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राजा दशरथ की कूटनीति या माता कैकेयी की देशहित नीति

ओ३म्

जय विजय साइट पर दशरथ की कूटनीति” शीर्षक एक लेख प्रकाशित है। इसकी कुछ बातों पर हमें आपत्ति है। उनका वर्णन कर हम अपना निजी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं।

लेखकः-रामायण की के दो प्रमुख स्त्री पात्र है कैकयी और उसकी दासी मंथरा। रामभक्त इन दोनों पात्रो को रामायण की खलनायिका मानते हैं । तुलसी दास जैसे भक्त तो इन से चिढ के यंहा तक लिख गए हैं बिधुहुँ नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुन खानी

हमारा पक्षः-अज्ञान से भ्रम व सन्देह पैदा होते हैं। रामायण के पाठक व रामभक्त कैकेयी व मन्थरा को यदि खलनायिका मानते हैं तो इसका कारण उनका अज्ञान व भ्रम है। हम भी रामभक्त हैं परन्तु हम कैकेयी मन्थरा को खलनायिका नहीं मानते अपितु उन्होंने ऋषियों की योजना को क्रियान्वित कर असुरों दुष्टों से ऋषि-मुनियों सज्जनों की रक्षा की थी। यह काम राजा दशरथ को करना चाहिये था परन्तु किन्हीं कारणोवश जब उन्होंने यह कार्य नहीं किया तो ऋषियों ने कैकेयी के माध्यम से योजना बनाकर श्री रामचन्द्र जी को वन में भेजा और उन्होंने जिस प्रकार से ऋषियों व धर्मपारायण सज्जनं लोगों की रक्षा की व रावण व असुरों का विनाश किया, उससे सारा संसार परिचित है। यदि कैकेयी ऋषियों की योजनानुसार अपना कर्तव्य न निभाती तो रामायण अस्तित्व में ही न आती। अतः साधारण व भोले भाले भक्तों द्वारा महारानी कैकेयी व उनकी दासी को खलनायिका मानना उनके अज्ञान व भ्रम के कारण है। जिन कथावाचकों को इस बात का खण्डन कर सन्देह निवारण करना था वह स्वयं भी अज्ञान व भ्रमों से ग्रसित हैं।

लेखकः-राम के कष्टो की जिम्मेदार इन्ही दोनों को माना जाता है।  समाज में इन दोनों के प्रति घृणा इतनी है कि कोई भी स्त्री अपनी बेटी का नाम ‘कैकयी’ या ‘मंथरा’ नहीं रखते । मंथरा को और बुरी प्रवृति का दिखाने के लिए उसको बूढ़ी, काली, कुबड़ी और कानी तक का चित्रण कर दिया जाता है । अब यह सोचने की बात है की एक रानी ऐसी कुरूप स्त्री को दासी क्यों बनाएगी? क्या उसे सुन्दर दासियाँ नहीं मिलती थीं? पर चूँकि दास कर्म केवल शुद्र का ही कर्म है अत: मंथरा शुद्र स्त्री थी तो उसको कुरूप दिखाना ही था ।

