गीतिका/ग़ज़ल

किताबें कहती हैं /गज़ल

हमसे रखो न खार, किताबें कहती हैं।

हम भी चाहें प्यार, किताबें कहती हैं।

 

घर के अंदर घर हो एक हमारा भी।

भव्य भाव संसार, किताबें कहती हैं।

 

बतियाएगा मित्र हमारा नित तुमसे,

हँसकर हर किरदार, किताबें कहती हैं।

 

खरीदकर ही साथ सहेजो, जीवन भर,

लेना नहीं उधार, किताबें कहती हैं।

 

धूल, नमी, दीमक से डर लगता हमको,

रखो स्वच्छ आगार, किताबें कहती हैं।

 

कभी न भूलो जो संदेश मिले हमसे,

ऐसा हो इकरार, किताबें कहती हैं।

 

सजावटी ही नहीं सिर्फ हमसे हर दिन,

करो विमर्श विचार, किताबें कहती हैं।

 

सैर करो कोने कोने की खोल हमें,

चाहे जितनी बार, किताबें कहती हैं।

 

रखो ‘कल्पना’ हर-पल हमें विचारों में,

उपजेंगे सुविचार, किताबें कहती हैं।

 

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

One thought on “किताबें कहती हैं /गज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार गजल !

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