीं कि उस पत्रों के कारण कितने डाक्टरों ने बैंक से ऋण लिया, परन्तु इन्द्रम जी के ऊपर मेरा जो प्रभाव पड़ा, वह सदा कायम रहा। वे मेरी बहुत इज्जत करने लगे और आज भी करते हैं।

बैंक में उथल-पुथल

सन् 2000 में हमारे बैंक में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वी.आर.एस.) लागू हुई। जिन कर्मचारियों की उम्र 50 वर्ष से अधिक थी, वे इसका लाभ ले सकते थे। इसमें उनको बिना काम किये 5 साल का वेतन मिलने वाला था। बैंक ने अपना खर्च घटाने के लिए यह निर्णय किया था। यह स्कीम अन्य बैंकों में भी आयी थी। हमारे बैंक के हजारों अधिकारियों और बाबुओं ने इसका लाभ उठाया। मेरे कम्प्यूटर सेंटर की श्रीमती माला भट्ट इसी योजना में रिटायर हो गयीं। श्री के.सी. श्रीवास्तव को भी इसका फायदा लेना चाहिए था, परन्तु वे चूक गये, जबकि उनके बड़े भाई श्री ए.सी. श्रीवास्तव भी वी.आर.एस. लेकर चले गये थे। जब स्कीम का समय निकल गया तो श्री के.सी. जी बहुत पछताये और कहते थे कि अगर अगली बार यह स्कीम आयेगी तो मैं जरूर लूँगा। लेकिन फिर यह स्कीम कभी नहीं आयी, क्योंकि पहली बार में ही बैंक बहुत खाली हो गया था।

सन् 2001 में हमारे बैंक में फिर बहुत उथल-पुथल हुई। उस समय हमारे बैंक का प्रबंध तीन स्तरों पर होता था- प्रधान कार्यालय के नीचे लगभग 9 मंडलीय कार्यालय थे और प्रत्येक मंडलीय कार्यालय के नीचे 3 या 4 क्षेत्रीय कार्यालय थे। उस वर्ष बैंक ने खर्च घटाने के लिए मंडलीय कार्यालय समाप्त करने और समस्त प्रबंधन कार्य क्षेत्रीय कार्यालय स्तर पर करने का निर्णय किया। मंडलीय कार्यालय समाप्त होने पर उनके सारे विभाग भी समाप्त होने थे। इसलिए हमारा कम्प्यूटर सेंटर भी समाप्त होना था। उस समय हमारा कानपुर मंडलीय कार्यालय तो स्वरूप नगर में था, लेकिन क्षेत्रीय कार्यालय वहाँ से कुछ दूर पांडु नगर में जे.के. मंदिर के सामने की गली में था। मंडलीय कार्यालय समाप्त होने पर उसमें पदस्थ कई अधिकारियों को अलग-अलग जगह स्थानांतरित कर दिया गया और बाकी अधिकारियों को वहीं के क्षेत्रीय कार्यालय में लगा दिया गया। हमारे कम्प्यूटर केन्द्र के अधिकारी श्री अतुल भारती को राँची भेज दिया गया और श्रीमती रेणु सक्सेना मुख्य शाखा में लगा दी गयीं। श्रीमती माला भट्ट पहले ही वी.आर.एस. लेकर चली गयी थीं। इस तरह मेरे साथ केवल श्रीमती शालू सेठ, कु. तेजविंदर कौर तथा श्री के.सी. श्रीवास्तव रह गये। हमें तत्काल पांडु नगर के क्षेत्रीय कार्यालय में बैठने का आदेश दिया गया। इसलिए एक दिन हमने अपने सभी पी.सी. वहाँ भेज दिये और अगले दिन स्वयं भी पांडु नगर पहुँच गये। हमारे कम्प्यूटर केन्द्र के पुराने कम्प्यूटर किसी काम के नहीं रह गये थे, इसलिए वे वहीं छोड़ दिये। हालांकि उसकी चाबी अभी भी मेरे ही पास थी। कुछ दिन बाद श्रीमती शालू सेठ को भी हमारे बैंक की चकेरी शाखा में भेज दिया गया। इस प्रकार हम केवल तीन कम्प्यूटर अधिकारी क्षेत्रीय कार्यालय में रह गये। वहाँ के कार्य के लिए इतने लोग ही पर्याप्त थे। वैसे मैं अकेला ही सवा लाख के बराबर होता हूँ।

