संस्मरण

मेरी कहानी – 47

यह चोरी की घटना से हम कुछ डर गए थे क्योंकि उस कुल्हाड़ी से अगर किसी की टांग काट जाती तो किया होता? सोच कर ही कंपकपी लग जाती। यों तो इस घटना को याद करके हम हँसते रहते थे लेकिन भीतर से हम सभी डरे हुए थे। अगर हम पकडे जाते और पुलिस स्टेशन जाना पड़ता तो क्या होता। अब मैं सोचता हूँ, कोई भी किसान कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उनके खेतों से अपनी औलाद की तरह रखी हुई फसल को कोई इस तरह चुरा के ले जाए ! किसान अपनी मर्जी से किसी को कुछ दे दे तो उसको देने में ख़ुशी होती है लेकिन इस तरह कोई चोरी करके ले जाए तो गुस्सा तो आएगा ही। आगे से हमने तोबा कर ली कि कभी खेतों से सब्ज़ियाँ नहीं तोड़ेंगे। हम अपनी पढ़ाई में मसरूफ हो गए। साथ के छोटे कमरे में रहने वाला लड़का भगीरथ भी हमारे कमरे में आता रहता और हमारी मदद कर देता था। भगीरथ बहुत अच्छा लड़का था और कभी कभी जीरे और प्याज़ वाले पराठे बनाया करता था और हमें भी खिलाता रहता था। उस के जीरे वाले पराठों से तो इतनी दिलचस्पी हुई कि यहां आकर भी अभी तक कभी कभी बनाते हैं।

बहादर के जेजे हाई स्कूल का हैडमास्टर भी इसी कालोनी में ही रहता था। बहादर ने उससे टयूशन लेनी शुरू कर दी थी। बहादर के चाचा गुरदयाल सिंह को यह हैडमास्टर जानता था, शायद इसी लिए बहादर को इस स्कूल में दाखल कराया गया था। हैडमास्टर साहब बहादर और अपने बेटे विजय को इकठे ही पढ़ाते थे। कुछ देर बाद एक लड़की भी हैडमास्टर से टयूशन पड़ने लगी। इस लड़की का नाम था कमलेश। बहादर मन ही मन में कमलेश को बहुत चाहता था। कमलेश किसी लड़कियों के स्कूल में पढ़ती थी। कमलेश को हमने पहले भी बहुत दफा देखा हुआ था। वोह सुन्दर और भोली भाली लड़की थी। उस के चेहरे में एक अजीब सी कशिश थी, जो देखता वोह देखता ही रह जाता था। बहादर भी बहुत गोरा और खूबसूरत होता था। बहादर में भी एक अजीब कशिश होती थी। बहादर कमलेश की बातें बहुत किया करता था और कहा करता था कि कोई ऐसा चमत्कार हो जाए कि कमलेश से उसकी शादी हो जाए। हम उस की बात पर हँसते रहते थे। बहादर अक्सर बताया करता था कि कमलेश उसकी तरफ देख कर मुस्कराया करती थी लेकिन इतनी जुर्रत बहादर में भी नहीं थी कि वोह कमलेश को बुला ले। अब भी कभी कभी बहादर कमलेश को याद करता रहता है और उस की वाइफ कमल और उस की बेटी किरण हंस पड़ते हैं। किरण तो कोई बात हो कह देती है, “डैडी आज कमलेश की याद तो नहीं आती?”. कुछ भी हो यह जवानी की मीठी यादें ही हैं।

