कहानी

कहानी : एकलव्य

“अरे जोशीभाई, सुनिए तो सही !”
​मैंने बगल में बैठे साथी कर्मचारी जनकभाई के सामने प्रश्नार्थ सूचक दृष्टि से देखा ।
​“अपने कार्यालय में बडौदा से तब्दील होकर मिस शालिनी शाह आ रही है…”
​मैंने बीच में ही बात काटते हुए कहा – “तो क्या हुआ? आने दो ! आपको भी यार ऐसी ही बातें सुझती है?”
​मेरी उपेक्षा देखकर जनकभाई बोले – “यार जोशी, तू भी इस बात में रूचि ले ऐसा ऐसा तो मैं नहीं कहता किंतु मैं तो रस का आस्वाद ले सकूं न? सूना है कि माधुरी दीक्षित को भी पीछे छोड़ दे ऐसी है । गुलाब की पंखुड़ियों जैसे कोमल होंठ… आहा ! आधे नीबूं जैसी आँखें… !”
​“बस कर अब ! ये सभी नखरे बंद कर । वह अपनी बॉस है । वो सेक्शन ऑफिसर और हम उनके क्लर्क ! समझे, बैशाखनंदन और देख, ये गुलाब के फूल जैसी नहीं किंतु पटाखे जैसी है । उनकी आँखों से अमृत नहीं, खट्टापन टपकता है । इसलिए पीतल के बरतन जैसी तेरी खोपड़ी में जमी गाढ़ी हरी जंग को भी साफ़ कर डालेगी । जाओ अब, काम करो… मुझे लगता है कि तेरी बुआ को तेरा नाम जनक के बदले में मधुकर रखना चाहिए था ।”
​हमारे कार्यालय में जनक को सभी की मजाक उड़ाने की आदत थी । खुद खुशमिजाजी परन्तु चिकने धरातल पर कभी भी स्थिर नहीं रह सकता, इसलिए बारबार असलियत सामने आ जाती । मिस शालिनी शाह की खूबसूरती के बारे में मैंने पहले भी ज्यादा सुना था । मेरे एक मित्र वड़ोदरा में थे उन्हों ने ही मुझे फोन पर समाचार दिए थे कि तुम्हारी नई बॉस आ रही है । उनका नाम है मिस शालिनी शाह । पहले से मिली इस जानकारी को मैंने अपनी ऑफिस में किसी को भी नहीं दी थी । खामखाँ चर्चा का मुद्दा बनें कि आपको कैसे पता?
​आज मिस शालिनी शाह ने अपना पद संभाला । सीनियर क्लर्क होने के नाते उन्होंने मुझे ही सबसे पहले ऑफिस में बुलाया । मैंने चेंबर का दरवाज़ा खोलते ही पूछा; “मैं अंदर आ सकता हूँ?”
​“आइए।” मिस शालिनी की आवाज़ बड़ी मधुर थी परन्तु उसमें नर्मी जैसी कोई अनुभूति नहीं हुई । उन्होंने मेरे सामने देखने की भी परवाह नहीं की । मैं थोड़ी देर चुपचाप खड़ा रहा और मिस शालिनी शाह फाईलो में नज़र घूमाती रही । मैंने सोचा… जनक कहता था ऐसी ही खूबसूरती है । गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ…
​“बैठिए मिस्टर जोशी !” कहते मिस शालिनी ने मेरे सामने देखा । मैं उनकी आँखों से आँखें मिलाकर कुर्सी पर बैठ गया ।
​“आपको चोट तो नहीं आई?” मिस शालिनी ने पूछा ।
“नहीं, नहीं… “ मैंने कह तो दिया मगर सच बात यही थी कि कुर्सी पर बैठते समय मेरा पैर टेबल के पाये के साथ टकरा गया । एक पल तो सोचा कि कह दूं, इस चोट से ज्यादा तुम्हारी नज़रों ने मुझे घायल कर दिया है ।
ऑफिस के संदर्भ में बहुत कुछ बातें हुई । स्वभाव और बात करने के अंदाज़ से किसी देसी बुनियादी विद्यालय की मास्टरनी जैसी लगी । तरक्की के बाद उनमें जोश नज़र आता था। ऑफिस से जैसे ही मैं बाहर आकर अपनी कुर्सी में बैठा कि जनक दौड़ता हुआ मेरे पास आ गया ।
“क्या बोली मिस शालिनी शाह ? तनिक मेरे सवाल पर आप प्रकाश डालेंगे?”
