संस्मरण

मेरी कहानी 49

कुछ ही दिनों में कैंप में हम ऐसे रहने लगे थे जैसे बहुत देर से यहां रह रहे हों। राकेश कुमार और जोशी जी कहीं स्कूल में अधियापक ही थे और उन की ड्यूटी यहां कैंप में लड़कों को ऑर्गेनाइज और उन की देख भाल करने के लिए ही थी और उन को इस काम के पैसे मिलने थे। सभी लड़कों के नाम अब मुझे भूल गए हैं लेकिन एक ही लड़का जो फगवारे के आर्ट्स कालज का था उस का नाम भी इसी लिए याद है क्योंकि वोह यहां ही कुछ दूरी  पर रहता है , उस का नाम है हर बिलास और कुछ साल हुए हम रोज़ाना लाइब्रेरी में मिलते रहते थे। अब एक दोस्त के जरिए मुझे उस का पता चलता रहता है  कि अब वोह भी इतना ठीक नहीं रहता ,घुटनों में दर्द और दिल की बीमारी उस को परेशान करती है। किसी किसी दिन बीडीओ साहब और चीफ कैंप ऑफिसर भी आते रहते थे। बीडीओ साहब ऊंचे लम्बे तगड़े सरदार जी थे लेकिन वोह बात बात पे अंग्रेजी बोलते रहते थे। चीफ कैंप ऑफिसर किया करता था हमें मालूम नहीं लेकिन बीडी ओ उस को नीचे रखते थे और अपना रोअब झाड़ते रहते थे ,किओं ?यह हमें पता नहीं और एक दफा तो बीडीओ ने उस को गाली भी निकाली थी और वोह विचारा झेंप सा गिया था। हम बीडीओ को मन ही मन में नफरत करने लगे थे।