जैसे जैसे परीक्षा नज़दीक आ रही थी, शहर में घूमना हमने कम कर दिया था। अपने कमरे में किताबें लेकर बैठे रहते और कभी कभी एक छोटी सी लड़की के गाने सुन सुनकर हँसते रहते। सामने वाले मकान में तारा सिंह भचू और उस की पत्नी रहते थे। वोह कोई पचपन साठ वर्ष के होंगे लेकिन उन के कोई औलाद नहीं थी। उन्होंने एक बारह तेरह वर्षीय लड़की को घर के कामकाज के लिए रखा हुआ था। यह लड़की बहुत ही मासूम होती थी, सारा दिन काम करती रहती और साथ साथ गाती भी रहती थी। जब भी गाती ऊंचे स्वर में गाती। अक्सर वोह गाती, “आज हमसे क्यों पर्दा है “. आवाज़ इतनी सुरीली नहीं थी लेकिन वोह मज़े से गाती और हम हँसते रहते। तारा सिंह की पत्नी जिस का नाम मुझे पता नहीं, उस को एक फोबिआ सा था। इतनी सफाई घर में रखती थी कि अगर किसी ने उसके नलके से पानी का ग्लास ले लिया तो वोह नलके के हैंडल का लकड़ी वाला हिस्सा कपडे से साफ़ करती रहती थी।

कभी कभी हम उसके घर तारा सिंह को मिलने जाया करते थे। तारा सिंह बहुत अच्छा और नेक आदमी था, बात बात पर हँसता रहता था। छोटा सा घर था उनका, बिलकुल साधारण लेकिन सफाई इतनी कि फर्श कई जगह तो रगड़ रगड़ कर घिसा हुआ था । बहादर के चाचा जी तारा सिंह की पत्नी को कुछ नफरत सी करते थे और बहुत कम उनके घर जाते थे क्योंकि उन्हें यह ही डर रहता था कि उनके घर से बाहर जाने के बाद तारा सिंह की पत्नी उस के जूतों के निशानों को रगड़ रगड़ कर साफ़ करेगी। लेकिन वोह विचारी करती भी किया? बच्चा कोई है नहीं था, इस लिए अपने आपको मसरूफ रखती थी। लेकिन एक दफा उसने मेरी बहुत मदद की थी। मुझको डायरिया हो गया था लेकिन यहां हम रहते थे बहादर के मकान में वहां कोई शौचालय नहीं था। भचू के मकान के ऊपर खुले में पुराने टाइप का शौचालय था। भचू की पत्नी को मेरे बारे में पता चल गया था कि मैं ठीक नहीं हूँ और उसने अपने पति को भेजा कि मैं उनका शौचालय इस्तेमाल कर लूँ। दिन में कई कई दफा मुझे जाना पड़ता था। फिर उस ने मुझे पुदीना और बहुत चीज़ें डाल कर चाय बना कर दी। बार बार मुझे पूछती, “गुरमेल बेटा ठीक है तू?”. उसके बोल में एक ममता सी थी।

परीक्षा शुरू हो चुक्की थी। पहले दिन ही हिसाब का परचा था। मुझे याद नहीं, कैसा हुआ लेकिन किसी के भी चेहरे पे मुस्कराहट नहीं थी। रोज़ स्कूल आते और परचा देकर वापस कमरे में आ जाते और पेपर के बारे में बातें करते और फिर दूसरे दिन के पेपर की तैयारी शुरू हो जाती। धीरे धीरे सभी पेपर खत्म हो गए और हम गाँव को वापस जाने की तैयारी करने लगे। सारा सामान पैक अप हो गया और अपने अपने बाइसिकलों पर बाँध कर गाँव कुछ ले आये और कुछ हमने दूसरे दिन रविवार को ले आना था। गाँव आने से पहले हमने पैराडाइज़ सिनिमे में फिल्म का स्पेशल शो देखने का मन बना लिया। फिल्म थी शिव भगत। फिल्म तो याद नहीं लेकिन एक दो सीन अभी तक याद हैं। फिल्म देख कर हम वापस अपने कमरे में आये और सारा सामान बाँध लिया और शहर को अलविदा कह दिया।

