आत्मकथा

स्मृति के पंख – 44

फिर केवल के रिश्ते के लिए एक सज्जन मिले श्री फकीरचन्द जी, जिनकी बहन की लड़की के बारे वह केवल का रिश्ता कराने की बातें कहते थे। उनकी बहन जबलपुर की थी। फकीर चन्द का जीजा और वह खुद दोनों हमारे घर आए। केवल को भी दोनों ने देख लिया था। अब हमने लड़की को देखना था। मै देवास लिख दिया कि जबलपुर जाकर ये काम कर आओ। वहाँ कमलेश और सुभाष दोनों गये जवाब में उन्होंने लिख दिया कि लड़की सांवली है और हमारे ख्याल से केवल के साथ मेल नहीं खाती। तो मैंने फकीरचन्दजी को ना कर दिया लेकिन इस सिलसिले में फकीरचन्द जी मुझे कई दफा मिल लेते थे। उनकी ख्वाहिश जब पूरी न हुई, तो उनका मायूस होना कुदरती था। बाद में उन्होंने कहा कि मेरी अपनी लड़की है, उसे आप देख लो। अगर ईश्वर को मंजूर हो और संजोग हुआ तो ठीक वरना कोई बात नहीं और मैंने हां कह दी। तारीख तय होने पर लडकी को मन्दिर या बाग में देखने का निश्चित किया।मैं खुद भी श्री फकीरचन्द जी की इस बात से खफा था कि वो अपनी लड़की के बारे हिचकिचा कर कह रहे थे। दूसरा, उसकी जेब की माली हालत अच्छी थी और उनकी लड़की साधारण थी, हालांकि मेरे दिल में ऐसी कोई बात न थी, लेकिन शायद उन्हें ऐसा लगता था। और मन्दिर में लड़की को देखने के बाद, मैंने उन्हें हां कह दी। इस तरह केवल की मंगनी हो गई।

राकेश के बारे में तो बेफ़िक्री थी, उसके मां बाप और भाभियों की मंजूरी भी मिल गई थी। ऊषा बेटी को हमने अपने घर में बच्चों की तरह देख-भाल भी कर ली थी, पूज्य माताजी को तो पता था वो हमारे घर ही थी। उन दिनों भ्राता जी से भी मैंने मंजूरी ले ली थी। मुझे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि कम से कम मेरे एक लड़के ने अपनी पसन्द की लड़की को हासिल कर लिया था, जैसा मैं नहीं कर सका।

मेरे दोहतों (गुड्डी (कमलेश) के लड़कों) के मुंडन थे। जैसा कि रिवाज होता है हमने दोनों के लिए खुद कपड़े खरीदे थे। साथ में श्याम के भाई का एक लड़का था उसका भी मुंडन था। उसके भी कपड़े हमने शगुन पर अपने दोहतों जैसे ही दिये। इन खर्चों पर मुझे अच्छा लगता है, बच्चे तो सब बराबर होते हैं। आम तौर पर लड़कियाँ तो मुझे देवी मां लगती हैं। इसी तरह गुड्डी की देवरानी भी मुझे अच्छी लगती थी, लेकिन ईश्वर जाने कैसी थी वो लड़की या क्या विचार उसके मन में आए। कुछ पगलाना हरकतें करने लगी और कुछ गलत किस्म की बकवास हमारे खिलाफ करती थी मेरी बीबी और बेटी का नाम लेकर कि उन्होंने मेरे ऊपर कुछ टोना कर दिया है। हांलाकि वो सब कारोबार भी अलग करवा चुकी थी और मकान में भी मेरी बेटी अलग हो चुकी थी। जिन बातों के बारे में जैसे किसी जासूसी नावल में पढ़ा था, भूत-प्रेत वही किस्से हमारे बारे में वह लड़की सुनाने लगी।