हमारा पक्षः-मन्थरा को काली, बूढ़ी, कुबड़ी और काणी का चित्रण करने के पीछे भी अज्ञान व भ्रम है। हो सकता है कि वह ऐसी ही रही हो और हो सकता है कि वह ऐसी न होकर कैकेयी के समान आयु की एक सामान्य रूप व स्वास्थ्य वाली, सुन्दर व सामान्य स्त्री हो। तुलसीदास जी द्वारा उसके कार्यों का जो चित्रण किया गया है उससे भ्रमित होकर मन्थरा को ऐसा चित्रित किया जाता है। जहां तक मन्थरा के दास होने के कारण शूद्र होने का प्रश्न है और इस आधार पर यह कहना कि उसे इस रूप में चित्रित किया जाता है, ऐसा नहीं है। खलनायिका का जो चरित्र प्रचारित हुआ है वही उसके इस रूप को दिखाने का कारण है। हनुमान जी को पूंछ वाला दिखाया जाता है। क्या किसी मनुष्य के पूंछ होती है? फिर भी भक्तों की वैचारिक स्थिति के कारण ऐसा किया जाता है और भक्तों को भी यह स्वीकार्य है जबकि यह असत्य है। हनुमान जी महाबलवान एवं तेजस्वी मनुष्य थे। उनके पूंछ होने का प्रश्न ही नहीं है। उन्हें पूंछ वाला दिखाना बुद्धि का दिवालियापन ही कहा जा सकता है। इसी प्रकार से कुम्भकरण को भी व अन्य राक्षसों को भी कुरूप दिखाया जाता है। क्या वह कुरूप थे? असम्भव। वह मनुष्य जैसे ही थे। मनुष्य अच्छा हो या बुरा, सज्जन व दुष्ट, सभी के चेहरे, रूप व रंग, स्वास्थ्य, लम्बाई प्रायः एक जैसे होते हैं। अतः रावण, मेघनाथ, विभीषण, कुम्भकरण शक्ल-सूरत व रूप-रंग में सभी एक जैसे थे। जैसे इनको विकृत कर दिखाया जाता है, उसी प्रकार से मन्थरा को भी दिखाया जाता है। शूद्र के बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यह घटना वैदिक काल की है जब भारत में एक नहीं सहस्रों ऋषि, योगी व वैदिक विद्वान विराजमान थे। ऋषि कहा हि इस लिए जाता था कि यह किसी भी स्थिति में किसी के प्रति अन्याय सहन नहीं कर सकते थे। राजा भी ऋषि व योगियों का आज्ञापालक हुआ करता था। यह बात हमें महाराजा दशरथ व मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र जी के आचरण से भी ज्ञात होती है। अतः अज्ञानी, अशिक्षित, ज्ञानहीन लोगों को ही शूद्र कहा जाता है। रामायण आदि में कहीं नहीं लिखा कि शूद्र कोई अलग जाति थी। यदि आजकल जैसी स्थिति होती तो शायद् रामचन्द्र जी वनवास के दिनों में शबरी के आश्रम में न जाते और उसके झूठे बेर न खाते। इसका अर्थ है कि शूद्रों का राजाओं की दृष्टि में भी वही सम्मान होता था जो अन्यों का होता था। मध्यकाल में जन्मनाजाति प्रचलित हुई और स्वार्थी व अज्ञानी लोगों ने शूद्र व अन्य वर्णो को जन्मना ही स्वीकार किया। यह अवैदिक प्रथा थी। यह महाभारत काल के बाद प्रचलित हुई। महाभारत काल से पूर्व देश में इसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं था। हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वैदिक काल में हमारा देश वेदों के ज्ञान से सम्पन्न ऋषि-मुनियों का युग था। जिनके होते हुए किसी व किन्हीं मनुष्यों के साथ किसी प्रकार का अन्याय नहीं हो सकता था। उन्नसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द आये और उन्होंने इन सब मिथ्या मान्यताओं व बातों का खण्डन कर उन्हें उनके सभी यथोचित अधिकार प्रदान किये। सभी शूद्रों को आर्य समाज के डी.ए.वी. स्कूलों व गुरूकुलों में पढ़ने की सुविधा प्रदान की गई। गुरूकुलों में पढ़कर अनेक व्यक्ति वेदों के महान विद्वान बने। अनेक शूद्र बन्धु आर्यसमाज में पुरोहित का कार्य करते हैं। इससे किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है। आजकल तो जन्मना शूद्र व शूद्रा का अन्य वर्णों के साथ प्रेम व माता-पिताओं द्वारा भी सहर्ष विवाह किया जाता है। अतः शूद्रों के बारे में जो मध्य काल में हुआ वह कृत्रिम व्यवहार था। जो न पहले था और न अब उसे मान्यता प्राप्त है।

लेखकः- दरसल दशरथ वंश पितृसत्तात्मक था जबकि कैकयी वंश मातृसत्तात्मक की थी । दशरथ की दो अन्य रानियां कौशल्या और सुमित्रा भी पितृसत्तात्मक कुल की थी और आर्य संस्कृति के निकट थीं। कौशल्या, कौशल नरेस ‘भानुमान’ और सुमित्रा मगधराज की पुत्री थी जबकि इसके उलट कैकयी के पिता अनाव नरेश अश्वपति ने कैकयी का विवाह दशरथ के साथ इसी शर्त पर किया था कि भविष्य में दशरथ आर्य संस्कृति परम्परा त्याग कैकयी के पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाएंगे। इसके लिए दशरथ ने वचन भी दे दिया था ( वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड,सर्ग 107, श्लोक 3) में राम भरत को उस वचन की याद भी दिलाते हैं ।

