कवितापद्य साहित्य

धर्म- प्रतिस्पर्धा नहीं है !

 

विश्व धर्म–सभा में

हर धर्म के विद्वानों का

भाषण को रहा था,

अपने–अपने धर्म को

सर्वश्रेष्ट प्रतिपादित करने का

प्रयत्न हो रहा था |

धुरंधर विद्वान् अपने धर्म का

फ़लसफ़ा बता रहे थे

धर्म के मूल सिद्धांतों का

व्याख्या कर रहे थे |

 

हिन्दू संत ने कहा,

“हिन्दू धर्म सबसे पुरातन धर्म है,

सहज सरल है,

यह जीवन जीने की एक कला है ,

पूरा विश्व को अपना परिवार मानता है|”

पादरी पीछे नहीं रहे, कहा,

“ईसाई विश्व में सबसे बड़ा

और दयालु धर्म है,

आततायी को भी

क्षमा दान देता है|”

उलेमा ने कहा,

“इस्लाम की उम्र

भले ही सबसे कम है

किन्तु त्वरित विस्तार की

इसमें गज़ब की काबिलियत है,

लोगो में विश्वास उत्पन्न करता है|”

 

अंत में एक दर्शक आया

सच्चे दिल से अपना प्रतिक्रिया दिया,

कहा, “आदरणीय विद्वानों,

आपके सारगर्भित भाषणों को

तन्मय होकर हमने सुना सबको,

दिल में उन्हें आदर से बिठाया,

किन्तु,

दिल के एक कोने में

विद्रोही जनों की भांति

एक प्रश्न वहां तनकर खड़ा है |

कहता है,

नहीं बैठूँगा तबतक

जबतक मेरे प्रश्नों का,

मुझे सही उत्तर नहीं मिलता है |

कहता है मुझसे,

पूछो इन विद्वानों से

“पहुंचना है आप सबको

एक ही मंजिल पर …

कोई जाता है रेल गाडी से,

कोई जाता है बस से,

और कोई जाता है हवाई जहाज से|

जाकर मिलते हैं सब

राहों के संगम पर

पूर्व निर्धारित मंजिल पर |

फिर जाने का माध्यम

अच्छा या बुरा कैसे हैं?

माध्यम कोई भी हो

क्या फरक पड़ता है ?

ज़रा बताइए,

यात्रा का माध्यम महत्त्वपूर्ण है ?

या मंजिल पर पहुंचना जरुरी है ?

यदि मंजिल ध्येय है

फिर ये माध्यम में प्रतिस्पर्धा क्यों है ?

 

ईश्वर के घर जाना है

कोई आगे कोई पीछे ,

समर्पित भक्त नहीं भागते

प्रथम या द्वितीय स्थान के पीछे ,

समर्पण भक्ति सागर की है धारा

है वह परमात्मा को बहुत प्यारा

बहाकर स्वत: ले जाता है वहाँ

जहां से उत्पन्न यह जग सारा |

 

प्रतिस्पर्धा में समर्पण नहीं है

इसमें जो उलझे रहते हैं

निश्चित ही परमात्मा की ओर

उनके कदम नहीं बढ़ पाते हैं,

प्रतिस्पर्धी का ध्यान

परमात्मा पर नहीं,

दुसरे प्रतिस्पर्धी पर

सतत लगा रहता है |

प्रथम स्थान पाने का

अहंकार को पोषित करता रहता है |

 

हे ज्ञानी जन !

मुझे बताएँ,

“क्या धर्म के राह में

प्रतिस्पर्धा की यह दौड़

जीवन में विक्षिप्तता

नहीं ला रही है ?”

 

 

© कालीपद ‘प्रसाद’

*कालीपद प्रसाद

जन्म ८ जुलाई १९४७ ,स्थान खुलना शिक्षा:– स्कूल :शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय ,धर्मजयगड ,जिला रायगढ़, (छ .गढ़) l कालेज :(स्नातक ) –क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान,भोपाल ,( म,प्र.) एम .एस .सी (गणित )– जबलपुर विश्वविद्यालय,( म,प्र.) एम ए (अर्थ शास्त्र ) – गडवाल विश्वविद्यालय .श्रीनगर (उ.खण्ड) कार्यक्षेत्र - राष्ट्रीय भारतीय सैन्य कालेज ( आर .आई .एम ,सी ) देहरादून में अध्यापन | तत पश्चात केन्द्रीय विद्यालय संगठन में प्राचार्य के रूप में 18 वर्ष तक सेवारत रहा | प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुआ | रचनात्मक कार्य : शैक्षणिक लेख केंद्रीय विद्यालय संगठन के पत्रिका में प्रकाशित हुए | २. “ Value Based Education” नाम से पुस्तक २००० में प्रकाशित हुई | कविता संग्रह का प्रथम संस्करण “काव्य सौरभ“ दिसम्बर २०१४ में प्रकाशित हुआ l "अँधेरे से उजाले की ओर " २०१६ प्रकाशित हुआ है | एक और कविता संग्रह ,एक उपन्यास प्रकाशन के लिए तैयार है !

2 thoughts on “धर्म- प्रतिस्पर्धा नहीं है !

  • कालीपद प्रसाद

    धन्याद आपको

  • वैभव दुबे "विशेष"

    बहुत ही सुंदर लेख..आभार

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