आत्मकथा

स्मृति के पंख – 45 (अंतिम)

उपसंहार

(सबसे छोटे सुपुत्र श्री गुलशन कपूर की कलम से)

लगभग 15 वर्ष बीत गये जब पिताजी ने अपने जीवन के बारे में यह सब कुछ लिखा। हम सब भाई-बहनों की यह हार्दिक इच्छा रही कि पिताजी के संस्मरण एक किताब के रूप में बनवाये जायें, ताकि आज के युग में जब बच्चे अपने दादा से पहले के पूर्वजों को ही भूल जाते हैं, यह किताब न केवल यादगार के रूप में बल्कि एक मार्गदर्शक के रूप में हम सबके पास रहेगी।

इन 15 सालों में बहुत कुछ बदल गया और सबसे बड़ा बदलाव तो यही आया कि पिताजी ही हमारे बीच नहीं रहे। सन् 2000 में माताजी भी शरीर छोड़ गयीं।जो भी व्यक्ति पिताजी से मिला था, उनसे बहुत लगाव रखता था। शरीर छोड़ने से पहले पिताजी 2-3 महीने कामा में रहे, जिसने बच्चों को मानसिक रूप से तैयार कर दिया, वरना हम शायद उस घटना को सह भी न पाते। बेटे के रूप में नहीं, बल्कि एक व्याक्ति के रूप में जो पिताजी के साथ रहा है, उसे आज भी यह अहसास होता है कि उस व्यक्ति में कोई खास बात अवश्य थी, ऐसी कि हर व्यक्ति को अपनी ओर खींचती थी। हर कोई उनके साथ लगाव अनुभव करता था। जैसे हम कृष्ण भगवान को जब याद करते हैं, तो एक ऐसा व्यक्तित्व सामने आता है, जो प्यार का ऐसा सागर था कि मनुष्य क्या जानवर भी उनकी तरफ खिंचे चले आते थे और उनका सान्निध्य पाकर अपने आप को धन्य समझते थे, एक अजीब तरह के नशे-सुरूर का अनुभव करते थे। कुछ ऐसे ही थे हमारे पिताजी।

पिताजी के व्यक्तित्व पर नजर डालें तो उनमें बहुत सारी ऐसी विशिष्टताएँ थीं जो आज के युग में एक ही व्यक्ति में बड़ी मुश्किल से ही मिलेंगी। उनके व्यक्ति का सबसे बड़ा आकर्षण था उनका सदा हँसता-मुस्कराता चेहरा और सम्पूर्ण आशावादी नजरिया। उनके साथ रहते हुए मुझे ऐसे पल याद नहीं आते, जब वे उदास हुए हों। उन्होंने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि दुनिया में ऐसा भी कुछ है जो हम नहीं कर सकते। कुछ भी करने में हमेशा आशान्वित।वे खुद ही नहीं आसपास के पूरे माहौल को भी अपनी जिन्दादिली से सराबोर रखते थे। पिताजी जैसा सादगीभरा पूर्णतया पारदर्शी व्यक्ति आज के युग में कोई बिरला ही होगा। खुद के लिए तो उन्होंने कभी कुछ नहीं चाहा। सफेद सलवार, कमीज और एक जूते का जोड़ा, वह भी कोई नये ला दे तो ठीक वरना पुराने ही चलते रहते थे। मण्डी आने-जाने के लिए एक अदद पुरानी साइकिल, बस। जो कुछ मन में वही सामने। कोई बनावट, कोई भेदभाव वाली भावना नहीं।

उच्च विचार क्या होते हैं, यह उनके साथ रहते हुए महसूस करना तो एक बात है, उनका अनुसरण करने की प्रेरणा भी मिलती थी। जो घटिया बात दुनिया के लोग कर गुजरते हैं, उनको करना तो दूर, पिताजी के साथ रहते हुए सोचना भी तुच्छ बात लगती थी। कोई घटिया बात दूसरा भी कोई कर सकता है, यह सोच तक जो अपने मन में न आने दे, उसके सामने कोई घटिया-ओछी बात आप करेंगे भी तो कैसे?