हमारा पक्षः-मनुस्मृति में एक श्लोक आता है-‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। यत्रैतास्तु पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रिया।।’ जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते है। शतपथ ब्राह्मण प्राचीन ग्रन्थ है। यह रामायण काल से पूर्व भी था और आज भी है। इसमें लिखा है कि मातृमान, पितृमान आचार्य पुरूषों वेदः’ एवं यह वैदिक सूक्तियां भी प्रसिद्ध हैं मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।’ इससे विदित होता है कि वैदिक रामायणकालीन संस्कृति में माता का स्थान पिता से उच्च होता था। अतः यह कहना कि दशरथ वंश पितृसत्तात्मक था जबकि कैकेयी वंश मातृसत्तात्मक, यह अवधारणा कपोल कल्पित है। ऐसा कुछ रामायणकाल में किंचित नहीं था। इन शब्दों से भी वह परिचित नहीं थे। वह तो केवल यह जानते थे कि हमें वेदानुसार जीवन व्यतीत करना है। वेद की बातें सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व व शूद्र लोगों को समान रूप से स्वीकार्य थी। तीनों ही रानियां आर्य कुल की नारियां थी। आपने जो बाल्मिकी का प्रमाण दिया है वह ठीक है परन्तु कैकेयी ने दशरथ के सम्मुख इसका कभी व कहीं उल्लेख नहीं किया। कैकेयी को देशहित में रामचन्द्र जी को वन में भिजवाना था जिससे वह वहां जाकर ऋषि-मुनियों की राक्षस जाति के अत्याचारों से रक्षा कर सकें। रक्षा करने में राक्षसों का संहार तो होना ही था। यह योजना ऋषियों ने ही बड़ी दूरदर्शिता पूर्ण तरीके से बनाई थी। इसके लिए आर्यवैदिक विद्वान श्री गजानन्द आर्य द्वारा लिखित वीरांगना महारानी कैकेयी” पुस्तक पाठकों को पढ़नी चाहिये। समीक्ष्य लेखक ने कैकेयी के एक ही रूप का वर्णन किया है। हम यहां उसका दूसरा एक परोपकारी नारी का स्वरूप भी पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। यह विवरण हम श्री गजानन्द आर्य जी की पुस्तक से प्रस्तुत कर रहे हैं-देवासुर संग्राम में मार खाने के कारण अथवा तीनतीन रानियों को प्रसन्न रखने की चेष्टाओं के कारण महाराज का शासन ढीला पड़ने लग गया। ढ़ीला पड़ने का एक बड़ा कारण यह था कि महाराज की तीन रानियों से कोई सन्तान थी। सन्तान प्राप्ति के लिए राजा दशरथ ने विद्वान श्रृंगी ऋषि के ब्रह्मत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। इस यज्ञ पर महाराज की स्वीकृति से कुल पुरोहित मुनि वशिष्ठ ने दूरदूर से ऋषि मुनियों, राजाओं और सम्बन्धियों, सब को आमन्त्रित करके सम्मिलित किया था। विधि विधान पूर्वक किया गया यह पुत्रेष्टि यज्ञ सफल हुआ। यज्ञशेष से बनाया गयापायस’ तीनों रानियों को दिया गया। रानी कैकेयी को सन्तान उत्पन्न करने की अधिक लालसा थी। अतः महाराज के अनुग्रह से देवी ने उस यज्ञशेष का केवल आठवां भाग सेवन कर बाकी का पायस देवी कौशल्या और देवी सुमित्रा को दे दिया। (श्लोकपायसं प्रतिगृहणीष्व पुत्रीयमिदमात्मनः। कौशल्यायै नरपतिः पायसार्धं ददौ तदा।। अर्धादर्धं ददौ चापि सुमित्रायै नराधिपः। कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात्।।बालकाण्ड 19/26,27 अर्थःपुत्र को देने वाले इस पायस को ग्रहण करो। राजा ने कौशल्या को आधी खीर दी।26 आधी से आधी चैथाई खीर राजा ने सुमित्रा को दी और शेष चैथाई में आधी आठवां भाग पुत्र के लिए कैकेयी को दी।27) ठीक समय पर तीनों रानियों के पुत्र उत्पन्न हुए। मंझली रानी के दो पुत्र होने से अयोध्या नरेश को चार राजकुमारों की प्राप्ति हो गई। कौशल्या के पुत्र का नाम राम’ रखा गया। बड़ी रानी के होने एवं सब से पहली जन्मने के कारण राम सब से बड़े भाई हुए। आदि।” इस प्रकरण से कैकेयी का पुत्रोत्पत्ति में विरक्त भाव ज्ञात होता है।  