मैंने जनक के सामने झूठा गुस्सा किया और वह मुस्कुराने लगा । मुँह में पान और होठों पे उंगली फेरने लगा । मैंने कहा; “अपनी नयी बॉस ने कहा है कि ऑफिस में धूम्रपान, पान-मसाला या गुटखा खाने पर सख्त प्रतिबन्ध लगा दो । मुझे ये सब बिलकुल पसंद नहीं है ।”
“काश ! ये बात मुझे बुलाकर अकेले में उसने कही होती तो… आह्ह्ह … इसी बहाने शालिनी की मदहोश सुगंध पाने का अमूल्य लाभ मुझे मिल जाता… “ जनक ने दर्दभरे स्वर में कहा और फिर आगे बोला; “यू आर लक्की मैंन माय डियर जोशी, तुम्हारी इम्प्रेशन ही एसी है कि हर कोइ तुमसे ही बात करना चाहता है । साहित्य का क्षेत्र तुम्हें हमेशा सहायक रहा है| यू आर रियली ग्रेट मैंन … ग्रेट !
तुम अपनी कुर्सी पर जाओ वर्ना उठाकर फैंक दूंगा । तुम हर किसी से मज़ाक में कहते हो मगर जब वो सुन लेगी कहीं के नहीं रहोगे । जाओ अब अपना काम करो ।”
“अब ठिकाने पे आ गए न? मैं तो चाहता हूँ कि मिस शालिनी शाह यही सबकुछ कर दें ऐसा मैं चाहता हूँ ।”
“अबे जनक ! अब तो हद्द हो रही है यार ! तेरा यह मज़ाक कभी भारी पड़ गया तो गए काम से… । तेरा मूड काम करने का नहीं लगता है रे… चलो चाय-कॉफ़ी पीने जाते हैं ।” बाद में उनके सामने आँख मारकर मैंने कहा; “बॉस की अनुमति लेकर आता हूँ ।”
मैं चैंबर में पूछने के लिए गया कि मैडम आप चाय पीयेंगी या कॉफ़ी ? मिस शालिनी ने कुछ पीने से ही इंकार कर दिया । बाद में मेरे आग्रहवश उन्हों ने हामीं भरते हुए कहा; “यहाँ मेरी चैंबर में ही मंगवा लो, हम सभी साथ साथ ही पियेंगे ।”
मैंने चैंबर से बाहर निकलकर देखा तो मेरी कुर्सी में जनक बैठा था ।
“अबे यार, खड़े हो जाओ । मिस शालिनी ने कहा है कि हमलोग उनकी ही चैंबर में ही चाय-कॉफ़ी पियेंगे, उनके साथ ! तुम्हें भी अवसर मिल गया ।”
“उसे यहाँ नौकरी करनी है इसलिए हम सभी के साथ अच्छा व्यवहार रखना ही होगा । आप लोगों से चाहें जैसा बर्ताव करें, इस जनक जादूगर से तो उसे सम्बन्ध अच्छे ही रखने होंगे ये वो भी जानती है श्रीमान जोशी । देखो, आपकी कुर्सी पर मैं आ जाऊं और आप मेरी कुर्सी पर चले जाएं ।”
“क्यों? तुझे भला ये क्या शरारत करने का मन…?” मैंने पूछा ।
“प्रिय जोशी जी,
ये आपकी कुर्सी में बैठने के बाद मैंने कुछ संशोधन किया । इस कुर्सी में बैठने से मिस शालिनी शाह की चैंबर के दरवाजे पे बीच में जो पारदर्शक कांच लगा है वो दिखाई देता है । और उसमें से मिस शालिनी भी । यहाँ से जो दीखता है वो किसीको भी नहीं दीखता है । आप तो है सिद्धांतों की गठरी । समझदार, ज़िम्मेदार और प्रतिष्ठित साहित्यकार भी । इसलिए आपके लिए मिस शालिनी शाह के सौन्दर्य को देखना भी पाप के सामान ही होगा । मैंने सही कहा न !” जनक ने व्यंग्य का तीर चलाया ।
“तू भी यार ! कुछ देर के लिए मेरी कुर्सी पर क्या बैठ गया और न जाने क्या क्या सोचने लगा । गज़ब का आदमी हो ।” मैंने कहा ।
हम सभी ने चैंबर में प्रवेश किया । उस वक्त चाय-कॉफ़ी के साथ हँसी-मजाक भी शुरू हो गया ।
मिस शालिनी ने ही कहा; “मिस्टर जोशी, आप तो बहूत अच्छे साहित्यकार हैं ।”
“मेरी तरह?” मिस शालिनी ने चेहरा तंग करके कहा; “जनक भाई, शायद हम पहली ही बार मिल रहे है न?”
