संस्मरण

मेरी कहानी – 53

जालंधर से आ कर आते ही हम सो गए और ग्यारह बारह बजे उठे । दूसरे कमरों के लड़के अपने अपने कमरों के बाहर गैलरी में बैठे पढ़ाई कर रहे थे। हम को कमरे के बाहिर आते ही सवाल करने लगे कि फिल्म कैसी थी। हम ने जब बताया कि हम ने तीन फ़िल्में देखी थी तो हैरान हो गए। टायर पंचर की बात हम ने बताई तो और भी हैरान हो गए। हम भी पहले खूही पर गए और बाल्टीआं भर भर के खूब स्नान किया। वापस कमरे में आ कर स्टोव पे चाय बनाई और डब्बल रोटी के साथ चाय का मज़ा लिया और अपनी अपनी किताबें ले कर हम भी और लड़कों के साथ गैलरी में बैठ कर पढ़ाई करने लगे। कुछ देर बाद मैं और जीत अपनी किताबें ले कर नज़दीक के खेतों की और चले गए और वहां जा कर पड़ने लगे। मैं और जीत अक्सर अकेले ही खेतों की ओर जाते रहते थे। हमें कोई मालूम ही नहीं था कि भजन इस बात को लेकर मन ही मन में हम से नाराज़ था। एक दिन जब जीत और मैं खेतों से वापस आये तो भजन हम से लड़ाई झगड़ा करने लगा कि ” तुम दोनों चले जाते हो और हम को साथ नहीं ले जाते “. इतनी मामूली सी बात पर भजन हम से झगड़ा करेगा ,हमारे मन में तो कभी आया ही नहीं था। जीत भी कुछ गरम हो गिया। उन के बीच मैं आ गिया और भजन को बोला ,” भजन! अब जबकि इम्तिहान में कुछ ही दिन रह गए है ,तू अब झगड़ा करेगा ? यह किया बात हुई कि हम तुम को साथ नहीं ले जाते , ले अब हम सभी वापस चले जाते हैं और कल से सभी इकठे चले जाया करेंगे ” . भजन कुछ ठंडा हो गिया और कुछ देर बाद समान्य हो गिया। दरअसल भजन पढ़ाई में बहुत कमज़ोर था। उस का सारा ध्यान हमेशा फुटबाल में ही रहता था ,हम ने उसे कभी पड़ते हुए बहुत कम देखा था. हो सकता है उस को इम्तिहान में पास न होने का डर हो क्योंकि अब इम्तिहान सर पे थे ।

शनिवार को हम गाँव आ गए। माँ कहने लगी ,” बेटा ,तुम इतनी मिहनत करते हो ,घर से आटा ,दूध और घी ले जाओ और शहर में बिस्कुट बनाने वाली दूकान से बिस्कुट बना लो “. दोस्तों से मैंने बात की , आइडिआ सब को पसंद आया और हम घी ,आटा , खंड ,दूध और कुछ अंडे ले गए। बिस्कुट बनाने वाली दूकान में और भी बहुत लोग थे जो बिस्कुट बनाने आये हुए थे। हम ने भी अपना राशन दुकान वालों को दे दिया। जब बिस्कुट बन गए तो हम हैरान हो गए कि बिस्कुटों से एक बड़ा पीपा ऊपर तक भर गिया। दूकान में ही हम ने बिस्कुट खा के देखे तो खा कर मज़ा ही आ गिया। बिस्कुट वाली बात तो बहुत मामूली है लेकिन आज मैं सोचता हूँ कि वाकई माँ बहुत महान होती है ,बच्चों का इतना खियाल ! . हम पड़ते थे लेकिन माँ का खियाल कि हम खाने का धियान रखें ,उस के दिमाग में यही होता था। हालांकि हम प्रभात होटल में अच्छा खाना खाते थे लेकिन माँ का दिल ! माँ तुझे सलाम ,सही तो कहते हैं।