            जोशी और राकेश कुमार दोस्तों की तरह हमारे साथ रहते थे। राकेश तो बहुत जोक सुनाया करता था। जीत और राकेश की आपस में हंसी की बातें बहुत हुआ करती थे। एक दफा राकेश ने हमें एक जोक सुनाई थी जो कुछ इस तरह थी,” एक मेले में बहुत लोग थे लेकिन शौचालय एक ही था और उस में जाने के लिए लम्बी लाइन लगी हुई थी लेकिन जो भी शौचालय से बाहर निकलता वोह हँसता हँसता ही बाहर आता था। आखर में मैं भी अंदर गिया तो सामने दीवार पर लिखा हुआ था “तुम्हारी किस्मत का सितारा चमकने वाला है और यह जानने के लिए सारा पड़ो “, दीवार पर लिखा था कि एक लाटरी का टिकट खरीदो और फिर सारी दीवार पर लिखा मैंने पड़ा जो काफी दिलचस्प था , आखर में लिखा था ,कहाँ से टिकट खरीदना है यह अपनी दाईं ओर पड़ो। मैंने सारा पड़ा और आखर में लिखा था , कितने का टिकट खरीदना है यह जानने के लिए अपनी बाईं ओर लिखा हुआ पड़ो। मैंने बाईं ओर दीवार पर लिखा हुआ पड़ा। आखर में लिखा था ,यह लाटरी कब निकलेगी ,यह जानने के लिए पीछे की ओर देखो” यूं ही मैंने पीछे की ओर देखा ,लिखा था ,”कैसे बेवकूफ हो तुम ,बाहर इतने लोग इंतज़ार कर रहे है और तुम यहां पढ़ाई कर रहे हो “. मैं भी हँसता हँसता बाहर आ गिया। राकेश कुछ वर्षों बाद जब मैं कालज में था हमारे ही गाँव के स्कूल में  ट्रांसफर हो कर आ गिया। जिस कमरे में वोह किराए पर रहता था वोह हमारे घर से पांच मिनट की दूरी पर ही था।
एक दिन मैं राकेश को मिलने चला गिया। पहले मेरी नज़र दीवार पर पड़ी ,वहां दो फ्रेम की हुई फोटो थी ,एक में एक खूबसूरत साड़ी में राकेश की ही उम्र की एक  इस्त्री की फोटो थी जिस के नीचे लिखा हुआ था ,” तुम चले गए और मेरी दुनिआ में अंधेर हो गिया ” और दुसरी में मेरी उम्र की ही एक लड़की की फोटो थी जिस को देख कर मैं बहुत हैरान हुआ क्योंकि वोह हमारे ही कालज में पड़ती थी और एक क्लास हम से आगे थी। यह लड़की सपोर्ट्स में तो आगे थी ही लेकिन इस से सभी लड़के डरा करते थे क्योंकि वोह किसी से भी झगड़ पड़ती थी और इसी लिए  पीठ पीछे लड़कों ने  इस का नाम हिटलर रखा हुआ था। राकेश उस वक्त स्टोव पर सब्ज़ी बना रहा था और पास ही उस का पांच शै साल का बेटा बैठा था। राकेश मुझे देख कर बहुत खुश हुआ और हम कैंप की बातें करने लगे। राकेश अपने बेटे से भी हंस हंस कर बात किये जा रहा था और उस को हंसा रहा था। बहुत देर तक हम बातें करते रहे आखर में मैंने उन फोटो के बारे में पूछ ही लिया। हिटलर वाली फोटो से तो  मैं समझ तो गिया ही था क्योंकि फोटो में लड़की की शकल राकेश से मिलती थी। राकेश बोला ,”यह मेरी बहन है ,शायद तुम ने इसे कालज में देखा ही होगा और यह मेरी बीवी थी जो अब इस दुनिआ में नहीं है”। राकेश कुछ संजीदा हो गिया था और मुझ में भी इतना हौसला नहीं था कि उन से पूछूँ कि किया हुआ था। कुछ ही मिनटों में राकेश ने अच्चानक बात बदल दी और कैंप की बातें करने लगा। कुछ देर और वहां बैठ कर मैं आ गिया लेकिन वोह फोटो ,उस का बेटा , उन का छोटा सा कमरा और स्टोव पर सब्ज़ी बनाते राकेश की कभी कभी याद आ जाती है। इस के बाद भी हम मिलते रहे और राकेश की याद का मनका मेरी यादों की माला में मौजूद है।
एक दिन मैं और जीत जंगल पानी के लिए बाहर गन्ने के खेतों की ओर गए ,कुछ मूड अच्छा था और हम गाने लगे। पीछे से राकेश आ गिया और आते ही बोला ,” यार तुम दोनों तो बहुत अच्छा गाते हो , रात को दीवान में क्यों नहीं गाते ?. बस उसी शाम से हम ने ९ बजे के प्रोग्राम में गाना शुरू कर दिया। हम ने हारमोनियम के लिए राकेश को कहा तो दूसरे ही दिन गाँव के गुरदुआरे से हमारे लिया वाजा और ढोलक भी आ गए। अब तो हर रात रौनक बढ़ने लगी। कैंप में दो गैस लैन्टर्न थे और एक दिन दोनों खराब हो गए। अँधेरा हो गिया। किसी से कुछ नहीं बन पाया तो जीत कोशिश करने लगा। जीत शुरू से ही मकैनिकल माइंडेड रहा है। आधे घंटे में जीत ने दोनों गैस ठीक कर दिए। उस दिन से जीत का नाम पड़  गिया जीत गैस वाला। अब रोज़ जीत ही गैस लैन्टर्न को जगाता और कुछ नुक्स हो तो उसी वक्त ठीक कर देता।  जीत के पिता जी पूरन  सिंह बहुत ही धांमिक विचारों के थे और हर संक्रांत को गुरदुआरे में कीर्तन किया करते थे और जीत साथ में ढोलक बजाया  करता था और गाता  भी था । जीत को बहुत से धार्मिक गीत आते थे। एक रात को जब हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ तो जीत ने बहुत से धार्मिक गीत गाये। लड़के जमाईआं लेने लगे ,एक तो बोल ही उठा ,” गैस वाले भाई ! यह कोई गुरदुआरा नहीं है ,कोई मसालेदार गीत सुना “. जीत ने कोई गुस्सा नहीं किया और एक और  गीत गाने लगा जो मुझे याद तो नहीं लेकिन कुछ कुछ शुरू के बोल याद हैं जो इस तरह पंजाबी में थे ,” आ नी कुड़ीए शहर दीए  तैनू पिंड दी कुड़ी दिखावां , किताबां चकदी दीआं ,तेरीआं थक जांण बाहाँ ,आ  नी कुड़ीए शहर दिए ,तैनू पिंड दी कुड़ी दिखावां “. गाना खत्म होते ही इतनी तालिआं और सीटीआं बजीं कि सभी खुश हो गए। जोशी जी आ कर बोले ,” बई जीत तुम तो छुपे रुस्तम निकले “.