पांडु नगर मुझे पैदल ही जाना होता था, क्योंकि वहाँ के लिए सीधा टैम्पो नहीं मिलता था। मैंने जे.के. मन्दिर के परिसर से होकर आने-जाने का रास्ता खोज लिया, जहाँ से मैं केवल 1 कि.मी. पैदल चलकर अपने कार्यालय पहुँच सकता था। मैं वहाँ लगभग 2 माह बैठा। उसके बाद वह कार्यालय हमारे पुराने मंडलीय कार्यालय, जो स्वरूप नगर शाखा के ऊपर था, की जगह स्थानान्तरित हो गया। वहीं एक कमरा हमें कम्प्यूटर केन्द्र के लिए मिला, जिसमें हम तीनों अधिकारी बैठा करते थे। प्रारम्भ में उसी कमरे में हमारे हिन्दी अधिकारी श्री ओम प्रकाश शुक्ल भी बैठते थे, परन्तु बाद में उन्होंने अपनी मेज दूसरे कमरे में लगवा ली। कुछ दिन में ही हमने अपने केन्द्र को व्यवस्थित कर लिया और कार्य सुचारु रूप से चलने लगा। बाद में सभी क्षेत्रीय कार्यालयों का नाम बदलकर मंडलीय कार्यालय कर दिया गया।

मैं अपने घर से रोज पैदल ही आता-जाता था और कभी-कभी दोपहर का खाना खाने भी चला जाता था, क्योंकि वहाँ से अशोक नगर केवल 1 कि.मी. दूर था। वैसे ज्यादातर मैं अपना दोपहर का खाना लेकर आता था और फिर हम तीन-चार लोग अपने कम्प्यूटर सेंटर में ही बैठकर खाते थे। श्रीमती रेणु सक्सेना फिर से हमारे कम्प्यूटर सेंटर पर आ गयी थीं और श्रीमती शालू सेठ को उनकी जगह कानपुर मुख्य शाखा भेज दिया गया था। हिन्दी अधिकारी श्री ओम प्रकाश शुक्ला जी भी हमारे साथ ही खाते थे और एक स्टैनोग्राफर श्रीमती निरुपमा शुक्ला भी हमारे साथ ही दोपहर का भोजन करती थीं। लंच साथ-साथ करना काफी आनन्ददायक होता था। जब सब्जियाँ बच जाती थीं, तो उनको एक साथ मिलाकर सब बाँटकर खाते थे। इसको मैं मजाक में ‘सानी’ कहता था। कभी कोई चावल भी लाता था, तो उसे भी इसमें मिला लेते थे।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 16)

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। श्री विजय जिन्दल जी के उपचार में आपने सफलता प्राप्त कर अपने ज्ञान व अनुभव का लोहा मनवा लिया है। मुझे लगता है कि ईश्वर ने हमारा शरीर ऐसा बनाया है कि यदि इसकी उचित देखभाल की जाये और भोजन छादन पर ध्यान दिया जाये तो व्यक्ति बीमार बहुत ही कम होते हैं। बीमारियों का कारण जहां खान-पान है वहीं वायु-जल प्रदुषण एवं आजकल अन्न व फल-सब्जियों में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग भी है। अतः स्वच्छ जल व स्वच्छ वायु के सेवन सहित भोजन में सावधानी की आवश्यकता है। जो मनुष्य स्वाध्यायशील होता है उसे अनायास बहुत सा ज्ञान हो जाता है जो उसकी जीवनचर्या में लाभदायक होता है। आप ने प्राकृतिक चिकित्सा विषय का साहित्य पर्याप्त मात्रा में पढ़ा है और शायद आपका इसमें इंटरेस्ट भी है, अतः सफलता मिलना स्वाभाविक है। आप बैंक में हैं। आजकल हम सुनते हैं बैंक में काम बहुत अधिक बढ़ गया है। कर्मचारियों काफी तनाव व दबाव में बताये जाते हैं। इसका कारण कुछ कुछ नई सरकार की नीतियां हैं। वेतन की दृष्टि से भी केन्द्र सरकार के कर्मचारी आजकल बैंक से आगे हो गये हैं। देश में योग्यता, श्रम की मात्रा और वेतन में समानता व समानुपात दिखाई नहीं देता। कहीं कम काम करने पर वेतन बहुत अधिक है तो कहीं वेतन कम और काम अधिक है। कुल मिलाकर आज की किश्त भी रोचक और ज्ञानवर्धक है। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, मान्यवर ! मुझे प्राकृतिक चिकित्सा का ज्ञान अनुभव और पुस्तकों से प्राप्त हुआ है और अब मैं इसी को अपना शेष जीवन समर्पित करना चाहता हूँ. हालाँकि मेरे पास इसकी कोई आधिकारिक उपाधि नहीं है. ऐसी उपाधि प्राप्त करने के लिए मैंने योजना बना ली है और अवकाश प्राप्त करने के बाद मेरा विचार एक निःशुल्क प्राकृतिक चिकित्सालय खोलने का है. वैसे मैं लोगों को इसकी सलाह देता बरहता हूँ और जो उसका पालन करते हैं वे निश्चित लाभ उठा लेते हैं.
      आपका यह कहना भी सत्य है कि बैंकों में आजकल काम का लोड बहुत है. वास्तव में जन शक्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ी है जिस अनुपात में बैंकों का कार्य बढ़ा है. अनेक सरकारी योजनायें बैंक कर्मचारियों की सहायता से ही चलायी जाती हैं, जिसका कोई अतिरिक्त लाभ उनको नहीं मिलता. बैंक कर्मियों में असंतोष का यह एक बड़ा कारण है. संभव है अब स्थिति में सुधार हो.
      आपको हार्दिक धन्यवाद.