पिताजी बहुत भावुक भी थे। देशभक्ति से ओतप्रोत एवं माँ की पूजा सबसे बड़ी पूजा जैसी भावनाएं उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थीं। अखबार को खूब मन लगाकर पढ़ते थे और कोई चीज अच्छी लग तो सब बच्चों के बीच में बैठकर सुनाना उनकी हाबी थी। कहानी सुनाते-सुनाते प्रायः रो दिया करते थे। आज जब उनकी जीवनी (आत्मकथा) को एक किताब का रूप देने के लिए पूरा करने की जरूरत पड़ी तो बहुत छोटा और अपरिपक्व सा महसूस हुआ। लगा कि उस भावना, उस लय और उस शैली की समापन करने के लिए मैं बहुत छोटा हूँ, फिर भी कोशिश कर रहा हूँ।

उस महान् व्यक्ति ने जीवन में जो कुछ चाहा, जिन चीजों का लक्ष्य रखा, उनमें से बहुत कुछ को उन्होंने अपने जीवन में ही प्राप्त किया। जो वे नहीं कर पाये, उनको पूरा करने के लिए बच्चों में ऐसे संस्कार भर दिये, जो कई पीढ़ियों तक अपना प्रभाव दिखायेंगे। यह शायद भौतिक वस्तुओं को कम महत्व देना ही था, जिसकी वजह से हमारा परिवार आज शायद भौतिक उपलब्धियाँ तो उतनी हासिल नहीं कर पाया, परन्तु मन की शान्ति एवं सच्ची खुशी की अनुभूति का सबको इतना ज्ञान अवश्य है कि किसी भी हालत में परिवार में पूर्ण सामंजस्य रहा और आज सब अलग-अलग रहते हुए भी एक दूसरे के लिए मन में आदर और प्यार की भावना रखते हैं। ईश्वर करे कि पिताजी के सपनों वाला हमारा परिवार उनके सपनों जैसा ही खूबसूरत बना रहे…।

इति

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

2 thoughts on “स्मृति के पंख – 45 (अंतिम)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    गुलशन कपूर जी , आप के पिता जी की जीवन कथा शुरू से अंत तक पड़ी . बहुत अच्छी आतम कथा तो कहना उचित नहीं होगा लेकिन जो मुश्कलें उन्होंने अपने सारे जीवन में झेलीं उन को पड़ कर उन को सर झुकाता हूँ . देश भगत तो थे ही ,साथ ही घर की मुसीबतों को हँसते हँसते झेलना आम आदमी के वश की बात नहीं . सधाह्र्ण आदमी तो टूट ही जाता है लेकिन उन्होंने गृहस्थी के सारे कारज बहुत धीरज और सुघड़ता पूर्वक निभाये . डाएबैतिक बेटे के लिए दवाई के लिए पैसे इस कदर होना कि रोटी खाएं या दवाई लें . वोह एपिसोड पड़ के तो मेरी आँखों में आंसू आ गए. पाकिस्तान से उजड़ कर आना और नई जगह आ कर पैर रखने कितने मुश्किल थे . बस यही कहूँगा कि आप बहुत भाग्यवान हैं जिन को एक देवते सरूप पिता जी की प्राप्ति हुई .

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते एवं धन्यवाद श्री गुलशन जी। मैंने भी पहली क़िस्त से आरम्भ कर श्री राधा कृष्ण कपूर जी की आत्मकथा की प्रत्येक कड़ी पढ़ी है। उनका जीवन एक सज्जन पुरुष का जीवन दिखाई दिया जिसमे कुछ वैराग्य की मात्रा भी घुली हुई थी। सज्जनता में कुछ वैराग्य हुआ ही करता है ऐसा मेरा विचार है। प्रत्येक व्यक्ति इस जीवन में पिछले जन्म के संस्कार लेकर आता है। उनके संसार कुछ ऐसे थे जिसने उन्हें एक प्रभावशाली व्यक्ति बनाया। उनमे हर कष्ट को सहन करने का अजीब सा जज्बा था। वह उनसे कभी विचलित नहीं होते थे। इसका एक कारण उनका ईश्वर में अटल विश्वास होना भी प्रतीत होता है। महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि “ईश्वर में विश्वास किंवा स्तुति, प्रार्थना व उपासना से भक्त की आत्मा में वह शक्ति आती है कि वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है ?” आज यह कथा समाप्त हो रही है। अब “जय विजय” साइट खोलने पर कई दिनों व महीनो तक श्री राधा कृष्ण कपूर जी की याद आया करेगी। आपको व आपके परिवार को सादर प्रणाम एवं शुभकामनायें।

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