शायद दो तीन दिन ही रह गए थे इम्तिहान शुरू होने में ,एक रात को जब हम अपने कमरे में अपनी अपनी किताबे लिए बैठे थे तो अचानक लाइट बल्व फ्यूज़ हो गिया। कमरे में अँधेरा हो गिया। दूसरे लड़कों के कमरे में जा कर पूछा कि अगर उन के पास कोई सपेअर बल्व हो तो नाह में ही जवाब मिला। नौ दस बजे का वक़्त था और किसी दूकान के खुले होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था। हम सब में से जीत ही एक लड़का था जिस का दिमाग मुश्किल की घड़ी में ज़्यादा काम करता था। बोला , बई एक बात मैं तुम को बताता हूँ ,धियान से सुनो। ” गुरु नानक इंजीनियर वर्क्स फैक्ट्री की पिछली ओर उन की ऐड का बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ है ,जिस पर लिखा हुआ है ” गुरु नानक इन्ज्नीरिंग वर्क्स”और उस बोर्ड की दोनों तरफ दो बड़े बड़े बल्व लगे हुए हैं ,हम चलते हैं ,और एक बल्व उतार लेते हैं ,इस वक्त फैक्ट्री बंद है और वहां कोई नहीं है “.

आईडीआ तो सब को पसंद आ गिया लेकिन सवाल यह पैदा होता था कि वोह बल्व बहुत ऊंचे लगे हुए थे। कुछ देर के बाद हम चारों दोस्त चोरी करने निकल पड़े क्योंकि इस वक्त मजबूरी थी। इर्द गिर्द सभी तरफ झांकते हुए हम फैक्ट्री की ओर चल पड़े। सभी के मन में एक भय भी था। धीरे धीरे हम फैक्ट्री के पीछे जा पुहंचे। फैक्ट्री से कोई सौ गज़ की दूरी पर रेलवे लाइन थी जिस पर रेल गाड़ियां आती जाती ही रहती थीं, शायद रेल गाड़िओं में बैठे यात्रिओं के देखने के लिए ही यह बोर्ड लगाया गिया होगा। बल्व काफी ऊंचे थे। जीत के आइडिये के अनुसार मैं नीचे खड़ा हो गिया और जीत धीरे धीरे मेरे कन्धों पर चढ़ गिया , भजन और बहादर दोनों ओर खड़े हो गए ताकि जीत गिर जाए तो वोह संभाल सकें। जीत ने धीरे धीरे बल्व उतार लिया। सब ने बल्व देखा और हैरान हो गए कि बल्व बहुत बड़ा था।

जल्दी जल्दी हम वापस कमरे में आ गए और बल्व लगाया। कमरे में जैसे धुप हो गई हो क्योंकि बल्व पांच सौ वाट का था। हम इतने खुश हुए कि बता नहीं सकता। फिर जीत कहने लगा ,यार ! बल्व पर मट्टी बहुत जमी हुई है ,अगर साफ़ किया जाए तो इस की रौशनी और भी बड़ जायेगी। जीत ने बल्व उतार लिया और पानी से खूब धोया ,कपडे से साफ़ किया और फिर लगा दिया। रौशनी भी ज़्यादा बढ़ गई। हम पड़ने लग गए। कुछ मिनट ही हुए थे कि बल्व फिर फ्यूज़ हो गिया। हम उदास हो गए। जीत झट से बोला ,”चलो उस बोर्ड से दूसरा बल्व भी ले आते हैं “. हम फिर कमरे से बाहर हुए और गुरु नानक इन्ज्नीरिंग वर्क्स की तरफ चल दिए। जा कर झट से दूसरा बल्व भी ले आये। अब की बार हम ने बल्व को धोया नहीं ताकि फिर फ्यूज़ ना हो जाए। यह बल्व कभी खराब नहीं हुआ और इम्तिहान के बाद हम ने जीत को ही अपने घर ले जाने के लिए कह दिया।

