लघुकथा

“अतीत और गुरू जनों को सादर साष्टांग”

अनायास हंसी आ जाती है | अतीत की बातें कभी सोचकर तो कभी सुनकर | जब हर मोड पर वयों वृद्ध,कहते रहते हैं कि अतीत को भूलना ही बेहतर है | क्या सचमुच वें लोंग भुला पाए हैं अपने अतीत को | शायद नहीं | क्या अतीत से उनकी झुझालाहट उन्हें चैन से जीने दे रही है | क्या बार-बार उनके सीने पर आकर सवार नहीं हों जाती है उनकी पुरानी रात | शायद रोज-रोज उनसे कहती नहीं है वेगैरत हों गए हों तुम, निभा नहीं पाए तो हमें भुलने का नाटक कर रहें हों |
इसी सोंच में पसरा हुआ अपनी गाड़ी में कहीं जा रहा था | चलते-चलते अचानक गाड़ी सड़क पर हुरहुर करके रुक जाती है | ड्राइवर कहता है न जाने क्यों बंद हों गयी | उसके साथ मै निचे उतरता हूँ और सामने मन्नी काका की जानी-पहचानी पुरानी सी प्याज वाली पकौड़ी की दुकान पर सरकता हुआ समय को सताने चला जाता हूँ | कुछ तो नहीं बदला | सब कुछ वही है , वही कड़ाही, वही मंडइ और वैसी ही पकौड़ी | अगर कुछ बदला है तो वह शख्स जो मन्नी काका की जगह पर अपनी पालथी मारे हुए, ठीक उसी अंदाज में उसी सेठिया उसी सेठिया अंदाज में बैठा हुआ है | मन्नी काका का बडा लडका | मैंने पूछा कहाँ हैं ? | तो उसने कहा घर पर | अब चलना-फिरना नहीं हों पाता उनसे | मैंने कहा गरम है क्या | हाँ है तो, कितना दूँ | पचास रुपये की ठीक से बाँध दों…….चटनी, मरचा के साथ | क्या मेरे साथ अपने घर तक चलोगे | उसने प्रश्नार्थ देखा और कहा क्यों | बस ऐसे ही मिलना है | ठीक है चलिए, चलता हूँ | गाड़ी भी अपने आप ठीक हों जाती है | हम उसके साथ चल देते हैं | खटिये पर मन्नी काका अपने बुढ़ापे का छौका लगाते हुए खांसते हुए, हर आने जाने वालों को टुकुर-टुकुर देख रहें होते हैं | मानों बकाया का हिसाब-किताब कर रहें हैं | गाड़ी रुकती है तो उनका रुख शंकाना हों जाता है | बड़े गौर से देखने लगते हैं मानों पहचान की पहचान कर रहें हों | नजदीक जा मै कहता हूँ कैसे हों मन्नी काका | पहचान पाओगे मुझे | आवाज सुनकर उनकों विश्वास नहीं होता है कि कोई (मै) उनसे मिलने आया है | उनके बेटे ने बताया तो भरभरा पड़े | मानों वही मेरा कर्ज खाए हुए बैठे हैं | कांपते हुए अपना हाथ बढाते हैं | जैसे आज भी गरम-गरम पकौड़ी का दोनियाँ पकड़ा रहें हैं | लपककर मैं भी उनके हाथों को चुमते हुए उनके हिलते हुए गले से चिपक जाता हूँ | आंसुओं में धुंधलाया विस्तर शर्माने लगता है | उनकी पुरानी आँखें मेरे आवभगत के लिए कई चेहरों को तरेरने लगती हैं |
साथ लाइ हुयी उन्ही की दुकान की पकौड़ी में से एक, उठाकर उन्हें चखाता हूँ | ताकि उनका भर्राया हुआ स्वाद कुछ बदल जाय | काका आप ने बहुत पकौड़ी खिलाया है आज मै आप को खिलाने आया हूँ | स्वाद बताइए और आशीर्वाद दीजिए अपने लडके को | प्यार का एक अदना तिनका पाकर कांपने लगते है और पुरानी छत टपकने लगती है | गंभीर वातावरण और भी गंभीर हों जाता है | जिसको हिलाने के लिए मैंने कहा, काका आप के ज़माने में रंगीन सड़क का नजारा तो कुछ और ही था | प्याज और मरचा खूब झनझनाया करते थे दुकान पर | अब तो मुरझा गए होंगे ? …..हंसने लगे…..थोड़ी देर बाद रुके और उनके मुंह से कराह निकली ……बुढिया भी साथ छोड़ गयी दो साल हों गया……फिर भीग गए…..एक एक कर सब छूट जायेगा बाबू……आप आये तो मेरा करेजा निहाल हों गया…..मानों मेरा गिरा हुआ धन मिल गया…… |