सड़क का काम तेज़ी से आगे बड़ रहा था। तकरीबन १५ फ़ीट चौड़ी सड़क थी। अब तो देख देख हम भी खुश होते। कुछ ही दिनों में एक मील सड़क बन गई लेकिन कभी कभी किसानों और अफसरों की बहस हो जाती लेकिन हम अपने काम में मसरूफ रहते। एक दिन जब हम ने काम खत्म किया तो सभी पसीने से भीगे हुए थे क्योंकि उस दिन गर्मी बहुत थी। नज़दीक ही एक कुँआ था। सभी ने नहाने का प्रोग्राम बना लिया। पहले तो हम ने धक्का लगा कर कूंएं को चलाया और उस पानी से सभी नहाने लगे। फिर हम कुछ लड़कों ने कुएं के बीच जा कर नहाने का प्रोग्राम बनाया ,इस में जोशी भी साथ था। पानी वाली टिंडों की चेन को पकड़ कर हम कूंएं में उत्तर गए और तैरने लगे। कूंएं के बीच पानी में तैरना बहुत आसान है ,सिर्फ जाने का एक भय ही है। यूँ तो कूंएं का पानी दस पंद्रां  फ़ीट गहरा होता  है लेकिन यह पानी ऊपर को प्रैशर डालता है ,इस लिए ज़्यादा जोर नहीं लगाना पड़ता। हम ने बहुत मज़े किये। नहा कर हम वापस कैंप में आ गए और बहुत से लड़के दरख्तों के नीचे चारपाईआं रख कर लेट गए और कुछ ताश खेलने लगे। कभी कभी कोई डाक्टर भी कैंप में आता था और सब्ज़िओं के बारे में बता कर जाता था। डाक्टर ने हफ्ते में एक दफा करेले की सब्ज़ी बनाने को कह दिया। ऐक दिन करेले का टोकरा आ गिया लेकिन रसोइआ अब चले गिया था और हम ही खाना बनाने लगे थे। करेले की सब्ज़ी अभी तक किसी ने नहीं बनाई थी। हम ने और सब्ज़िओं की तरह ही करेलों को काट कर सब्ज़ी बना दी। जब बनी तो इतनी कड़वी बनी कि किसी से खा नहीं हो रही थी। हम को चाय बनानी पडी और उसी के साथ ही रोटी खाई।
सड़क काफी दूर तक बन गई थी लेकिन एक दिन हम को कहा गिया कि आगे का हिस्सा छोड़ कर हम को फगवारे की सड़क से शुरू करके लख पुर की ओर बनानी शुरू करनी होगी क्योंकि यह हिस्सा कुछ ज़्यादा ही विवादिक था। हम अपने फावड़े और टोकरे उठा कर फगवारे की ओर चल पड़े। वहां पौहंचने के लिए हमें एक घंटा लग गिया लेकिन यहां शुरू करना था वहां मक्की का खेत था। मक्की बहुत बड़ी हो चुक्की थी। जब हमारे जोशी जी और राकेश ने हमें शुरू करने को कहा तो आगे से किसान आ गए और गालिआं देने लगे। झगड़ा शुरू हो गिया। जोशी उन को कहने लगा ,” हमें जो ऑर्डर मिले हैं हम ने तो करना ही है लेकिन अगर तुम ने हमारे कैम्परज़ को हाथ लगाया तो हमें पुलिस बुलानी पड़ेगी “. इस के बाद कोई और ऊंचा तगड़ा आदमी आया और बोला ,” एक महीने में फसल तैयार होने वाली है और तुम यह कत्लेआम कर रहे हो ,कितनी बेइंसाफी है यह “. जोशी और राकेश भी धीमें स्वर में बोलने लगे ,”सरदार जी ! यह तो हमें भी मालूम है लेकिन हम भी क्या करें ,हमें ऊपर से आर्डर हैं “. इस के बाद सभी किसान उदास हुए वापस चले गए और हम ने अपना काम शुरू कर दिया।
पता ही नहीं चला कि कब बीस दिन हो गए और दूसरे दिन हमारा आख़री दिन था और उस दिन हम ने कोई काम नहीं करना था। सुबह का नास्ता करके सबी शामिआने के नीचे आ बैठे। उस दिन सभी अफसर आये हुए थे और लाऊड स्पीकर भी रखा गिया था। लैक्चर तो मुझे याद नहीं लेकिन हम कुछ लड़कों को  कुछ प्राइज़ दिए गए। प्राइज़ छोटे छोटे थे और मुझे भी ज़िंदगी में पहली दफा प्राइज़ मिला लेकिन यह एक हौसला अफ़ज़ाई ही थी। बीडीओ ने हम सब का धन्यवाद किया और एक एक करके सभी कैम्परज़ को भारत समाज सेवक सर्टीफिकेट दिए गए और तालिआं बजती रही। यह सर्टिफिकेट अब भी मेरी फ़ाइल में है और जब कभी इसे देखता हूँ तो पुरानी याद ताज़ा हो जाती है। आखर में हम सब को पांच पांच लड्डू दिए गए। फिर राकेश ने एक ब्लैक बोर्ड पर अंग्रेजी में एक ऍप्लिकेशन लिखी जिस को हम सब ने कापी करके के राकेश को पकड़ा दी। यह ऐप्लिकेशन फगवारे से लख पुर तक का बस का किराया था। इस के बाद हम को जाने आने का किराया दे दिया गिया और हम वापस चल पड़े।
जब हम घर आये तो हमारा जी नहीं लगता था ,पता नहीं किया मिस हो गिया था। बहुत दिन उदास रहे लेकिन कब तक ? आखर तो हम ने असलियत में आना ही था।
चलता……

7 thoughts on “मेरी कहानी 49

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    अति हर्ष की अनुभूति हुई

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आपके जीवन की यादें मधुर व भावी जीवन की आधार हैं। ऐसा लगा कि हम सिनेमाघर में बैठे सिनेमा देख रहे हों। इन सुन्दर अनुभवों में हमें साझीदार करने के लिए धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद .

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई ,धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक बातें ! पढ़कर मजा आ गया !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    पढ़ते पढ़ते हंसी आई संजीदा हुई
    यादाश्त को दाद देती हूँ भाई जी

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहुत बहुत धन्यवाद बहन जी .

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