आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 19)

बच्चों की पढ़ाई

ईश्वर की कृपा से हमारे दोनों बच्चे पढ़ने में बहुत तेज रहे हैं। दीपांक कक्षा 2 से लेकर कक्षा 5 तक लगभग हर साल ही अपनी कक्षा में प्रथम या द्वितीय रहा। इसलिए उसे हर साल एक या दो मैडल मिला करते थे। केवल एक बार जब वह कक्षा 4 में था और प्रथम तीन बच्चों में नहीं आ पाया, तो उसे विद्यालय का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी मानकर एक मैडल दिया गया था। इसी प्रकार आस्था (मोना) भी प्रारम्भ से ही अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम रही। कक्षा शिशु से लेकर कक्षा 5 तक वह हर साल ही प्रथम आयी और केवल एक बार द्वितीय रही थी। उसको भी हर साल मैडल, कप आदि मिला करते थे। किसी-किसी वर्ष तो उसे दो-दो मैडल मिले। वे पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों जैसे सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता, दौड़ आदि में भी जीता करते थे।

जब वर्ष के अन्त में परिणामों की घोषणा होती थी और बच्चों को मैडल दिये जाते थे, तो उस कार्यक्रम में हम भी शामिल होते थे और हमें बहुत गर्व की अनुभूति होती थी। बच्चों द्वारा लाये गये ऐसे मैडलों की एक अच्छी-खासी संख्या हमारे पास एकत्र हो गयी है, जो एक शो केस में रखी हुई है। इनमें कुछ कप आदि मेरे भी हैं, लेकिन ज्यादातर बच्चों के हैं और हर साल ही इनकी संख्या में वृद्धि होती रहती है। कई मैडल तो इतने बड़े हैं कि शो केस में नहीं आ पाते, इसलिए उन्हें अलग रखना पड़ता है।

स्वरूप नगर शाखा में आग

हमारा कानपुर मण्डलीय कार्यालय जिस भवन में प्रथम तल पर चलता था, उसी में नीचे भूमि तल पर हमारे बैंक की स्वरूप नगर शाखा चलती है। वह शाखा पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत है और उसके पुराने ग्राहकों की एक बड़ी संख्या है। यों तो कम्प्यूटरीकृत शाखाओं में बैकअप लेने की पूरी व्यवस्था होती है और स्वरूप नगर शाखा में भी बैकअप लिया जाता था, परन्तु वह बैकअप कभी टैस्ट नहीं किया गया था कि सही आ रहा है या नहीं। इसकी जिम्मेदारी यों तो साॅफ्टवेयर कम्पनी की होती है, परन्तु टीसीएस वाले इस मामले में बहुत ही लापरवाह थे और बिना कानपुर आये लखनऊ में बैठकर ही सारा कार्य करना चाहते थे। जाहिर है कि बैकअप पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था और कोई दुर्घटना होने की स्थिति में हम मुसीबत में फँस सकते थे। मण्डल में आई.टी. (कम्प्यूटर) विभाग का प्रमुख होने के नाते इसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर भी आती थी। पर हम कुछ कर नहीं सकते थे और सब कुछ राम-भरोसे चल रहा था। अन्य शाखाओं में भी स्थिति अलग नहीं थी।

2001 में एक दिन वही हो गया, जिसकी आशंका थी। किसी की लापरवाही से या शायद शाॅर्ट सर्किट से स्वरूप नगर शाखा के पीछे वाले रिकाॅर्ड रूम में आग लग गयी। पहले आग बुझाने की साधारण कोशिशें की गयीं। परन्तु वहाँ कागजों का ढेर होने के कारण आग बढ़ती गयी। धुँआ ऊपर पहुँचा, तो हमें पता चला। आग की जानकारी होते ही हमें सबसे पहले सर्वर बचाने की चिन्ता हुई, क्योंकि रिकाॅर्ड रूम के बगल वाले कमरे में ही सर्वर रखा हुआ था।

हम फौरन दौड़कर नीचे आये। सर्वर रूम और उसके आसपास धुँआ भरा हुआ था। मुँह और नाक पर रूमाल बाँधकर मैं, श्री के.सी. श्रीवास्तव और एक अन्य अधिकारी सर्वर रूम में घुस गये। मैंने जल्दी से उसके सारे केबल निकाल दिये। यहाँ मेरी फुर्ती बहुत काम आयी। फिर हम तीनों मिलकर सर्वर को उठा लाये। इस काम में मुश्किल से 2 मिनट का समय लगा होगा। बाहर आते-आते हमारी साँस घुटती जा रही थी। अगर एक आध मिनट और लग जाता, तो हम वहीं बेहोश भी हो सकते थे। सर्वर बाहर लाकर हमारी जान में जान आयी। हार्डवेयर इंजीनियर श्री सर्वेश कुमार वर्मा ने उसकी जाँच की, तो पता चला कि केवल बाहरी टेप ड्राइव और फ्लाॅपी ड्राइव खराब हुए हैं तथा हार्ड डिस्क ड्राइव और उसके भीतर का सारा डाटा सुरक्षित है। यह पता चलने पर हमने संतोष की साँस ली, क्योंकि शाखा में बैकअप की स्थिति वास्तव में गड़बड़ थी।