मेरे जैसे ना जाने कितनों को पकौडिया खिलाकर भी काका ने कभी पैसा नहीं माँगा और आज मेरे आने मात्र से उनका सब कुछ सूद समेत उन्हें वापस मिल गया | वाह रे काका की चटनी…… |
मैंने कहा काका बहुत मुफ्त की पकौड़ी खायी है आज नहीं खिलाओगे तो उसी में से एक पकौड़ी मेरे मुंह में रखकर मुझे आशीष दिये और कहे | दुकान पर कभी-कभार आते रहिएगा, अब चोर, लफंगे…..उनका गला रुध जाता है ……दुकान पर चढ़ जाते हैं……
ठीक है काका अब चलता हूँ आता रहूँगा और ध्यान भी रहेंगा….कहते हुए मैंने उनके हाथ में एक हजार रूपया रखा कि उनके बुढ़ापे में मेरे तरफ से कुछ काम आ जायेगा | तो उन्होंने कहा अरे…..मुझे देखते हुए….यह क्या कर्जा उतारने आये हैं बाबू |
मैंने कहा काका आपने मुझे अपना समझकर खिलाया था कर्ज समझकर नहीं | आज मेरा अपनत्व भी बांवरा हों गया है | बिना मर्जी खिचे हुए चला आया वरना मै तो भूल ही गया था अपने स्वार्थ में आप को | आशीष दीजिए कि फिर आप के दर्शन को आ सकूँ……..
वहाँ, से आगे बढ़ा , मन को अजीब सी खुशी मिली | जिसका वर्णन नहीं कर सकता | मन अतीत में विचरने लगा |
कर्जा उतारने आये हों बाबू….. उनका यह शब्द कानों में गूंजने लगा | उन सबकी याद आने लगी जो न जाने कहाँ से कहाँ खो गए हैं, मेरे अतीत को बिना स्वार्थ सुलझाकर |
जिसमे बिना पैसे के……..मेरे ही टूटे हुए चप्पलों को हाथों में पकड कर पॉलिश करते हुए करन मोची काका | सायकल का छर्रा ग्रीस के साथ सजाते हुए लल्लन चचा | फटे हुए सर्ट की कालर को उलटकर बिलकुल नया बनाते हुए रहमान चाचा | पुराने पैंट को क्रीच लगाते हुए भाई रामायन धोबी और बांस की जड़ में से क्रिकेट का गेंद बनाते हुए अभिवावक रतन लोहार | अपने पीठ पर बिठाने वाले तमाम हाथी घोड़े | जो अब न जाने कहाँ से कहाँ चले गए | सबका कर्ज ही तो चढा हुआ है इस गाड़ी पर | जो न जाने कितनों के ममत्व और आशीर्वाद से रुकते-चलते हुए अपनी सड़क पर दौड़ ही रही है | कैसे भूल जाऊ इन सारे लोगों को जिन्होंने अपने समय में एक बार भी मेरी जरुरत को मना नहीं किया | यह जानकर भी कि देने के लिए मेरे पास बचपना के अलावां कुछ भी नहीं है | खिलाते गए, चमकाते गए, मेरे उस अतीत को जिसके वें लोंग न सगें थे नाही संबंधी |
इतना स्वार्थी कैसे बन जाऊँ और ऐसे ईमानदार अतीत को भूल जाऊँ | क्या मेरे आज में उनके त्याग का योगदान नहीं है | काश आज मेरे सारे अतीत मुझे मन्नी काका की तरह कहीं न कहीं मिल जाते तो मेरा भविष्य और भी चमक जाता | एक और स्वार्थ की मेरी यह कामना उन्हें उनकी दुकानों में अकेले ही ढूढ रही है | सादर नमन करता हूँ उस अतीत को जो आज भी मेरे यादों में जीवित है…….
आज गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर इन तमाम अभिवावक, गुरुजनों को सादर साष्टांग नमन, जो सखा और गुरू बनकर मुझे बहुत कुछ परोंस और सीखा गए |
महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