लेखकः-दशरथ की पहले की दोनों रानियां निसन्तान थीं और यह सोच के की अब कैकयी से ही पुत्र प्राप्त हो सकता है तो उन्होंने कैकयी के पिता को यह वचन दे दिया कि कैकयी का पुत्र ही राजा बनेगा, तब जाके कैकयी के पिता दशरथ से अपनी पुत्री का विवाह करने पर राजी हुए ।

हमारा पक्षः-इन पंक्तियों पर बस यही कहना है कि कैकेयी का राम पर हमेशा प्यार उमड़ता रहा। यदि उसके मन में अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिलाने की इच्छा होती तो राम के प्रति सौतेलापन होता। इसका न होना ही कैकेयी को महान माता सिद्ध करता है। यह तो असुरों से ऋषियों, साधुओं व सज्जनों की रक्षा के कारण उन्हें करना पड़ा था। कैकेयी को पता था कि ऐसे आरोप उस पर मढ़े जायेंगे परन्तु फिर भी उसने अपने कर्तव्यों को महत्व दिया और आरोपों व अपमान की चिन्ता नहीं की। कोई कुछ भी कहे, किन्तु जो कैकेयी ने किया उसी में देश का हित था और उसी से ऋषियों व साधुओं की रक्षा हो सकी। रावण व राक्षसों का वध हुआ और वैदिक संस्कृति बच सकी।

लेखकः-बाद में बड़ी रानी यानि की कौशल्या के पुत्र प्राप्त हो गया जिसका नाम राम रखा गया, दशरथ का राम से अधिक प्रेम था, आर्य नीति के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता है इस लिए दशरथ इस रीती को तोड़ने में हिचकिचाते थे । इसके के अलावा कैकयी पक्ष की शक्ति और भरत के संभावित विद्रोह से भी आशंकित थे । इसलिए राम के राजा बनने का प्रश्न उन्होंने तब उठाया था जब भरत अपने ननिहाल गए थे ।

हमारा पक्षः-भरत के सम्भावित विद्रोह की बात हास्यास्पद है। इसे कहते हैं छुपा हुआ हठ, दुराग्रह और अपने प्रयोजन की सीधी करना। चारों भाईयों में जो परस्पर प्रेम था, यह जानकर ऐसी कल्पना करना मिथ्या व स्वार्थपूर्ण है। ऐसी बातें साम्यवादी विचारधारा वालों के दिमाग में आ सकती है, वेदों के मानने वाले सरल हृदयों में नहीं। यदि लेखक की बात सत्य मान भी ली जाये तो कैकेयी दशरथजी को यह कह सकती थी कि राज्याभिषेक भरत के लौटने के बाद किया जाये। भरत के लौटने पर उसकी सहमति से कैकेयी को अगला पग उठाना था। परन्तु ऐसा लगता है कि भरत को भेजने में कैकेयी की भी सहमति रही हो जिससे की साधुओं की रक्षा व असुरों के नाश की उनकी योजना क्रियान्वित हो सके। लेखक का सारा लेख ही विचारों में निगेटिविटी से प्रभावित है। वह अपने मनोरथों में कभी सफल नहीं हो सकते।

लेखकः-इसके लिए उन्होंने वशिष्ठ आदि मंत्रियो से मिल के गुप्त योजना भी बनाई, राम के राजतिलक में आनव नरेश, कैकयी और भरत को न बुलाना दशरथ की कूटनीति थी ।