शाखा की आग बढ़ती गयी, तो फायर ब्रिगेड ने आकर कई घंटे में आग पर काबू पाया। रिकाॅर्ड रूम के पास में ही लाॅकर रूम भी था। आग की खबर फैलते ही बैंक के ग्राहक आकर चिन्ता करने लगे कि उनके लाॅकरों में रखा कीमती सामान तो नष्ट नहीं हो गया। कई महिलायें तो बैंक के सामने आकर रोने लगीं। सौभाग्य से किसी ग्राहक का कोई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन बैंक के बहुत से रिकाॅर्ड जल गये। फिर भी सर्वर बच जाने के कारण शाखा के कार्य की हानि नहीं हुई। अगले दिन ही सर्वर हमारे कमरे में रखकर लेन-देन का काम चालू करा दिया गया।

खजुराहो यात्रा

खजुराहो का विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कानपुर से केवल 4 घंटे के रास्ते पर है। हम बहुत दिनों से वहाँ जाने के इच्छुक थे, परन्तु कभी मौका नहीं मिला था। अक्टूबर 2002 में अचानक हमारा विचार वहाँ जाने का बन गया। मौसम भी अच्छा था, न ठंड, न गर्मी। हमारे मकान मालिक के पुत्र श्री अनिल कुमार सिंह और पुत्रवधू डा. रेणु सिंह भी वहाँ चलने को तैयार हो गये। उस समय वे घरेलू समस्याओं के कारण मानसिक दृष्टि से परेशान से थे। मैंने कहा कि घूमने जाने से दिमाग को बहुत शान्ति मिलेगी। अतः वे चलने को मान गये। विचार बना कि सब उनकी कार से चलेंगे और पेट्रोल का खर्च बराबर-बराबर बाँट लेंगे।

निश्चित दिन पर हम सुबह ही निकल पड़े। हमने अपने पुत्र दीपांक को वहीं छोड़ दिया, क्योंकि वह बड़ा हो गया था। मोना को हमने साथ ही रखा। इसी तरह अनिल जी ने भी अपनी पुत्री कृतिका को साथ ले लिया, जो बहुत छोटी थी। हमीरपुर और महोबा होते हुए दोपहर तक हम खजुराहो पहुँच गये। उस समय घूमने का सीजन नहीं था, क्योंकि विदेशी पर्यटक ज्यादातर जाड़ों में आते हैं। इसलिए वहाँ भीड़-भाड़ नहीं थी। हमें सरलता से एक होटल मिल गया।

खाना खाकर पहले दिन हम प्रमुख मंदिरों को देखने गये। वैसे तो वहाँ गाइड भी मिलते हैं, पर मैंने अपनी सुविधा के लिए खजुराहो के मन्दिरों के बारे में एक पुस्तिका खरीद ली। उसमें बहुत अच्छी जानकारी थी और एक नक्शा भी था। उसकी सहायता से हम वहाँ के लगभग सभी मन्दिरों को देख आये। खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मन्दिर आठवीं शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक उस समय के प्रतिष्ठित राजवंश चन्देल के राजाओं ने बनवाये थे, जो बहुत कलाप्रेमी थे। मन्दिरों की मूल संख्या 108 बतायी जाती है, परन्तु अब केवल 28 मिलते हैं। शेष काल के गाल में समा चुके हैं। इन 28 मन्दिरों में से भी कई खंडहर जैसी स्थिति में हैं, लेकिन कई बहुत अच्छी हालत में भी हैं। केवल एक मन्दिर में पूजा अर्चना होती है। शेष केवल पर्यटन के लिए हैं। इनमें कई जैन मन्दिर भी हैं।

इन मन्दिरों की प्रसिद्धि का कारण यह है कि उनकी बाहरी दीवारों पर कामक्रीड़ारत युगलों अथवा शृंगार करने में लगी युवतियों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। ऐसी आकृतियाँ हमने कोणार्क के सूर्य मन्दिर की दीवारों पर और रणकपुर (राजस्थान) में जैन मन्दिरों की दीवारों पर भी देखी हैं, लेकिन यहाँ उनकी बहुतायत है। सभी लोग इन मूर्तियों को देखने आते हैं, लेकिन अधिकांश लोग उनका रहस्य नहीं समझते। केवल कामक्रीड़ा की मूर्तियों को देखकर चले जाते हैं। लेकिन मैंने जो पुस्तिका खरीदी थी, उसको पढ़ने के साथ-साथ मैंने उन मुद्राओं को फिर से ध्यानपूर्वक देखा, तो पता चला कि प्रत्येक मुद्रा में कोई न कोई विशेष बात है और कई तो घोर रहस्यात्मक हैं। मुझे लगा कि इनको ठीक से देखने के लिए एक सप्ताह का समय भी कम है, जबकि हम केवल दो दिन के लिए आये थे।

