कविता

औरत की अंतर्कथा 

तुम गाते रहते हो गीत,
बताते रहते हो आफताब मुझे,
दर-हकीकत तुम्हारे लिए क्या हूँ,
बस इतना दो जवाब मुझे।
तुम मेरे जिस्म से भीतर,
झांकते तो हो,
पर थक कर रुक जाते हो,
ऊपरी सतह पर।
कभी अन्दर तक उतरो तो सही,
मेरे भीतर डरी सहमी उम्मीदों के,
रास्ते से कभी गुजरो तो सही,
कभी मेरी रूह तक तय करो सफर।
फिर देखना झुक जाएगी निगाहें,
तुम्हारी,शर्म से गड़कर ।
क्योंकि अन्दर वो दर्द छिपा है,
तुम्हारे थप्पड़, गालियों और दरिंदगी का ,
और तुम्हारी जानवर सी ,
मर्दानगी का छापा छपा है।
और वो सारा दर्द छिपा है,
जो जाने अनजाने तुमने दिया।
और अफ्सानो का क्या है,
उनमे तो तुमने मुझे कभी फूल,
कभी चाँद, तो कभी आफताब कहा है ।

माधव अवाना