इम्तिहान शुरू हो गए। पहले दिन हिसाब का पेपर था। स्कूल के हाल में दाखल होते ही हमें कुछ घबराहट सी हुई। अपनी अपनी सीटों पर हम विराजमान हो गए। प्लेन शीट बांटी जाने लगी और इस के बाद हिसाब के पर्चे बांटे गए। दो दफा परचा मैंने पड़ा और कोई मुश्किल नहीं लगा। पिछले दस साल के इम्तिहानों में आये पेपर बहुत दफा रीवाइज़ किये हुए थे ,आधे सवाल तो वोह ही आ गए। दूसरे भी इतने मुश्किल नहीं लगे। पेपर दे कर हाल के बाहर आ गए और सभी लड़के एक दूसरे से बातें करने लगे ,यह कैसे किया वोह कैसे किया और इस के बाद हम अपने कमरे में आ गए। बहादर भी जेजे स्कूल से आ गिया और खुश था। गैलरी पर बैठ कर बातों में मसरूफ हो गए। काफी देर तक बैठे रहे ,अचानक मैंने पुछा ,”जीत कहाँ है ?”.सभी इधर उधर देखने लगे। गैलरी से नीचे की ओर झाँका लेकिन जीत कहीं दिखाई नहीं दिया। हैरान हुए दूसरे कमरों की ओर चले गए और उन में रहते लड़कों से पुछा लेकिन सब असफल।

वैसे ही मेरे मन में कुछ आया और सीड़ीआं चढ़ कर चुबारे के ऊपर चले गिया ,देखा जीत बैठा वहां रो रहा था। जब मैंने उस को बुलाया तो जीत फुट फुटक कर ऊंची ऊंची रोने लगा। रोने की आवाज़ सुन कर बहादर और भजन भी ऊपर आ गए। किया हुआ ,किया हुआ सभी पूछने लगे। रो रो कर जीत कहने लगा कि उस का हिसाब का पेपर ठीक नहीं हुआ था और बोल रहा था कि उस के बापू जी पर किया बीतेगी जब उन को पता चलेगा , मैंने उस से पुछा कि कैसे पेपर किया था ,तो जो उस ने बताया सुन कर मैंने कहा कि पेपर कोई बुरा नहीं हुआ था ,यह सिर्फ उस के मन का वहम ही था. जब मैंने जीत से सब पुछा तो ५०% उस के जवाब सही थे। मेरे समझाने से जीत के मन से बोझ उत्तर गिया। भजन का पेपर इतना अच्छा नहीं था लेकिन मैंने उस को भी खुश कर दिया ,बहादर का तो ठीक ही था। बातें करने से सब के मन का बोझ कम हो गिया।

धीरे धीरे एक के बाद एक पेपर होने लगे। ड्राइंग का पेपर जो स्केल्ज़ बगैरा थीं वोह तो सभी के अच्छे हो गए थे क्योंकि ड्राइंग में हम तीनों अच्छे थे। जब आख़री परचा भी हो गया तो अब सिर्फ साइंस का प्रैक्टीकल ही रहता था जो कुछ दिन बाद होना था। तकरीबन हम फ्री हो गए थे। जितने दिन खाली बचे थे ,उस में हम या तो शहर में घुमते रहते या कोई फिल्म देख लेते। भुल्ला राई के हमारे कुछ दोस्त हमारे कमरे में आते ही रहते थे। इन में एक था परगट सिंह जो बहुत अच्छा गाता था। एक दिन वोह अपना हारमोनियम ले आया। हमारे कमरे में और लड़के भी आ जाते और मिल कर बहुत मस्ती करते। फिर एक दिन प्रैक्टिकल का भी हो गिया और हम सारा सामान बाँध कर गाँव वापस जाने की तैयारी करने लगे। दो फेरों में सारा सामान गाँव ले आये और कमरे और होटल का हिसाब किताब करके स्कूल को अलविदा कह दिया। परगट सिंह भी अपना हारमोनियम ले गिया और उस की पढ़ाई हमेशा के लिए खत्म हो गई और कहीं काम करने लगा। हमारे लिए अब रिज़ल्ट का इंतज़ार ही रह गिया।