मन्दिरों को देखते हुए हमें पता चला कि शाम को यहाँ इन मन्दिरों पर आधारित दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम होता है। हमने उसके लिए टिकटें खरीद लीं और रात्रि को भोजन करके कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले ही आ गये। वह कार्यक्रम बहुत अच्छा था। इसके बाद हम सो गये।

यहाँ यह बता दूँ कि खजुराहो वास्तव में केवल एक गाँव है। केवल इन मन्दिरों की वजह से कस्बा जैसा लगता है। एक छोटा सा मार्केट भी है, परन्तु वहाँ सभी कलात्मक चीजें बहुत मँहगी हैं, जैसा कि पर्यटन स्थलों पर स्वाभाविक है। वहाँ एक बात मैंने नोट की कि वहाँ पर इटालियन भोजन वाले रेस्टोरेंट और होटल बहुत हैं। इसका कारण मेरी समझ में यह आया कि वहाँ इटली के पर्यटक सबसे अधिक आते हैं। वैसे वहाँ सभी यूरोपीय देशों के पर्यटक आते हैं। वहाँ एक पंचतारा होटल और हवाई अड्डा भी है।

अगले दिन प्रातः जब पत्नी जी और बच्चे सोये हुए थे, मैं अकेला ही मन्दिरों को फिर से देखने निकल पड़ा। पुस्तक को बार-बार पढ़कर मैंने कई मन्दिरों की विभिन्न मूर्तियों को समझने का प्रयास किया। देखकर बहुत आश्चर्यचकित होता था कि इन मामूली मूर्तियों में इतने रहस्य छिपे हुए हैं। थोड़ी देर बाद बाकी लोग भी आ गये। मैंने श्रीमतीजी को कुछ मूर्तियों का रहस्य बताया, तो उन्हें भी बहुत आश्चर्य हुआ।

दोपहर को भोजन से थोड़ा पहले हम वहाँ पास में ही रानेह नामक स्थान में एक बाँध और झरना देखने गये। वह झरना बहुत ऊँचाई से गिरता है, लेकिन दूर से देखना पड़ता है। उसके पास जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि बहुत बड़ी खाई है। वहाँ का बाँध साधारण ही है। वैसे वह सारा स्थान जंगलों से घिरा हुआ है और काफी हरा-भरा भी है। देखकर हमें बड़ा आनन्द आया।

दोपहर को भोजन के थोड़ी देर बाद ही हम होटल का कमरा खाली करके कानपुर की ओर चल दिये और अँधेरा होने तक आराम से घर पहुँच गये।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 19)

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। बच्चो की योग्यता व बौद्धिक क्षमता जानकार प्रसन्नता हुई। खजुराहो कभी जाना नहीं हुआ। भुवनेश्वर का कोणार्क मंदिर देखा है। मंदिर की भव्यता से अभिभूत हुआ था। आपने बैंक में आग लगने पर जान जोखिम में डालकर सर्वर को सुरक्षित बचा लिया, यह आपका प्रशंसनीय कार्य था। आज की किश्त के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम मान्यवर, बच्चे भी प्रभु की कृपा हैं. बड़ों का आशीर्वाद भी एक बड़ा कारण है. बैंक के सर्वर को बचाना मैं बैंक के लिए किये गए अपने कार्यों में से बहुत महत्वपूर्ण कार्यों में गिनता हूँ. अगर सर्वर नष्ट हो गया होता तो बैंक को बहुत आर्थिक हानि होती और साख को भी चोट लगती.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद श्री विजयजी। अपने कार्यालय, समाज व देश के प्रति आप जैसी भावना व कर्तव्य के प्रति समर्पण का भाव सभी लोगो का होना चाहिए। आपका यह गुण अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है। सादर।

        • विजय कुमार सिंघल

          आपके उद्गारों के लिए आभारी हूँ.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज की किश्त भी बहुत ही अच्छी लगी .आप के बच्चों की योग्यता पड़ कर बहुत अच्छा लगा ,योग्य हों भी कियों ना,जीन तो आप से ही आये हैं . जो खजुराहो की यात्रा का लिखा बहुत अच्छा लगा .मेरी भी बहुत देर से खाह्श थी ,इन मंदिरों को देखने की . इन्तार्नैत पर देखता हूँ लेकिन जो इन मुर्तिओं का रहस्य है वोह तो किसी किताब को पड़ कर ही लग सकता है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब ! योग्य बच्चे भी प्रभु की देन हैं. वैसे हम सभी भाई बहिनों के सभी बच्चे बहुत बहुत योग्य हैं. यह भी प्रभु की कृपा ही है.
      खजुराहो की मूर्तियों का पूरा रहस्य उनको देखकर और किताब पढ़कर ही समझ में आ सकता है. इनका आध्यात्मिक महत्त्व भी है. तभी तो मंदिरों के चारों ओर ऐसी मूर्तियाँ बनायी गयी हैं.

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