राजनीति

यह कहां ले जा रहे हैं हम हिन्दी को ??

एक तरफ हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा बोलते है। और हिन्दी दिवस की महत्ता समझाते हुऐ सम्मेलन, गोष्ठियों का आयोजन करते है।वैश्विक रुप से इसका विस्तार चाहते है और तो और हिन्दी के लिये हर आम आदमी एक क्रान्ति लाना चाहता है।मगर हम इसे वास्तविकता में कितना अपनाते है ?

अभी हाल ही मेँ विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ ।कई जगह सुनने में आया कि हिन्दी भाषा को लेकर कई गोष्ठियाँ भी हुई. पर क्या कही कुछ असर होगा ? नही? क्यूंकि यह वो कार्य है जो दिखाने के लिये हम कई सालों से कर रहे हैं मगर परिणाम आज तक नही दिखे। फिर क्या मतलब इस तरह के दिवस मनाने का या इसके लिये आयोजन करने का?

हिन्दी हर हिन्दुस्तानी द्वारा बोली जाने वाली आम भाषा है। मुझे नही लगता इसे सीखने में भी हमारें आस पास के माहौल में कही कोई कमी रहती होगी या हमारी सोच पर भारी पङती होगी। मगर हम इसे अपने परिवेश में नही लाना चाहते। क्यूं? क्यूंकि हमारे दिलो दिमाग में हिन्दी के लिये कोई जगह नहीं। अंग्रेजी पढने एंव बोलने में हम अपनी शान समझते है । हमारा सटेट्स बनता है।हम स्वयं को पूर्ण मानते है।अरे भई एक तरफ हम हिन्दी को मां का दर्जा देते है दुसरी तरफ उसकी अवहेलना करते है तो हमारी आने वाली पिढी भी यही सीखेगी ना? आज हम कहते है आजकल के बच्चे संस्कृति , सभ्यता भूल रहे है और पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे तो कही न कही उन्हें थाली हमने ही परोस कर दी है ?

आज आप किसी से भी हिन्दी और अंग्रेजी में लेख लिखने को बोलिये जहां आपको अंग्रेजी में अच्छा खासा लेख मिलेगा वही हिन्दी में एक ही पंक्ति छोटे से लेख में चार बार घुमा फिरा कर मिल जायेगी वो भी अनंत गल्तियों के साथ ? क्यूं भई ऐसा क्या हो गया जो आप अपनी भाषा छोड़कर पराई भाषा पर बल देते है।

हम इसकी जङ में जायेंगे तो बहुत कटु तथ्य मिलेंगे. मगर मूल में ही देख ले तो विदेशी सभ्यता हम पर इस कदर हावी हो चुकी है कि हम स्वयं ही इसे नकारना चाहते है। अपने बच्चों का अंग्रेजी विद्यालय में दाखिला करवायेंगे भले ही वहां अत्यधिक पैसे देने पङे मगर हिन्दी विद्यालय में नही डालेंगे क्यूंकि हमारा ‘सो कोल्ड स्टेट्स’ खराब होता है समाज में। वैसे इसमें पूर्णत आम आदमी भी दोषी नही आज हिन्दी को हमारी हर व्यवस्था में मूंह की खानी पङती है फिर वह नौकरी हो, कही दाखिला हो या कही अन्यत्र कार्य । कार्य प्रणाली हमारे देश की, प्रगति हमारे देश की, सोच समझ हमारी अपनी मगर हावी इन सब पर अंग्रेजी ?

ये कहां जा रहे हम और कहां ले जा रहे है अपनी भाषा को स्वयं . आज अपने ही देश में हिन्दी को अपने वर्चस्व की लङाई लङनी पङ रही है।और मैं देश तक तो बाद में जाऊं अपने घर में ही तिल तिल मर रही है हिन्दी। हमारे बच्चे अपने संस्कारों में नमस्ते , नमस्कार छोङकर हाय, हैलो अपना रहे है। हर वो चीज हो रही है जो हमारी सभ्यता में है ही नही।

मैं यह नही कहती कि अंग्रेजी को पूर्णत अस्वीकार किया जाये ये तो हो भी नही सकता यह अब आम भाषा के साथ इस तरह रच बस गई है जैसे हम रिश्तों में रच बस जाते है जो अनवरत पिढी दर पिढी चलते है।इसलिये इसे नकारना तो अंसभव है मगर इसका मतलब यह भी नही की हम इसे मालिकाना हक दे दे।यह तो फिर वो मकान हुआ जो किराये पर लिया था पर पिढी दर पिढी रहते आ रहे है तो अब ये हमारा हो गया?

या तो हिन्दी के नाम पर किये जाने वाले ढकोसले बंद ही कर दो अन्यथा उसके लिये यूं दिखावा मत करो।जैसे जीते जी मां की माँ की परवाह की नही पुण्यतिथी पर भोज करवाया। बङे शर्म की बात है आज हमारी भाषा हमारे ही देश में अपनी पहचान पाने के लिये लङ रही है और परिणाम भी लगभग तय है कि कुछ नही मिलेगा।अपने ही देश में अपनों के ही आगे वो अंग्रेजी के प्रभाव से तङप तङप कर मरेगी।

अब जरुरत क्रान्ति की नही अहसास की है । कहां तक आंदोलन या परिचर्चा करेंगे यह जङ से उखङ चुकी है। कुछ नही बस इतनी इल्तजा है की यह पूर्णत न दब जाये इससे पहले इसे अपनाओं ।हमारे साथ की ,हमारे सहयोग की जरुरत है।हम हिंदुस्तानीयों मेः इतनी सक्षमता है कि हम अपने (हिन्दी भाषा) बलबूते पर सब हासिल कर सकते है जरुरत नही हमें किसी विदेशी शक्ति (अंग्रेजी भाषा)की। बस जरुरत है आपने अंदर छुपे अपने गुणों को पहचानने की और अपनी भाषा को अपना उचित स्थान दिलाने की.

— एकता सारदा

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने ektasarda3333@gmail.com

One thought on “यह कहां ले जा रहे हैं हम हिन्दी को ??

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा और विचारोत्तेजक लेख.

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