“जी, मगर मेरे कहने का मतलब था कि डॉ. पटेल की भान्ति आप भी बहु आयामी व्यक्तित्व की धनी बनोगी । ये जोशी जी आपके बारे में कहानी या आलेख लिखेगा । इन्हों ने डॉ. पटेल और उनके छात्र महेन्द्र शुक्ल के बारे में पहले लिखा भी है ।”
“मुझे वड़ोदरा के एक मित्र ने श्रीमान जोशी जी के बारे में बताया था । बहुत अच्छे इंसान है इतना तो मैं जानती हूँ ।” शालिनी ने कहा ।
“जनक भाई को तो हमेशा मज़ाक करने की आदत है । अब हमें इजाज़त दीजिए ।” कहते ही मैं उठ खड़ा हो गया । सभी मेरे पीछे पीछे चल दिए ।
आज मिस शालिनी को इस ऑफिस में आए एक सप्ताह हो गया । जनक जादूगर अपने कार्य में कुशल था । वित्त विभागीय कार्य में उनका कोई सानी नहीं था । मिस शालिनी ने एकबार मुझे कहा भी था, जनक भाई अपने कार्य में कुशल है । ऑफिस के सभी कार्यों के बारे में शालिनी मुझसे ही सलाह-मशविरा करती थी । जनक हमेशा मेरे पास भड़ास निकालता कि ये तुम्हारे साथ इतनी नर्म क्यों? दूसरों के लिए तो ‘बॉस’ ही है ।
“यार जोशी ! मिस शालिनी यहाँ पर आई इससे पहले ही मैं उनके पीछे पागल था । फिर भी बात नहीं बन पाई थी । तुम तो जलेबी जैसा हो गया?”
“देखो भाई जनक, मेरे मन में ऐसा कुछ भी तो नहीं है । मेरा एक मित्र है वड़ोदरा में… उसी का सन्दर्भ लिए वो मुझसे अच्छा व्यवहार करती है । फिर भी मैं खुद उन्हें कहूँगा कि आप जनक को ही चैंबर में बुलाकर चर्चा करें । मुझे भी राहत मिलेगी ।” मैंने कहा ।
“नहीं यार ! तुमने तो मेरे मज़ाक का गलत अर्थ निकाला ।” जनक ने अफसोस जताया।
“सुनो, ये तो नई नई आई है और हमारी दोस्ती पुरानी है । मेरे लिए तो मेरा जनक जादूगर है । तुम अपने प्रयत्न करते रहो । बेस्ट ऑफ़ लक ।”
एक दिन जनक ने आते ही मुझे कहा; “मिस्टर जोशी, आपको ‘बॉस’ बुला रहे हैं, जल्दी जाइए ।”
मैं व्यंग्य समझ गया था । मैं जैसे जाने के लिए खड़ा हुआ तो वो बोला; “यार, तेरे साथ बॉस विनम्रता से बात करती है । सही कहा न?”
