गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

उन्हें पता है,  जिसने बीज विष के  बोये हैं
कैसे-कैसे अबतक किसान, देश के रोये हैं।

बन रहे महलों के  साए में  हैं किसके साए
भरी जवानी,  औ’ बुढापा  जिसने खोये हैं।

लह-लहाते खेतों से  जो पालते रहे  अरमाँ
हुए लहू – लुहान, आँसू आठ-आठ रोये हैं।

कर्जों से लदा स्वाभिमान आखिर कबतक
अरमानों के लाश, जिसने कन्धों पे ढोए हैं।

जी भरता नहीं भरा नहीं, मिचलाता भी नहीं
जिसने जी के खातिर,  सपनों को संजोये हैं।

श्याम स्नेही

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल-snehishyam@gmail.com

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • Manoj Pandey

    ग़ज़ल के महफूम ताज़ातरीन हैं मगर, म’आज़रत के साथ यह कहना पड़ रहा है कि बहर की तंगी नज़र अंदाज़ नहीं हो पा रही है। एक काबिल कामिल कवि के मद्देनजर यह आश्चर्य की बात है।

  • विजय कुमार सिंघल

    शानदार गजल !

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