गाँव में वापस आकर फिर वोही सिलसिला शुरू हो गया, खेतों से चारा लाना और चारे को मशीन से कुतरना और शाम को गयान की हट्टी में इकठे होना और गप्पें लगाना। एक दिन मैं चारा कुतर रहा था और ताऊ रतन सिंह की पोती जिसको गुड्डी बोलते थे, नज़दीक ही खेल रही थी। गुड्डी उस वक्त पांच वर्ष की होगी। मैं किसी काम अंदर कमरे में चले गया और गुड्डी मशीन के साथ खेलने लगी। वापस आ कर मैंने चारे को मशीन के पीछे पॉर्शे में धकेला और मशीन के वील को हाथ से थोड़ा सा घुमाया लेकिन मुझे इस बात का पता नहीं था कि गुड्डी ने अपना हाथ उस जगह डाला हुआ था जिस में से चारा कुतर कर निकलता था। जब गुड्डी ने जोर से चीख मारी तो मैं एक दम भागकर उस तरफ आया तो देखा गुड्डी की दो उन्ग्लिआं हाथ से काट कर लटक रही थीं और खून बह रहा था। देख कर मैं तो मूर्क्षित होने को हो रहा था, फिर मैंने गुड्डी को उठाया और घर की ओर भागा। जब गुड्डी की माँ यानी भाबी के पास पहुंचा तो वोह भी चीख उठी और उसके बोल मेरे सीने में अभी तक रड़क रहे हैं, ” हाए नी मेरिये किस्मते !”.

भाबी की छह बेटीआं थीं और बेटा कोई नहीं था। हमारे दोनों घरों के रिश्तों में कितनी भी दरारें क्यों ना पड़ी हों लेकिन मेरा रिश्ता हमेशा से ही खुशगवार रहा था । इस भाबी के सभी काम मैं किया करता था, यहां तक कि भईआ गुरचरण सिंह इलाहबाद काम किया करता था तो भाबी के कमरे में ही सोया करता था। उस वक्त मैं आठ दस वर्ष का हूँगा। अब भी मैं भाबी की भैंस के लिए चारा उन के खेतों से काट कर उन के घर रख देता था। गुड्डी की चीखें सुन कर सभी इकठे हो गए। भाग्य से उस वक्त भैया गुरचरण सिंह भी गाँव में ही था और उसी वक्त घर आ गया। गुड्डी को हम सोहन लाल हकीम की सर्जरी में ले गए। सोहन लाल कोई अच्छा डाक्टर तो नहीं था, उस ने कुछ चिट्टा सा पाउडर उंगलिओं को जोड़ कर ऊपर लगाया और पट्टी कर दी लेकिन उस से किया होना था क्योंकि उन्ग्लिआं तो काटी हुई थीं।

मैं सारी रात सो ना सका और कभी कभी रोता भी रहा। मैं अपने आप को दोषी मान रहा था। दादा जी ने भी आ कर मुझे बहुत बुरा भला कहा था, ” तू अँधा था, तुझे दिखाई नहीं देता था कि गुड्डी वहां थी “. जो मेरे मन की हालत थी उस को बिआं करना बहुत मुश्किल है। सच कहूँ तो अभी तक जब कभी वोह याद आती है तो मुझे बहुत दुःख होता है और अपने आप को गुनाहगार समझता हूँ। सुबह को भाई गुरचरन सिंह हमारे घर आया और मुझे बोला, “गुरमेल! चल हम गुड्डी को ले कर शहर के सिविल हस्पताल चलते हैं, क्योंकि खून तो अभी भी बहुत निकलता है”. गुड्डी को गोद में बिठा कर मैं भैया के बाइसिकल की पिछली सीट पर बैठ गया। यहाँ मैं यह भी बता दूँ कि गुड्डी को मैंने इतना पियार किया है कि वोह दिन अभी भी याद आते हैं। गुड्डी भैया की पहली संतान थी। घर में पहला बच्चा तो यों भी बहुत पियारा लगता है। हर वक्त मेरे पीछे भागती रहती थी। सकूल से आने पर मेरे साइकल की घंटी की आवाज़ सुन कर भागी आती थी, और मैं भी कुछ ना कुछ उस के लिए लेकर आता था। बहुत दफा मेरे साथ ही सो जाया करती थी। भैया के घर में दुसरी बेटी बहुत वर्षों के बाद आई थी, इस के बाद जब दुसरी बचीआं आईं तो उन को मैंने इतना पियार नहीं दिया। बस गुड्डी ही मेरी जान थी। जब भी मुझे देखती, “चाचा अआअ ” बोल कर भागी आती और मेरे साइकल पर चड़ने लगती और मैं उसे साइकल के डंडे पर बिठा देता जो हैंडल के पास होता है।