मुझे तो सुनकर हैरानी हुई, लेकिन बीबी और बेटी को कौन संभाले वो काफी परेशान थी। मैं उन्हें तसल्ली देता- देखो सब ठीक हो जायेगा। वक्त की बात है। सारी उम्र ऐसी बकवास वो नहीं कर सकती और फिर तुमको क्या अन्तर पड़ता है? क्या तुममें कुछ कमी है? अगर कमी नहीं है तो कहने दो, उसको खुद थक कर चुप हो जायेगी और फिर मैंने श्री धूमचन्द जी को मिलने का प्रोग्राम बनाया। अपने ससुराल में उन्हें बुलवाया और उनसे बातचीत की कि ऐसी बातों से दोनों घरों की बदनामी होती है। तुम बुजुर्ग और समझदार हो। वो हमारे खिलाफ ऐसा क्यों बोलती हैं? जबकि तुम उसे जवाब दे सकते हो या क्या तुम भी ऐसा समझते हो कि हम लोग कोई गलत काम करते हैं। मुझे ख्याल था वो कितनी बच्ची है या नासमझ है, समझ जायेगी। तुम्हारे बारे में ऐसे गलत विचार तो हमारे मन में नहीं आ सकते। उन्होंने कहा कि तुम तो कुछ नहीं बोलते, वो बोलती है और मैंने कहा- जिसे तुम सच समझते हो, एक पागल लड़की या पागल बनने का पार्ट करने वाली लड़की तो सही है और मैं तेरे बैठा हूँ, झूठ बोल रहा हूँ? मुझे उनके जवाब से बहुत मायूसी हुई।

खैर, अब बेटी सुमन ही के लिए रिश्ते की तलाश जारी थी। देहली में एक सज्जन थे पंडित हेमराज जी, वे मुझे फरीदाबाद में मिले। पं0 जी अक्सर फरीदाबाद जाते थे। हम से मुलाकात होने पर हमारे से भी उन्हें प्रेम हो गया या कहूँ कि वो बादल गढ़ी के रहने वाले थे। सतसंगी और नेक इन्सान थे। उन्होंने ही फरीदाबाद आने को कहा था मैं वहाँ उन्हें मिला। दो चार घर उन्होंने बताए भी, लड़के भी देखे, मुझे पसन्द न आए। केवल की भी अभी मंगनी नहीं हुई थी। लड़कियाँ भी देखीं, मगर कुछ बात न बनी। जब मैं वापस आने लगा तो उन्होंने कहा एक घर और देख लो। अच्छा घर है, तुम्हारी आदत के मुताबिक नेक और अच्छा खानदान है। बजाजी का कारोबार है लड़का तालीमयाफ्ता है। पिता के साथ दुकान पर काम करता है, कद काठी और उम्र भी ठीक है, लेकिन है जरा दूर, इसलिए मैंने नहीं बताया था। मैंने कहा हां आप बताओ, तो उन्होंने खंडवा का पता वगैरा लिख दिया। मैंने उन्हें बताया कि मेरे लड़के उधार ही देवास में ही हैं उनको लिखूँगा। उनका जवाब आने पर फिर आपके दर्शन करूँगा और मैंने रमेश को देवास खत लिखा कि खंडवा जाकर उन लोगों की देख भाल कर जवाब दो। सुभाष को दुकान सब्जी मंडी में काम के बारे में मैंने कभी नहीं कहा। हां केवल को कहा कि मेरे साथ दुकान में काम करो। लेकिन केवल एक महीना भी नहीं गुजार सका और कहने लगा यह काम मेरे बस का नहीं है। केवल चंडीगढ़ चला गया और सुभाष देवास।