हमारा पक्षः-उपर्युक्त पंक्तियों के लेखक के यह विचार भी अस्वीकार्य हैं। लेखक का हृदय स्वच्छ प्रतीत नहीं होता। वह येन केन प्रकारेन अपनी बात मनवाना चाहता है। इसलिये वह राजा दशरथ और ऋषियों के निर्णय में कुटिलता ढूंढ रहा है। राजा दशरथ व सभी ऋषि मुनियों को यह पता था कि बिना कैकेयी की अनुमति के यह राज्याभिषेक कभी हो ही नहीं सकता। अतः देश, काल व परिस्थितयों के अनुसार निर्णय लिया गया था। हो सकता है कि योजना के अनुसार राम के राज्याभिषेक का निर्णय लेने के लिए ऋषियों ने ही राजा दशरथ को प्रेरणा की हो।

हमारा पाठको से निवेदन है कि रामायण काल में एक तो वैदिक आर्य संस्कृति प्रचलित थी। दूसरी ओर रावण ने अहंकारवश सद्गुणों को त्याग कर एक आततायी का स्वरूप धारण किया था। जिसके समाधान के लिए ऋषि विचार करते रहते थे। और इसका यही समाधान था कि राम के द्वारा रावण व आसुरी शक्तियों का विनाश किया जाये जिसमें सभी को सफलता मिली। माता कैकेयी ने जो किया वह एक देशभक्त माता के लिए करणीय था। शिवाजी की धायी ने भी तो अपने पुत्र की हत्या कराकर शिवाजी के जीवन की रक्षा की थी। क्या कैकेयी देश के लिए अपने अपमान का घूट पीकर यह देशहित का कार्य नहीं कर सकती थी? पाठक कृपया विचार करें। यह बात और जोड़ देते हैं कि हमें गर्व है माता कैकेयी पर जिन्होंने भरत जैसे धार्मिक पुत्र को जन्म दिया जिसने अपने सौतेली माता के पुत्र, बड़े भाई के लिये, राजगद्दी को ठुकरा दिया और चौदह वर्षों तक एक साधु या साधक और राम के सेवक के रूप में उनकी खड़ाऊओं को राज सिंहासन पर रखकर राज चलाया। ऐसी माता पुत्र इतिहास में दूसरे नहीं हुए हैं। हम कैकेयी, राजा दशरथ, राजा राम, भरत सहित राम के परिवार के सभी सदस्यों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं। काश कि आज की हर माता कैकेयी की तरह भरत समान धार्मिक पुत्रों को जन्म दें तो यह देश स्वर्ग हो जाये।

मनमोहन कुमार आर्य

 

6 thoughts on “राजा दशरथ की कूटनीति या माता कैकेयी की देशहित नीति

  • विजय कुमार सिंघल

    मान्यवर ! क्षमा याचना सहित मैं आपसे असहमति व्यक्त करना चाहता हूँ। आपके तर्क आदर्शवादिता पर आधारित हैं जबकि लेखक की बातें तर्क संगत हैं। वाल्मीकि रामायण में इसके कई प्रमाण उपलब्ध हैं। जबकि आप अपनी मान्यताओं कि पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे सकेंगे।
    इसलिए मेरा विनम्र मत है कि शूद्र के उल्लेख को छोड़कर केशव जी का लेख ही अधिक तर्कसंगत लगता है।

