आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 33)

मलेशिया-सिंगापुर-श्रीलंका भ्रमण (जारी…)

हम एक साथ ही एक ही बड़ी टैक्सी में बैठकर एक होटल तक आये, जहाँ कमरा मिला। वास्तव में हमें किसी दूसरे होटल में जाना था, लेकिन ड्राइवर को स्पष्ट आदेश नहीं दिये गये थे, इसलिए वह किसी और होटल में ले गया। कमरे वहाँ भी मिल गये, जो अच्छे थे। वहाँ हमें कमरों की चाभी किसी क्रेडिट कार्ड की तरह दी गयी थी। उसमें सारी बातें भर दी जाती हैं। कमरा खोलने के लिए उसे दरवाजे में ही लगे हुए एक स्कैनर से स्कैन करना पड़ता है। अगर कार्ड सही होता है, तो कमरा खुल जाता है। रहने की अवधि पूरी हो जाने पर कार्ड अपने आप बेकार हो जाता है। ऐसे कार्डों में थोड़ा सा अतिरिक्त खर्च होता है, लेकिन व्यवस्था बहुत ही सुविधाजनक है। मलेशिया और सिंगापुर के सारे होटलों में ऐसी ही चाभी दी जाती है। भारत में तो ऐसा अभी भी केवल 5 स्टार होटलों में होता है।

क्वालालाम्पुर एक अच्छा शहर है। लेकिन वहाँ शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलना कठिन होता है। पहले दिन हमें अपना भोजन तलाशने में बहुत कठिनाई आयी। दोपहर को हमने वहीं एक होटल में खाना खा लिया, जो बिल्कुल स्वादिष्ट नहीं था। मलेशिया में कपड़े बहुत सस्ते मिलते हैं। वहाँ की मुद्रा रिंगित है। उस समय एक रिंगित 14 रुपयों के बराबर होता था। वहाँ 6 रिंगित में ही बच्चों के अच्छे कपड़े मिल जाते हैं। अधिक रिंगित में अधिक अच्छे कपड़े मिलते हैं। सारे कपड़े चीन में बने होते हैं।

शाम को हम चाइना टाउन गये। वहाँ जाने के लिए मोनो रेल चलती है। इसमें केवल एक या दो डिब्बे होते हैं। इसकी पटरी खम्भों पर टिकी होती है, अर्थात् यह हवा में चलती है। हमें इसमें बहुत मजा आया। जाते हुए और आते हुए भी मेट्रो में बैठे हुए ही क्वालालाम्पुर के बाजार देखे, जो बहुत सुन्दर हैं।

चाइना टाउन में, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, चीनियों की दुकानें हैं। वहाँ सभी वस्तुएँ मिलती हैं। वास्तव में सारी दुनिया के बाजार चीनी माल से पटे पड़े हैं। पर ये दुकानें खुद चीनियों की हैं, इसलिए अधिक भीड़ रहती है। इन दुकानों में चीनी लड़कियाँ ग्राहकों को लूटने की पूरी कोशिश करती हैं। दाम दूने-तिगुने बताती हैं और मोल-भाव करने के लिए तैयार रहती हैं। यदि आप मोल-भाव करना जानते हैं, तो उचित दामों पर वस्तुएँ खरीद सकते हैं, वरना ठगे जाने की पूरी संभावना है। चाइना टाउन से हमने ज्यादा खरीदारी नहीं की, लेकिन घूमे खूब। वहीं पास में ही एक दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट है। वहाँ अच्छा खाना बाजिब दामों पर मिलता है। हालांकि हम थोड़ा लेट हो गये थे, लेकिन काम चलाऊ भोजन मिल गया।

अगले दिन हमने होटल में नाश्ता किया। वहाँ नाश्ते का अच्छा इंतजाम होता है, क्योंकि अधिकांश टूरिस्ट केवल नाश्ता होटल में करते हैं। वहाँ सभी तरह के नाश्ते की व्यवस्था होती है और सैकड़ों वस्तुएँ बनी हुई रखी रहती हैं। गर्म करने की भी व्यवस्था है। नाश्ते में माँसाहारी चीजें जैसे मछली, सी-फूड वगैरह भी होता है। उनको देखकर श्रीमती जी को मितली आती है, इसलिए हमने एक कोने में बैठकर नाश्ता किया। मैं क्योंकि चाय या काॅफी नहीं पीता, इसलिए दूध गर्म करा लिया, जो वहाँ उपलब्ध रहता है। सब लोग तगड़ा नाश्ता करते हैं, क्योंकि दोपहर के भोजन का कोई ठिकाना नहीं है कि कब-कहाँ-कैसा मिलेगा और मिलेगा भी कि नहीं।