इम्तिहान खत्म होने के बाद मां भी अफ्रीका को चले गई, अब घर कुछ सूना सूना सा लगने लगा। अब या तो दादा जी की मदद कर देता या राणी पर के बाज़ार में घुमते रहते और रात को गियान की दूकान में बैठे रहते। कभी कभी दिन के वक्त नरंजन सिंह की दूकान पर जाते और उस के पिता जी के धार्मिक पर्वचन सुनते रहते।

कुछ हफ़्तों बाद पता चला कि मैट्रिक के रिज़ल्ट आ गए थे। बहादर ने जेजे हाई स्कूल जाना था और हम ने रामगढ़िया स्कूल जाना था. जब हम तीनों स्कूल आये तो हैड क्लर्क के दफ्तर में अपने अपने रोल नंबर बता कर हमें रिज़ल्ट मिल गए। नर्वसनैस खत्म हो गई जब पता चला कि मेरी फर्स्ट डवीजन थी ,जीत की सैंकड और भजन की थर्ड। हम तीनों पर्सन थे। मैं तो था ही और जीत भी खुश था ,भजन हम से भी ज़्यादा खुश था क्योंकि उस को तो पास होने की उम्मीद ही नहीं थी। कुछ देर बहादर भी वहां ही आ गिया ,वोह भी खुश था। बहादर तो वापस चले गिया क्योंकि उस ने अपने चाचा जी से बाजार में मिलना था। हम सोच रहे थे कि किया करें ,पिक्चर देखे या कुछ और। फिर बात तय हुई तल्हन गुरदुआरे जाने की। मेरी माँ ने मानता मानी हुई थी कि अगर वोह अफ्रीका चली जाए तो वोह पांच रूपए तल्हन चढ़ाएगी। इस से मेरा काम भी हो जाएगा। यह सोच कर हम तल्हन की तरफ रवाना हो गए। तल्हन पौहंच कर जो हुआ मैं पहले लिख चुक्का हूँ।

अब स्कूल की पढ़ाई ख़त्म हो गई और कुछ दिन बाद स्कूल जा कर हम अपने अपने सर्टीफिकेट ले आये और अपनी अपनी फाइलों में रख लिए। घर में किसी जगह रखे हुए है लेकिन बहुत वर्षों से इन को देखने का कभी इतफ़ाक नहीं हुआ। बहुत साल पहले जब हम भारत आये तो मन स्कूल देखने को हो आया। मैं और मेरे छोटे भाई का लड़का मोटर साइकल पर सवार हो कर स्कूल आये। मेरे पास मूवी लेने के लिए कैमरा था और फिल्म लेने के लिए इजाजत लेने के लिए एक टीचर को पुछा तो उस ने हैडमास्टर की तरफ इशारा कर दिया। जब मैंने हैडमास्टर से पुछा तो वोह कुछ अजीब सा बोला। मैंने इंग्लिश में उस को कहा कि १९५८ में मैंने यहां से मैट्रिक की थी और पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए कुछ फिल्म लेना चाहता हूँ। फिर वोह कुछ खुश सा हो गिया और मैंने उस ए सैक्शन वाले कमरे की थोह्ड़ी सी मूवी ली जो बिलकुल उसी तरह ही था जैसा मेरे समय में होता था। मेला सिंह का बुत्त बना हुआ था ,उस की भी मूवी ली। हा हा , अब तो वोह मूवी भी पता नहीं कहाँ पड़ी है। बस इस गुज़रे ज़माने की याद ही है जो कभी कभी समरण हो आती है।

चलता ……………………………….

6 thoughts on “मेरी कहानी – 53

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, यह क़िस्त पढ़कर आनंद आया. आपने परीक्षा में जो कठोर परिश्रम किया था उसका अच्छा परिणाम मिलना ही था.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      thanks vijay bhaai.

  • मनमोहन कुमार आर्य

    बिस्कुट और माताजी के बारे में आपने जो मार्मिक शब्द लिखें है वह पढ़कर अच्छे लगे। लेख की सभी स्मृतियाँ स्तुत्य एवं प्रशंसनीय हैं। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      thanks ,manmohan bhaai .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक लगती है लेखन आपकी

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद बहन जी .

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