जब हम हस्पताल पुहंचे तो भैया को बहुत घंटे लग गए डाक्टरों से बातें करते करते। कभी किसी से बात करते कभी किसी से। और आखर में डाक्टरों ने कुछ मेडीसीन और पट्टी आदिक लाने को लिख दिया। अब तो हालत अछे होंगे लेकिन उस समय के हस्पताल को याद करके ही अजीब सी हालत होती है, जगह जगह गंदगी, फ्लोर की इंटें खस्ता हालत में और मरीज़ नीचे ज़मीन पर ही बैठे थे। गाँव के लोगों ने अपने घरों से ही बिस्तरे लाये हुए थे, मरीजों के रिश्तेदार भी पास ही नीचे जमीन पर बैठे थे। और नज़दीक ही पास के गाँव जगपालपुर के कुछ बदमाश बैठे थे जिन को गोलीआं लगी हुई थीं क्योंकि कुछ दिन हुए रात के समय जब उन के गाँव में रास लीला हो रही थी तो दो ग्रुप जो शराब पी रहे थे उन की आपस में लड़ाई हो गई थी और गोलीआं चल गई थीं। यह जो आदमी हस्पताल में बैठे हुए थे इन की जांघ और कलाई पर पटिया बाँधी हुई थीं जिस में से पीले रंग की दवाई बाहर ही दीख रही थी।

इस रास लीला के अवसर पर मैं भी वहां था क्योंकि हम कुछ दोस्त रास लीला देखने गए हुए थे। जिस जगह रास लीला हो रही थी वोह ऐसी जगह थी जैसे जलिआं वाला बाग़ हो। बहुत से घरों के बीच एक खुली जगह में रास लीला हो रही थी लेकिन जाने आने के लिए एक छोटी सी गली थी। इन बदमाशों को हम ने बहुत दफा देखा हुआ था किओंकि राणी पुर और जगपाल पुर एक दुसरे गाँव के नज़दीक ही हैं। जब लड़के जो लड़की के वेश में थे डांस करते करते गाते तो लोग रुपैये दिखाते और वोह लेने जाते। इस को वेल कहते थे। जब कोई रुपैया देता तो लड़का रुपैये को ऊपर उठा कर बोलता, ” वेल, वेल, यह है एक रुपये की वेल, रामू वेल कराता, शाम के लिए वेल” . और इस के बाद वोह लड़का जो लड़की के वेश में होता, छलांगें लगाता रास लीला की जगह में आकर नाचने लगता।

इसी तरह यह सिलसिला चल रहा था कि दो ग्रुपों में किसी बात को ले कर झगडा शुरू हो गया। झगडा इतना बड़ा कि गोलीआं चलने लगीं। डर के मारे सभी भागने लगे। गली तंग थी। अजीब स्थिति थी। एक दुसरे को धक्के दे रहे थे। हमारा दम घुट रहा था। हम सबके जूते इस भीड़ में कहीं खो गए। जैसे तैसे करके हम बाहर आये और राणी पुर की तरफ भागने लगे। दुसरे दिन हमें पता चला कि कुछ लोगों को गोलीआं लगी थी। इस के इलावा हमें कुछ पता नहीं था लेकिन इन बदमाशों को यहाँ हस्पताल में बैठे देख कर मुझे दिल ही दिल में उनसे नफरत हुई क्योंकि उन की बड़ी बड़ी मूंछों वाले चेहरे ही ऐसे थे कि बहुत बुरे लगते थे और वहां बैठे भी एक दुसरे को गाली से ही बात कर रहे थे।