खण्डवा उन लोगों से मिल कर, जिस दिन रमेश का पत्र मुझे मिला, उस वक्त पंडित हेमचन्द्र जी हमारे घर ही बैठे थे। मैंने खत पढ़ा पूरा तसल्ली बख्श जवाब था और पंडित जी ने पूछा किसका खत है? “देवास से आया है” और मैंने खत उनको थमा दिया। पढ़कर उन्हें भी खुशी हुई। मैंने कहा पंडित जी आगे आप उन लोगों को लिखोगे, तब मजीद बात आगे बढ़ेगी। लेकिन श्री कृष्णचन्द्र जी और उनके चाचा श्री केवलराम पेशावरी रमेश से मिल कर ही बहुत खुश हुए। पंडित जी ने तो अब ऐसे ही बात आगे बढ़ानी थी और मुझे कहा किसी दिन देहली आ जाना, सत्गुरु जी का आशीर्वाद लेने। जब मैं दरगाह पहंचा और गददी नशीन सत्गुरु जी को प्रणाम कर रहा था तो मुझे भरी नजर से उन्होंने देखा और साथ ही उनके आशीर्वाद का हाथ उठा। मुझे ऐसा लगा जैसे बेटी का रिश्ता हो गया और उनका आशीर्वाद भी मिल गया। मन्दिर आते वक्त धीमे-2 यह धुन बज रही थी- ‘गोपाला तेरा प्यारा नाम है, नन्दलाला तेरा प्यारा नाम है…’ और पब्लिक मस्ती में झूम रही थी। मुझे तो ऐसा ही लगा था।

एक दिन श्री कृष्णचन्द्र जी (बरखुरदार इन्दर कुमार के पिताजी) लुधियाना आए, दुकान पर भी आए और मेरे साथ बैठे. थोड़े समय में ही बेटी का रिश्ता हो गया। उन्होंने सिर्फ एक शर्त रक्खी कि शादी रमेश के घर देवास में ही करेंगे, जो मैंने मंजूर कर ली। गुट्टू अक्सर पीलीभीत भाभीजी को लेकर आता जाता रहता था और शायद उन्हीं दिनों से कमलेश की बडी बहन प्रेम जी को गुट्टू पर बच्चों जैसा प्यार आता था। जब भी गुट्टू पीलीभीत गया, खुशी खुशी उनकी बात करता। गुट्टू ने 1979 में बी0एस0सी0 करके इन्जीनियरिंग कालेज में दाखिला ले लिया था। छह साल का कोर्स था। गुट्टू के बारे में यह तसल्ली थी कि वो हर चीज में नं. एक था और उसके साथी दोस्त सभी अच्छे लड़के होते। मेरे अपने ख्याल के मुताबिक मैंने बेटी की शादी करनी है, बाद में केवल की और फिर राकेश की। लेकिन राकेश ने अपने और घर के सब कामों में पूरी दिलचस्पी ली थी। यानि पहले स्कूटर खरीदा फिर फ्रिज खरीदा. गुटटू बेटी और उसके खर्चात भी संभाल लेता था। मेरी भी जरूरतों को ध्यान रखता माता जी और दादी जी का भी मन पसन्द था वो शादी के बारे में भी उसके विचार जल्दी के थे। अक्सर अपनी मां और दादी से कहता रहता था।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 44

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आज की किश्त भी अच्छी लगी लेकिन गुड्डी की देवरानी की वोह हरकतों को पड़ कर मुझे समझ आई कि हमारे समाज में ऐसे दकिअनूस विचारों से कितने घरों में गल्त्फ़ैह्मीआन हो जाती है . यह सिर्फ इन बाबे लोगों के डेरों में जाने के कारण ही होता है .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाई साहब आपने. भूत-प्रेत या आत्मा आने की बात में कोई सच्चाई नहीं होती. सब नाटक होता है. लोग डर जाते हैं और इसी का फायदा धूर्त लोग उठा लेते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरा विवरण पढ़ा। आज की क़िस्त की सभी घटनाएँ सामान्य है। बच्चो के रिश्ते करने में श्री कपूर जी को सफलता मिली, वह प्रसन्न हैं, यह पढ़कर अच्छा लग रहा हे।

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