गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

दुनिया में हरसू अँधियारा हरसू ही लाचारी है.
पर मैं जग को रोशन करती मुझमें इक चिंगारी है.

चाहे गलत हों चाहे सही हों पर जज्बात ये मेरे हैं,
ताज न पहना और किसी का ये मेरी खुद्दारी है.

ऊंचा उठ पाने की खातिर, गिरना है मंज़ूर नहीं,
मेरी अना सिर ऊँचा रखती वो न बनी दरबारी है.

गीत ग़ज़ल की बस्ती से मैं मस्ती लेकर आती हूँ.
प्रीत दिलों में भरती हूँ मैं सब कहते फनकारी है.

शाही मस्ती में रह सकती फ़ाकामस्ती सह सकती,
सुख-दुःख से हँसकर मिलने की मैंने की तैयारी है.

मेरे चिंतन और मनन में वो ही वो बस दिखता है,
मेरी हर इक रचना उसके प्रति दिल से आभारी है.

*अर्चना पांडा

कैलिफ़ोर्निया अमेरिका

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अति उत्तम गजल !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    वाह्ह
    अति सुंदर लेखन

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