स्वास्थ्य

देश की चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को राष्ट्र सापेक्ष बनाएं

एक आम नागरिक की पाती मोदी सरकार के नाम

देश की चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को राष्ट्र सापेक्ष बनाएं

  • चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि सभी शासकीय, निजी और एम्स के तहत कार्यरत चिकित्सा महाविद्यालयों या संस्थानों के विद्यार्थियों को पूरे पाठ्यक्रम के दौरान, महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस, सेवाग्राम की तर्ज पर,हर साल सामाजिक सेवा शिविर के तहत केवल दस दिनों के लिए क्लीनिकल पोस्टिंग के तहत अपने शिक्षकों और वरिष्ठ साथियों (स्नातकोत्तर अध्ययनरत) के साथ सुदूर गांवों, आदिवासी या वनवासी क्षेत्रों या गरीब बस्तियों में ले जाया जाए I ऐसा मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इण्डिया के प्रचलित प्रावधानों के तहत किया जा सकता है I इन स्थानों में विविधानेक प्रकार के अभावों में जीवनयापन कर रहे नागरिकों की वास्तविक स्थितियों से अवगत होने पर भावी चिकित्सकों के मन मस्तिष्क में उनके प्रति संवेदना, दायित्वबोध, कर्तव्य भावना तथा सहानुभूति का भाव स्वत: ही विकसित हो सकता है I यदि वे इसतरह गरीब, ग्रामीण, आदिवासी, निराश्रित या उपेक्षित नागरिकों के प्रति संवेदनशील (सेंसिटाइज) होते हैं, तो यह स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्थापना की दिशा में सार्थक कदम सिद्ध हो सकता है I इससे निश्चित रूप से ग्रामीणों की स्वास्थ्य-सेवाओं में गुणात्मक प्रभाव भी पड़ेगा I अपनी इस क्लीनिकल पोस्टिंग के तहत उन्हें अपने टीचर और सीनियर के मार्गदर्शन में प्रतिदिन पांच घन्टे की पोस्टिंग में पंद्रह नागरिकों से बातचीत करने के बाद (मेडिकल की भाषा में इसे हिस्ट्री टेकिंग कहा जाता है), उन्हें प्रत्येक नागरिक का जनरल एग्जामिनेशन करना होगा I चूंकि मेडिकल विद्यार्थियों को प्रथम वर्ष के आरम्भिक दिनों में ही जनरल एग्जामिनेशन के तहत किसी भी व्यक्ति के सामान्य स्वास्थ्य (कद, काठी, पोषण की स्थिति, नाड़ी, ब्लडप्रेशर, दृष्टि की स्थिति आदि) के आकलन की विधा सिखा दी जाती है, अतएव गांव में उनका प्रवास, उनकी क्लीनिकल पोस्टिंग (प्रशिक्षण की दृष्टि), संवाद कौशल्य शिक्षण तथा परिस्थितिजन्य रोग निदान विधा सिखाने के लिए सहजता के साथ आयोजित किया जा सकता है I यदि इस सुझाव को लागू किया जाता है तो इसके बहुआयामी प्रभाव सहज सम्भव हैं I इस दौरान वे अपने शिक्षकों तथा वरिष्ठ साथियों की उपस्थिति एवं मार्गदर्शन में विभिन्न रोगों के क्लीनिकल प्रजेंटेशन के कई अछूते तथ्यों का भी प्रत्यक्ष शिक्षण प्राप्त कर सकेंगे I एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि कुछ सालों में ही देश अथवा प्रदेश के हरेक नागरिक का वास्तविक स्वास्थ्य डाटा हमारे पास होगा I वर्तमान में हम ऐसे सर्वेक्षणों के लिए विदेशी एजेंसियों के अविश्वसनीय सेम्पल सर्वे पर निर्भर हैं I ऐसे सर्वेक्षणों को अविश्वसनीय बताने के प्रमाण स्वरुप एक सर्वे का उल्लेख प्रासंगिक होगा I दो तीन साल पहले ही एक एजेंसी के हवाले से एक बड़ी खबर में बताया गया था कि मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों के 74 प्रतिशत बच्चें कुपोषित हैं, जो निराधार – सा है, क्योंकि अधिकांश आदिवासी बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता सुपोषित शहरी बच्चों की अपेक्षा ज्यादा सशक्त होती है, वे हर मौसम में नंगे खेलते रहते हैं, बीमारियां उन्हें नहीं बन्द कमरों में पल रहे हमारे बच्चों को होती है I जबकि कुपोषण की परिभाषा के अनुसार रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत ही क्षीण हो जाना चाहिए I
  • भावी चिकित्सकों में सेवा, ज्ञान और साधना का विकास करने तथा नैतिक मूल्यों कीस्थापना हेतु नैतिक पाठ्यक्रम का निर्माण और क्रियान्वयन किया जाए I अमेरिका के एजुकेशनल सायकोलाजिस्ट एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् बेंजामिन सेमूअल ब्लूम द्वारा प्रतिपादित प्रसिद्ध वर्गीकरण (टेक्सोनामी) के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य के तहत विद्यार्थी में जानकारी (काग्निशन या मस्तिष्क, ज्ञान), संवेदना (अफेक्टिव, या ह्रदय, सेवा) और कर्म (साइकोमोटर या हैंड्स, साधना, स्किल्स) का विकास किया जाना जरूरी है I इस सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा शिक्षा का प्रारूप तैयार कर उसे दृढ़ता के साथ लागू करना चाहिए, ताकि भावी चिकित्सक एक ज्ञाता, संवेदनशील और कुशल चिकित्सक बन सके I यदि चिकित्सा शिक्षा में ऐसा किया जाएगा तो स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्वत: स्थापना सम्भव होगी I
  • कुपोषण की गम्भीर समस्या के चलते मूल्य निष्ठा से इतर सुझाव– देश में स्वास्थ्य जागरूकता की भयावह कमी और कुपोषण को ध्यान में रखते हुए, स्वस्थ एवं सक्षम सेवानिवृत्त चिकित्सकों, चिकित्सा शिक्षकों तथा नर्सिंग से जुड़े शासकीय कर्मियों के सहयोग से स्कूलों, कॉलेजों, पंचायतों आदि में सप्ताह में दो दिन के लिए 2 – 3 घंटों के स्वास्थ्य परीक्षण शिविर और जन जागरूकता हेतु उद्बोधन आयोजित किए जाएं I इन आयोजनों की सम्पूर्ण जिम्मेदारी (सताधारी नेताओं और शासकीय अधिकारियों द्वारा सार्थक चर्चा के बाद) स्थानीय सामाजिक- सांस्कृतिक या धार्मिक संगठनों, उद्योग घरानों को सौंपी जाना चाहिए I कुपोषण के खिलाफ और स्कूलों एवं आंगनवाड़ियों के माध्यम से सुपोषण के लिए मिड डे मील का कार्य अक्षयपात्र जैसी संस्थाओं के माध्यम से किया जाए, तो कुपोषण पर नियंत्रण प्रभावी तरीके से सम्भव हो सकेगा और स्कूली शिक्षकों पर अतिरिक्त दायित्व नहीं होने से पढ़ाने के लिए उनके पास अधिक समय मिल रहेगा I

आखिर कब तक आम नागरिक की उपेक्षा चलती रहेगी ?

प्रस्तुति – डॉ.मनोहर भण्डारी