“ओये जादूगर ! मुझे ऐसी बातें अंदरूनी तौर पर अच्छी नहीं लगती ये जानता है न तू? पटेल साहब थे वही ठीक था । ऐसी पटाखे जैसी बॉस आने से पूरे ऑफिस का माहौल ही बदल जाता है ।”
उसी वक्त फिर एक बार प्यून ने आकर कहा; ” बॉस बुला रहे है.. तुरंत…” और मैं चैंबर की ओर धंस गया ।
“मिस्टर जोशी, शाम को ये चार फ़ाईल लेकर मेरे घर आना होगा । मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है, मैं घर जा रही हूँ । घर पे ही हस्ताक्षर कर दूंगी और सुनिए, भूलना नहीं । कल गांधीनगर मीटिंग भी है । आपको भी साथ आना पड़ेगा ।”
मैंने कहा; “मगर… ”
“मगर बाद में… शाम को घर पे आकर कहियेगा… ” कहते हुए शालिनी ऑफिस से बाहर नीकल गई ।
मैं फाईलें उठाकर अपने टेबल के पास पहुंचा । तुरंत जनक ने व्यंग्य में कहा; “ज्यादा गर्मी लग गई क्या?”
टेबल पड़ा पेपरवेट उठाकर मैंने जनक को दे मारा और उनके पीछे रहे दरवाजे के साथ टकराकर नीचे गिरा । जनक चुप हो गया । वह मेरा स्वभाव जानता है फिर भी वह दिल से दोस्ती को निभाता भी है ।
शाम को घर आने के बाद मुझे इसी बात को लेकर पश्चाताप भी हुआ । किसी को जब हमारे लिए सम्मान हो तो क्या हमें उन्हें इस तरह मारना चाहिए? किसने दिया ये अधिकार? शाम के साढ़े छ बज चुके थे । मुझे शीघ्र ही मिस शालिनी के घर पहुँचना था । फाईल भी मेरे पास थी । करूँ भी क्या… ये मजबूरी ।
मैंने फाईलें स्कूटर की डिकी में ठूंस दी । एपोलो पान सेन्टर से गुज़र रहा था कि अचानक जनक की आवाज़ सुनाई दी; “ए जोशीभाई…. ”
जनक मेरा पान लेकर नज़दीक आया । उस वक्त उसका स्मित गज़ब का था । मुझे भी उसका मज़ाक उड़ाने का मन हुआ ।
“मैं तुमसे दूर जाने की कोशिश करता हूँ और तू है कि कहीं से भी सामने आकर खड़ा हो जाता है । पता नहीं तेरी दोस्ती में कौन सा जादू है?”
“यार जोशी, मेरा नाम ही जनक जादूगर है । भूल गए क्या?” आँख मारते हुए धीरे से बोला; “मिस शालिनी के घर जा रहे है न जनाब?”
“जनक, एक बात कहूं?” मैंने उसे पूछा ।
“अरे भाई, इतनी गंभीर मुखमुद्रा के साथ क्या पूछना है? जो कहना है, कह दो ।” जनक भाई ने जोश में आकर कहा । “तुमने मुझ पे पेपर वेट से प्रहार किया था इसलिए दुखी हो न? मैं भी जादूगर हूँ, मैंने तो तुरंत उस बात को भूलकर छूटकारा पा लिया था और तुम बोझ लेकर घूम रहे हो ।”
जनक आदमी ही विचित्र है साल्ला ! कब क्या कहेगा ये अंदाज़ा लगाना ही मुश्किल । मैंने उसे कहा; “मुझे सच में उस बात का दुःख है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था ।”
“किस बात का दुःख है, तुम प्रहार चुक गए उसी का दुःख? घड़ी देख मेरे यार ! रात के आठ बज गए है । अकेली महिला के घर देर रात को नहीं जाते । जाओ जल्दी से…” जनक की बात भी सच थी । मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और निकल पड़ा ।
शालिनी के घर में प्रवेश करते ही मैं सोफा पर बैठ गया । उन्हों ने फाईलों के कागज़ात पर हस्ताक्षर कर दिए । थोड़े कागज़ात लिखने में ही रात के ग्यारह बज गए थे ।