नाश्ते के बाद हम पेट्रोनास के जुड़वाँ टावर देखने गये। मैंने सोचा था कि मामूली सी मीनारें होंगी। लेकिन पास जाकर देखा तो वह अच्छा-खासा बाजार ही था। लगभग एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ। उसमें अंडरग्राउंड पार्किंग की भी व्यवस्था है। दोनों टावर दुनिया में सबसे ऊँचे ट्विन टावर माने जाते हैं। ये 46वीं मंजिल पर एक गलियारे से जुड़े हैं। लेकिन टावर के अन्दर जाने की अनुमति सबको नहीं होती। रोज प्रातः केवल 100 पास बनाये जाते हैं। उसके बाद केवल वहाँ काम करने वाले लोग ही टावरों के अन्दर जा सकते हैं। वैसे नीचे की पहली मंजिल पर अनेक सुन्दर दुकानें हैं, जहाँ सब घूम सकते हैं। ऊपर की मंजिलों पर शायद केवल कम्पनियों के आॅफिस हैं। हमें ट्विन टावर देखकर बड़ा मजा आया। रात को हमने अपने होटल की एक खिड़की से ट्विन टावरों को देखा, तो वे हीरों की तरह चमकते हुए दिखाई पड़े। यह देखकर हमें बहुत अच्छा लगा।

वहाँ से हम क्वालालाम्पुर टावर देखने गये। वह भी काफी ऊँची है, लेकिन उसमें टिकट लगती है, जो लगभग 250 रुपये के बराबर थी। टिकट लेकर हम लिफ्ट से ऊपर गये। वहाँ से सारा शहर दिखाई देता है। ऊपर भी दुकानें हैं, लेकिन केवल खाने-पीने के सामान की। वहाँ से हम मलेशिया के राजा का महल देखने गये, जो बाहर से ही देखा जा सकता है। रास्ते में एक चाकलेट फैक्टरी है, जहाँ चाकलेट बनाते दिखाया जाता है। बेची भी जाती हैं, लेकिन उनके रेट बहुत ऊँचे हैं।

शाम को हम खाना खाने फिर चाइना टाउन के पास गये। हालांकि वहाँ जाने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि हमारे होटल के पास ही एक अच्छा दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट है, जिसके बारे में हमें पहले पता नहीं था।

अगले दिन हम बटरफ्लाई पार्क देखने गये। वहाँ हजारों तरह की तितलियाँ रखी जाती हैं। बहुत अच्छा लगा, हालांकि गर्मी काफी थी। दोपहर बाद हमने टाइम्स स्क्वायर देखने की योजना बनायी। यह 7 मंजिल का बाजार है और हर मंजिल पर लगभग 200 दुकानें हैं। इसी में एक वाटर पार्क भी है, जहाँ टिकट लेकर खेल कराये जाते हैं। दीपांक और मेहरोत्रा जी का लड़का उसे देखने चले गये। हम दुकानें देखने लगे। हमने नोट किया कि हर मंजिल चढ़ने पर चीजों के रेट कम होते जाते हैं, जैसा कि स्वाभाविक भी है, क्योंकि ऊपर की मंजिलों पर ग्राहक कम जाते हैं।

शाम को हमने अपने होटल के पास ही दक्षिण भारतीय भोजन किया। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि पूरे मलेशिया में दक्षिण भारतीय (मुख्यतः तमिल) बड़ी संख्या में रहते हैं। वे प्रायः टैक्सी चलाते हैं तथा अन्य कार्य भी करते हैं। वे भारतीयों की बहुत सहायता भी करते हैं, हालांकि हिन्दी नहीं समझते, केवल अंग्रेजी में बात कर लेते हैं। उनके कारण पूरे मलेशिया में कहीं भी दक्षिण भारतीय भोजन सरलता से मिल जाता है, जबकि उत्तर भारतीय भोजन मिलना कठिन होता है।

अगले दिन हमें जेंटिंग जाना था, जो एक ऊँचे पहाड़ पर बना हुआ टूरिस्ट स्पाॅट है। हमें यह पहले ही बता दिया गया था कि जेंटिंग में खाने-पीने की कोई चीज नहीं मिलेगी, इसलिए अपना इंतजाम करके जाना है। हमारे साथी अधिकारी ऐसे पैकेट लाये थे, जिनमें केवल गर्म पानी मिला लेने से अच्छी खाने योग्य वस्तु बन जाती है, जैसे नूडल, पुलाव आदि। हमने उससे ही काम चलाया। गर्म पानी होटल की हर मंजिल पर उपलब्ध रहता है।

जेंटिंग के रास्ते में पहले हमने एक दक्षिण भारतीय मंदिर देखा, जिसे मुरुगन स्वामी कहा जाता है। यह शिवजी और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय का मन्दिर है, जो देवताओं के सेनापति माने जाते हैं। मंदिर एक खोखले पहाड़ की गुफा में बना है और वहाँ तक जाने के लिए लगभग 100 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। गुफा की छत में एक बड़ा छेद भी है, जिससे सूर्य की रोशनी और धूप भी खूब आती है। अच्छा रमणीक स्थान है। देखकर हमें बड़ा मजा आया। मंदिर के पास ही हमने दोपहर का भोजन किया। वहाँ से जेंटिंग के लिए चले।

यों तो जेंटिंग के लिए सड़क का रास्ता भी है, जिससे डेढ़ या दो घंटे लगते हैं। लेकिन हमें एक स्थान से रोपवे की ट्राॅली में बैठाया गया। ट्राॅली पर बैठकर सारा पहाड़ दिखायी देता है। रास्ता बहुत लम्बा है। इसलिए ट्राॅली में भी कम से कम आधा घंटा लग जाता है।