      • मनमोहन कुमार आर्य

        आपके विचार एवं योजना प्रशंसनीय है। हार्दिक धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई ,अज की किश्त पडी और बहुत सी बातों का पता चला .पप्पू जी का गुटका खाना तो मुझे भी अच्छा नहीं लगा . दरअसल जब मैं इंडिया में था तो कुछ लोगों को खाते देखता था तो उन के दांतों को देख कर मुझे नफरत हो जाती थी . मुझे पान से रंगी हुई जीभ भी बहुत बुरी लगती है . खैर यह तो आदत की बात है ,जो आप ने पपू जी को ठीक किया वोह बहुत सराहनीय है . कबज़ तो बिमारिओं की जड़ है ही लेकिन यहाँ भी बहुत लोग इस बीमारी से गृहस्थ हैं लेकिन यहाँ इतनी सब्ज़ीआन सलाद फ्रूट होते हुए भी बहुत लोग खाते नहीं और त्र्फ्ले पर जोर देते रहते हैं .जब त्रिफला बंद करते हैं तो फिर कबज़ हो जाती हैं . हमारे घर में सभी फ्रूट और हरी स्ब्ज़ीआन रोजाना खाते हैं और कभी भी कबज़ की शकाएत नहीं होती . दुसरे जो बैंक में कॉस्ट कट्टिंग के बारे में लिखा और पेंशन के बारे में लिखा ,वोह यहां भी हर साल होता ही रहता है किओंकि कम्पीटीशन का दौर है , इसी लिए यहाँ unemployment बहुत बड गई है . मैंने ३५ वर्ष बस ड्राइवर की नौकरी की थी और मैं भी कुछ और लोगों के साथ early रिटायरमेंट २००० में ले ली थी ,जिस से मुझे बहुत फैदा हुआ , कई लोगों ने यह चांस मिस कर दिया और उन्हें भी पछताना पड़ा किओंकि पेंशन के साथ लंप सम भी अच्छा था जो बहुत लोगों ने गँवा दिया .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब. अगर भोजन में सब्जी, सलाद और फल पर्याप्त मात्र में हों तो कब्ज होने का प्रश्न ही नहीं है.
      बैंकों में कर्मचारियों की संख्या इस समय जरुरत से बहुत कम है, जिसके कारण हर व्यक्ति पर काम का बहुत लोड हो गया है. लेकिन खर्च कम रखने के लिए अधिक लोग भरती नहीं किये जाते. जो रिटायर होते हैं उनकी जगह भी मुश्किल से ही भरी जाती है. आपको धन्यवाद !

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        विजय भाई, आज कल प्रौफिट ही मकसद है, मेरी बड़ी लड़की पिंकी भी एक हाई सकूल में फाइनैंस कंट्रोलर है और कई महीनों से परेशान थी किओंकि वहां भी यही कॉस्ट कट्टिंग के लिए बहुत लोगों की छुटी होनी थी . किओंकि पिंकी बहुत हार्ड वर्कर है और बहुत गोरिओं की भी मदद करती थी ,इस लिए मैनेजमेंट को पता ही होता है कि कौन सा वर्कर मिहनती है . पिंकी को एक हफ्ते में ही ईमेल आ गिया था कि उस की पोस्ट पक्की है . आधी वर्क फ़ोर्स की छुटी कर दी गई जिस में ज़िआदा लोग गोरे ही थे.

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