जोशी जी, सुबह सात बजे मेरे घर समय पर आ जाना । कल आपको भी गांधीनगर आना होगा । आप आज ऑफिस में कुछ कह रहे थे और मैं निकल गई ।” शालिनी ने कहा ।
“मेडम, आप से एक बिनती है, गांधीनगर आना मेरे लिए अनिवार्य न हो तो…” शालिनी मेरे सामने देखती ही रह गई । मैंने आगे कहा; “आप बुरा न मानें तो जनक भाई को आपके साथ भेजने की व्यवस्था करूँ ।”
“जोशी जी, आपको नहीं आना है तो किसी ओर की मुझे जरुरत ही नहीं । फिर भी आपको कोई अनिवार्य काम है तो मैं कुछ नहीं कहूंगी ।”
मैं चुप रहा । आखिर उन्हों ने ही कहा; “घर जाने से पहले जनक भाई को खबर देते जाना । सुबह सात बजे पहुँच जाएं ।”
मैंने “हाँ” कह दी और बाहर निकल गया ।
*​​*​​*
आज जनक और शालिनी ऑफिस में नहीं थे । मगर किसी व्यक्ति के साथ मेरे नाम एक चिट्ठी भेज दी थी । शालिनी तो बॉस थी, उसे कौन पूछता? मैंने उनकी चिट्ठी पढी;
प्रिय मित्र जोशी,
​मिस शालिनी को मैं बहुत चाहता हूँ । उन्हें पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ । गांधीनगर जाते समय कार में हमदोनों के बीच बहुत सारी बातें हुई । तू मेरा निकटम मित्र है फिर भी तुमने मुझसे यह बात छुपाई कि तुम्हारी शादी शालिनी से हुई थी और डिवोर्स भी । इस बात को सुनकर मेरा सर चकरा गया था । तुम दोनों ने पहले ही गुपचुप शादी कर ली थी और मुझे पता भी न था ! मैंने उनके बारे में न जाने तुम्हें क्या क्या कह दिया था । कैसी कैसी बातें की थी । फिर भी तू मौन रहकर सिर्फ सुनता ही रहा । तुम्हारा खून खौलना चाहिए था । उसने हमेशा अपने नाम के साथ अपने पिताजी का ही नाम रखा था । तुमने तो मुझे ‘मिस शालिनी शाह’ के नाम से परिचय दिया था । अब तुम ही बताओ कि मेरे सच्चे दोस्त हो क्या?”
तुम्हारा,
जनक जादूगर
मुझे पसीना बहने लगा । मैं स्कूटर लेकर शालिनी के घर की ओर चल पड़ा । शालिनी ने यह क्या कर दिया? उनके घर का दरवाज़ा अध् खुला था । अंदर प्रवेश करते ही शालिनी और जनक एक ही सोफा पर बैठे हुए ठहाके लगा रहे थे । मैं भौंचक्का सा उन दोनों को देखता रहा ।
“आईये मिस्टर जोशी, आईए ।” शालिनी ने कहा ।
“जनक ! तुम यहाँ और ये तुम्हारी चिट्ठी…?” मैंने प्रश्नों की बौछार बरपाई । “साल्ला… क्या है ये सब ?”
जनक बिलकुल चुप था । वो खड़े होकर मेरे नज़दीक आया और मेरे कॉलर को पकड़ लिया । वो गुस्से में था ।
मैंने उसे कहा; “जनक, देखो तो… तुम क्या कर रहे हो ये जानते हो?”
अचानक ही जनक में मुझे गले लगा लिया । और फिर धीरे से मेरे कान में कहने लगा; “यार जोशी ! मैंने तुम्हें कहा था न? मैं शालिनी को अपनी बनाने के लिए कुछ भी करूँगा । गांधीनगर में मीटिंग नहीं थी मगर मैं और शालिनी अहमदाबाद गए थे । वहीं पर कोर्ट से हमने शादी भी कर ली । आई एम रियली सॉरी ! तुम्हें अपनी शादी में लेके नहीं गया ।”
“वाह दोस्त ! तूने भी गज़ब का खेल खेला है । अब मैं तुम्हें शुभकामनाओं के अलावा क्या दूं?”
“मिस शालिनी… ऑह सॉरी ! मिसेज़ शालिनी, हमें थोडा पानी मिलेगा?” मैंने कहा ।
“अरे यार ! मुँह मीठा कर” बाद में मेरे कंधे पर हाथ रखकर जनक बोला; दोस्त ! मेरे तरकश के तीर कभी खाली नहीं जाते, समझ गया न !”