जेंटिंग में दुनिया का सबसे बड़ा होटल है, जिसमें कहा जाता है कि 5 हजार कमरे हैं। कमरे बुक कराने के लिए वहाँ एक-दो नहीं पूरे 32 काउंटर हैं, जो दिन-रात काम करते रहते हैं। फिर भी काफी देर इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि भीड़ बहुत रहती है। वहाँ टोकन से नम्बर लेना पड़ता है। जो भी काउंटर खाली होता है, अपना नम्बर आने पर हम उसी पर जाकर अपना काम करा सकते हैं। यह सारी व्यवस्था कम्प्यूटरीकृत है। हमारे साथ जो ड्राइवर था, उसने सारी व्यवस्था कर दी। कमरे अच्छे थे। हम 10 व्यक्ति थे, इसलिए हमें 5 कमरे दिये गये।

होटल के कमरे में पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी, इसलिए हम रेडीमेड भोजन करके सो गये और दूसरे दिन सुबह नाश्ता करने के बाद ही घूमने निकले। वहाँ देखने की चीजें उसी होटल में नीचे हैं। वास्तव में वहाँ और कोई होटल या दुकान है ही नहीं। वहाँ तरह-तरह के विलक्षण झूले और मनोरंजन की वस्तुएँ हैं। एक मिनी रेल भी चलती है। इन सबमें टिकट लगती है।

लेकिन वहाँ की सबसे प्रमुख चीज है कैसिनो अर्थात् जुआघर। वहाँ दुनिया के सबसे बड़े कैसिनो माने जाते हैं। संसार भर के लोग वहाँ जुआ खेलने आते हैं और अपनी जेबें खाली करके चले जाते हैं। हमने कभी कैसिनो देखे नहीं थे। एक में हमें जाने दिया गया, तो देखा कि वहाँ तरह-तरह के जुए खिलाने की अनेक मेजें लगी हुई हैं। हर मेज पर कम्प्यूटर की सहायता से एक लड़की जुआ खिला रही थी। वह ताश कम्प्यूटर से ही बँटवाती थी और दाँव पर लगे टोकन एकत्र करती थी। जीतने वाले को टोकन ही देती थी। जब कोई आदमी अपने सारे टोकन हार जाता था, तो नकदी देकर और टोकन खरीद सकता था तथा बचे हुए टोकन देकर नकदी ले सकता था।

मैं काफी देर तक यह खेल देखता रहा और समझ गया कि इस खेल में केवल कम्प्यूटर जीतता है और सभी खिलाड़ी धीरे-धीरे सारे टोकन हार जाते हैं, हालांकि बीच-बीच में वे जीतते भी हैं।

एक और जगह जुआ हो रहा था, लेकिन वहाँ पुरुषों को टिकट लेकर ही जाने दिया जाता था। केवल महिलायें बिना टिकट जा सकती थीं। श्रीमतीजी हमारे समूह की अन्य महिलाओं के साथ थोड़ी देर के लिए वहाँ गयीं और ऊबकर वापस आ गयीं।

हम दिन भर जेंटिंग में खूब घूमे। सुबह ही हमें हवाई जहाज से सिंगापुर जाना था। इसलिए नियत समय पर टैक्सी आ गयी और कई घंटे बाद हम हवाई अड्डे पहुँच गये। हमारी उड़ान शाम के समय थी, जबकि हम दोपहर को ही पहुँच गये थे। इसलिए लगभग 3-4 घंटे क्वालालाम्पुर हवाई अड्डे पर ही गुजारे। वहाँ घूमने-फिरने पर कोई रोकटोक नहीं है। ढेर सारी दुकानें हैं। उनमें अच्छे खिलौने आदि बिक रहे थे, परन्तु वजन अधिक हो जाने के डर से हमने कुछ नहीं खरीदा।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 33)

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आपके साथ मलेशिया / क्वालालम्पुर की यात्रा व पर्यटन स्थानो के दर्शन एवं अनुभव पूरा तो नहीं कुछ कुछ अवश्य प्राप्त हुआ। वेदो में एक जगह आता है कि “देवा पश्य काव्यम न ममार न जीर्णति” अर्थात हे मनुष्यों, ईश्वर की बनाई सुन्दर सृष्टि को देखो जो न कभी पुरानी पड़ती है ना जीर्ण होती है। वस्तुतः ईश्वर ने सारा संसार ही बहुत सुन्दर बनाया है। जो व्यक्ति जितना घूमता है वह उतना ही ईश्वर व सृष्टि के निकट पहुचता है। आज की क़िस्त भी बहुत ही अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद श्री विजय जी।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम मान्यवर ! आभारी हूँ.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , हम ने भी आप के साथ सैर कर ली ,बहुत अच्छा लगा .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब! सात समंदर पार दूर दूर के देशों में घूमने का मौक़ा बार बार नहीं मिलता। इसलिए जो मौक़ा हमें मिला उसका हमने पूरा आनंद उठाया।

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