    • मनमोहन कुमार आर्य

      हार्दिक धन्यवाद महोदय। मुझे मात्र यह कहना है कि बाल्मीकि रामायण में भारी प्रक्षेप किये गएँ है। इससे सत्य व असत्य का निर्धारण करना कठिन है। दूसरा मेरा अनुरोध है कि जब आपको अवकाश मिले तो आप श्री गजानंद आर्य की पुस्तक “वीरांगना महारानी कैकेयी” पढ़े। केशव जी परिश्रम पूर्वक लिखते हैं परन्तु उनकी हर बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। उनका नजरिया काफी भिन्न है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई ,लेख बहुत अच्छा लगा . रामाएनं को इतनी बारीकी से तो मैं जानता नहीं हूँ लेकिन एक बात मैं सिर्फ यह ही मानता हूँ कि उस समय भी लोग ऐसे ही थे जैसे अब हैं . फरक सिर्फ इतना है कि उस समय हालात और थे . जब दशरथ को अयुधिया के राजा बोलते हैं तो इस के यह अर्थ हुए कि वोह आयुध्या के राजा ही थे ना कि सारे भारत के . उस समय सारा देश ऐसे राजाओं से भरा होगा , इसी लिए तो अश्वमेध यग्य होता था और घोडा छोड़ा जाता था , और जो कोई उस घोड़े को पकड़ लेता था ,यह एक चैलेन्ज समझा जाता था और उस से लड़ाई होती थी . जब लव कुश ने राम का घोडा पकड़ा और लड़ाई होनी लाज़मी थी . दुसरे आप ने हनुमान की पूँछ के बारे में लिखा , मेरा तो पहले से ही विशवास था कि यह हो ही नहीं सकता ,यह तो हास्यपद है . जो राक्षाशों के बारे में बार बार कहा जाता है ,वोह कोई असाधारण लोग नहीं थे , हो सकता है वोह जंगलों में रहने वाले लोग हों जो इतने सभ्य न हों ,इसी लिए इन को राख्षक नाम दिया गिया हो . यह बहुत सी बातें समय समय पर ऐड कर दी गईं मालूम होती है . मेरा यह भी मानना है कि जो जाती प्रथा है वोह शुरू में नहीं थी ,जो कोई काम करता था ,उस का नाम था .अगर वोह काम छोड़ कर कोई और काम कर लेता था तो वोह उसी नाम से जाना जाता होगा और आगे जा कर यह बिलकुल रिजिड ही हो गिया ,जिस की शकल आज है . ब्राह्मणों प्रोह्तों ने आर्थिक लाभ के कारण इस को और ही शकल दे दी .

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी । रामायण की घटनाएँ लाखों व करोडो वर्ष पुरानी है। बाल्मीकि रामायण में रामचन्द्र जी का इतिहास उनके राज्याभिषेक तक ही लिखा गया था। महाभारत काल के बात रामायण में स्वेछाचारपूर्वक प्रक्षेप किये गए। सामान्य व्यक्ति के लिए मूल और प्रक्षेप में भेद करना कठिन है। मैंने एक इतिहास मर्मज्ञ विद्वान की पंक्ति पढ़ी है जो लिखते है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल पर्यन्त आर्यों का पुरे विश्व में एकक्षत्र चक्रवर्ती राज्य रहा है। आपकी अन्य सभी बाते तर्क पूर्ण एवं मान्य हैं। हार्दिक धन्यवाद।

  • मनोज पाण्डेय 'होश'

    आपने जो भी पक्ष प्रस्तुत किया है, वो इतिहास से कम और भक्ति भाव से ज्यादा प्रेरित मालूम होता है, मेरा ऐसा मानना है। सत्ता मातृ पक्षी न भी रही हो. और ये मैं इसलिए कहता हूँ क्योंकि इसका कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, परन्तु दशरथ ने कैकई को वचन तो दिया ही था, अतः यदि मंथरा कैकई के कान भरती है, तो इसमें कुछ अनुचित नहीं है। कौन नहीं चाहेगा कि उसके प्रिय का हित हो। गौर से देखा जाय तो कैकई पश्चिमी सभ्यता से आई थी जहाँ आपना हित ही सर्वोपरि माना जाता है। क्या ऐसा ही कुछ गांधार (कांधार) नरेश शकुनि के साथ नहीं था ?

    • मनमोहन कुमार आर्य

      हार्दिक धन्यवाद महोदय। मुझे आपकी बातें तर्क संगत ही लग रही है। कैकई ने भरत के लिए राज्य माँगा, यह तो समझ में आता है परन्तु राम को १४ वर्ष का वनवास क्यों माँगा? यह मेरी समझ से बाहर है। कैकई के पिता ने भी राजा दसरथ से शायद ऐसी कोई शर्त नहीं लगाई थी। श्री रामचन्द्र जी मर्यादा पुरूषोत्तम व धर्म के अवतारस्वरूप थे। उनके प्रति कैकेयी का यह दुर्भाव व व्यवहार, जबकि इससे पूर्व उनका श्री रामचन्द्र जी के प्रति गहरा आत्मिक स्नेह संबंध था, समझ से बाहर है। जो भी हो आपका हृदय से आभार एवं पुनः धन्यवाद।

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