* * *
​दूसरे दिन रेलवे स्टेशन से मैंने एक पत्र जनक जादूगर के नाम पोस्ट किया । मैंने लिखा था;
प्रिय जादूगर,
यार ! तेरा जादू शालिनी पर वाकई छा गया । तुम्हारा जीवन सुखमय गुज़रे यही मेरी दिल से दुआ है । तुझे गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन बनाया है, मगर तुम मुझे भी पहचान नहीं सके |
मैं एकलव्य हूँ ।
सवाल सिर्फ इतना ही है कि मैंने द्रोणाचार्य के चरणों में मेरा अंगूठा धर दिया था, यह बात कैसे भूल गए ?”
तुम्हारा यार,
जोशी ।

पंकज त्रिवेदी

जन्म- 11 मार्च 1963 पत्रकारिता- बी.ए. (हिन्दी साहित्य), बी.एड. और एडवांस प्रोग्राम इन जर्नलिज्म एंड मॉस कम्यूनिकेशन (हिन्दी) –भोपाल से साहित्य क्षेत्र- संपादक : विश्वगाथा (त्रैमासिक मुद्रित पत्रिका) लेखन- कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, रेखाचित्र, उपन्यास । पत्रकारिता- राजस्थान पत्रिका । अभिरुचि- पठन, फोटोग्राफी, प्रवास, साहित्यिक-शिक्षा और सामाजिक कार्य । प्रकाशित पुस्तकों की सूचि - 1982- संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन)-गुजराती 1996- भीष्म साहनी की श्रेष्ठ कहानियाँ- का- हिंदी से गुजराती अनुवाद 1998- अगनपथ (लघुउपन्यास)-हिंदी 1998- आगिया (जुगनू) (रेखाचित्र संग्रह)-गुजराती 2002- दस्तख़त (सूक्तियाँ)-गुजराती 2004- माछलीघरमां मानवी (कहानी संग्रह)-गुजराती 2005- झाकळना बूँद (ओस के बूँद) (लघुकथा संपादन)-गुजराती 2007- अगनपथ (हिंदी लघुउपन्यास) हिंदी से गुजराती अनुवाद 2007- सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली उषा मेहता, अमेरिकन साहित्यकार नोर्मन मेईलर और हिन्दी साहित्यकार भीष्म साहनी की मुलाक़ातों पर आधारित संग्रह) तथा मर्मवेध (निबंध संग्रह) - आदि रचनाएँ गुजराती में। 2008- मर्मवेध (निबंध संग्रह)-गुजराती 2010- झरोखा (निबंध संग्रह)-हिन्दी 2012- घूघू, बुलबुल और हम (હોલો, બુલબુલ અને આપણે) (निबंध संग्रह)-गुजराती 2014- हाँ ! तुम जरूर आओगी (कविता संग्रह) प्रसारण- आकाशवाणी में 1982 से निरंतर कहानियों का प्रसारण । दस्तावेजी फिल्म : 1994 गुजराती के जानेमाने कविश्री मीनपियासी के जीवन-कवन पर फ़िल्माई गई दस्तावेज़ी फ़िल्म का लेखन। निर्माण- दूरदर्शन केंद्र- राजकोट प्रसारण- राजकोट, अहमदाबाद और दिल्ली दूरदर्शन से कई बार प्रसारण। स्तम्भ - लेखन- टाइम्स ऑफ इंडिया (गुजराती), जयहिंद, जनसत्ता, गुजरात टुडे, गुजरातमित्र, फूलछाब (दैनिक)- राजकोटः मर्मवेध (चिंतनात्मक निबंध), गुजरातमित्र (दैनिक)-सूरतः गुजरातमित्र (माछलीघर -कहानियाँ) सम्मान – (१) हिन्दी निबंध संग्रह – झरोखा को हिन्दी साहित्य अकादमी के द्वारा 2010 का पुरस्कार (२) सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मेलन में तत्कालीन विज्ञान-टेक्नोलॉजी मंत्री श्री बच्ची सिंह राऊत के द्वारा सम्मान। संपर्क- पंकज त्रिवेदी "ॐ", गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फ़ीट रोड, सुरेन्द्र नगर, गुजरात - 363002 मोबाईल : 096625-14007 vishwagatha@gmail.com