भैया दवाई बगैरा ले कर आ गए थे और फिर गुड्डी को ले कर अन्दर चले गए, मैं वरांडे में बैठा रहा। कोई आधे घंटे बाद गुड्डी को ले कर भैया आये लेकिन कुछ उदास थे। आते ही उन्होंने बताया कि एक छोटी ऊँगली काटनी पडी थी। सर्जन ने बताया कि अगर उसी वक्त ले आते तो वोह टाँके लगा कर जोड़ सकते थे। हकीम को इलाज नहीं करना चाहिए था। हम गाँव को वापस आ गए। धीरे धीरे जख्म ठीक होने लगा लेकिन जब भी मैं गुड्डी के हाथ को देखता तो मुझे बहुत दुःख होता। आज भी मुझे वोह हाथ उसी तरह दीखता है। गुड्डी की शादी के वक्त मैं यहाँ था। गुड्डी को एक दफा ही मिल सका लेकिन कुछ दोनों घरों के सम्बन्ध ही ऐसे रहे कि गुड्डी को दुबारा मिलने का कभी अवसर नहीं मिला। भैया भाबी इस दुनीआं को छोड़ चुक्के हैं। सुना था गुड्डी की दो बहने कहीं ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं और गुड्डी भी अपने घर में खुश है। अब तो भारत से नाता ही टूट गया है, छोटे भाई और उन के बच्चे भी कहीं ऑस्ट्रेलिया में रहते है, बस राणी पुर में एक घर है जो पता नहीं कितनी यादें छुपाये खड़ा है।

चलता ….

6 thoughts on “मेरी कहानी – 47

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। आज आपकी आत्मकथा के साथ आपके मन को भी पढ़ने का अवसर मिला। सब्ज़ी चोरी की घटना का जो पश्चाताप आपने अपने मन ही मन में किया वह देवत्व का लक्षण है। आप स्वभाव से ही धार्मिक प्रवृति के इंसान हैं। गुड्डी की ऊँगली कटने पर भी आपकी जो मनोदशा दिखाई दी वह आपमें देवत्व की पुष्टि करती है। पूरी कथा रोचक एवं प्रभावशाली है। ईश्वर ने आपको सच्चाई को समझने की शक्ति दी है और साथ ही एक दर्द भरा दिल भी दिया है जो दूसरों के दुखों की चिंता करता है। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद .

  • डॉली अग्रवाल

    ज़िन्दगी के कुछ बीते लम्हे कहानी बन जाते है | ठोकर खाकर ही इंसान अगला कदम सावधानी से बढ़ाता है | सुंदर कहानी

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      डाली अगरवाल जी , बहुत बहुत धन्यस्वाद . आप ने सही कहा ,बीते समय कहानी ही तो होते हैं जिन को पीछे मुड़ कर देखने से हमें अपनी बुराइआन या अछाईआ नज़र आने लगती हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, भाई साहब. गलतियाँ करना मनुष्य का स्वभाव है. सबसे गलतियाँ होती हैं, पर उनसे सीख लेकर बिरले ही सुधरते हैं. आप में गलत काम के लिए पश्चाताप है. यह बड़ी बात है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , जो लोग बड़े बड़े गुनाह करते हैं ,वोह किस तरह इन गुनाहों को सीने में छुपाये रखते हैं ,समझना मुश्किल है , यह जो मेरे गुनाह हैं अभी तक मेरा पीछा छोड़ते नहीं .

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