कविता

उलझना कहाँ वे चहते !

 

उलझना कहाँ वे चहते, अधिक संसार के रिश्ते;
बीज जब दग्ध हो जाते, उगा अंकुर कहाँ पाते !
देख सुन समझ जब जाते, भोग जीवन के कर जाते;
देख ऊपर से सब लेते, भरे आनन्द वे रहते !
सहज जो मिलता ले लेते, जो हो जाता वे कर लेते;
नहीं उद्विग्न मन होते, समर्पित भाव में रहते !
शून्य उर सृष्टि को तकते, दृष्टि में तथागत होते;
नहीं आसक्ति में फँसते, शक्ति अध्यात्म फुर रहते !
प्रबन्धन दूर से करते, प्रपादित व्यवस्था करते;
अवस्था ‘मधु’ की लख लेते, ज़रूरत जो दिला देते !
गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा

 

One thought on “उलझना कहाँ वे चहते !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत सुन्दर और गहराई भरपूर रचना .

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