संस्मरण

मेरी कहानी 64

ट्रैवल एजैंट के दफ्तर से  निकल कर और कुछ मठाई ले कर मैं गाँव आ गिया लेकिन मैंने माँ को कुछ नहीं बताया। जो खत मैंने लंदन कालज  को डाला था ,उस का जवाब मुझे मिल जाएगा इस की कोई मुझे आशा नहीं थी क्योंकि जो इंडिया में देख रहा था उस के हिसाब से तो कभी जवाब आएगा ही नहीं। मेरे ज़हन में तो इंग्लैण्ड का सिस्टम इंडिया जैसा ही होगा। अब क्योंकि इंग्लैण्ड जाने की तमन्ना थी ,तो हर रोज़ कोई न कोई ऐसा लड़का मिल जाता जो एक एजेंट मिस्टर जोशी के दफ्तर को आता जाता। जितने भी बाहर जाने वाले लड़के मिलते ,उन सभी के रिश्तेदार इंग्लैंड  या कैनेडा अमरीका में होते। पासपोर्ट के  लिए कहाँ जाना ,क्या करना मैं उन से पूछता रहता। उन से मुझे यह भी पता चल गिया कि जोशी सब से अच्छा ट्रैवल एजैंट था। इस जोशी का दफ्तर फगवाड़े के पुलिस स्टेशन के बिलकुल सामने था और जनता मैडीकल स्टोर के करीब ही था। जोशी के दफ्तर की ओर कभी सरसरी नज़र से ही देखा करता था ,अब बहुत धियान से देखता। बहुत इस्त्री मर्द और बच्चे जोशी के दफ्तर में कुर्सिओं पर बैठे होते और जोशी हमेशा कुछ टाइप ही करता होता। लोगों के हाथों में पासपोर्ट होते ,कागज़ होते या जोशी को रुपय दे रहे होते। यह शायद मार्च अप्रैल १९६२ का महीना होगा और १ जुलाई नज़दीक आ रही थी और मुझे ऐसा लगता जैसे सब लोग इंग्लैण्ड की तैयारी में हों । उधर बहादर भी जब मिलता तो एक ही बात कहता ,” यार गुरमेल !मेरे अफसर चाचा कुछ करते ही नहीं हैं , कहाँ तक मेरे पेपर पौहंच चुक्के हैं कुछ पता ही नहीं चलता “. मैं इस का  क्या जवाब देता , मुझे तो अपनी ही फ़िक्र थी। दो हफ्ते हो गए थे और मैं लंडन को लिखे ख़त को इतना धियान से सोचता भी नहीं था लेकिन कभी कभी यह विचार जरूर आता कि मैं भी अपने पिता जी को राहदारी के लिए लिखूं लेकिन हौसला नहीं पड़ता था कि पता नहीं वोह क्या जवाब दें। इसी उधेड़ बुन में तीन हफ्ते बीत गए। एक दिन जब मैं कालज से घर आया तो माँ ने मुझे एक काफी बड़ा पार्सल पकड़ा दिया जो सुबह गाँव का पोस्ट मैन भगवान् दास दे कर गिया था। मैंने पार्सल खोला तो देखा कि यह फैराडे हाऊस इन्ज्नीरिंग कालज से था। एक गलौसी प्रॉस्पेक्टस था और साथ में बहुत से फ़ार्म थे। मैं जल्दी जल्दी प्रॉस्पेक्टस के पेजज़ देखने लगा जिस में कालज की बिल्डिंग और शानदार कमरे थे और इस में गोरे लड़के लड़किआं अपने अपने काम में लगे हुए थे। कोई लैबोरेटरी में था तो कोई मशीनों पे काम कर रहा था। यह प्रॉस्पैक्टस मेरे लिए एक अध्भुत चीज़ थी क्योंकि इस से पहले मैंने यह कभी देखा ही नहीं था। पता नहीं कितनी दफा मैंने सारे सफे देखे और पड़े। आखर में मैंने ऐडमिशन फ़ार्म ऊपर से ले कर नीचे तक पड़ा जिस को भरना कोई मुश्किल नहीं था। इस फ़ार्म के नीचे ऐडमिशन फी तीन पाउंड लिखी हुई थी जो मुझे भेजनी थी। इन फार्मों के साथ ही एक फ़ार्म था इंडिया की हकूमत से फ़ौरन एक्सचेंज लेने की ऐप्लिकेशन।

                          अब तो मुझे पिता जी को लिखना पड़ेगा ही कि मैं इंग्लैण्ड आना चाहता था किओंकि मुझे तीन पाऊंड फीस जो  जमा करानी थी और इस के बाद ही मुझे कालज में एडमिशन मिलनी थी। मैंने फ़ार्म भर दिया और एक काफी बड़ा ख़त शर्माते शर्माते पिता जी को लिख दिया कि मैं इंग्लैण्ड आना चाहता हूँ। एक बात की मुझे अब तक हैरानी होती है कि जब बहुत लोग अपने अपने बेटों को इंग्लैण्ड बुला रहे थे तो मेरे पिता जी को यह खियाल क्यों नहीं आया जब कि उस वक्त मेरा आना बहुत आसान था। हो सकता है कि उस वक्त रहने की बहुत तंगी थी ,एक एक घर में बीस बीस आदमी रहते थे जिस में किराया कमरे के हिसाब से नहीं बल्कि बैड के हिसाब से था। कई लोग तो इस तरह रहते थे कि एक आदमी रात की शिफ्ट लगा कर आ कर बैड पे सो जाता और जिस की मॉर्निंग शिफ्ट होती वोह इसी बैड से निकल कर काम पर चले जाता ,बैड गर्म ही रहती थी और बैड को आराम नहीं मिलता था। यह बैड  लोहे की  होती थीं जिन पर बड़े मोटे गद्दे होते थे जिन को मैट्रेस कहते थे। हो सकता है यही कारण हो ,और दुसरे खुद पिता जी इंग्लैण्ड रहने को पसंद नहीं करते थे ,इसी लिए उन्होंने मुझे ना बुलाया होगा। कुछ भी हो मैंने डरते डरते ख़त रेजिस्टर्ड पोस्ट में भेज दिया। अब तक इस बात का पता सिर्फ मुझे ही था और दादा जी या छोटे भैया को भी नहीं बताया ,खैर छोटा भाई तो अभी छोटा ही था।
उस वक्त टेलीफून तो होता नहीं था ,ख़त ही एक जरीया था जिस को बहुत देर लग जाती थी। फ़ार्म भेजते वक्त मैंने पिता जी को लिखा था कि प्लीज़ वोह एक दिन भी जाया न करें और फैराडे कालज को तीन पाऊड फीस भेज दें किओंकि १ जुलाई से पहले पहले पासपोर्ट बन जाना चाहिए था। मुझे लगता है पिता जी ने भी एक दिन भी मिस नहीं किया और कालज को फीस भेज दी ,जिस का नतीजा यह हुआ कि दो तीन हफ्ते में मुझे फैराडे हाऊस से एडमिशन लैटर आ गिया। मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा और अब मैंने माँ दादा जी और छोटे भाई को बता दिया कि मैं पासपोर्ट के लिए एप्लाई कर रहा हूँ और इंग्लैण्ड चला जाऊँगा। घर के सभी लोग खुश हो गए किओंकि उस वक्त बाहर जाना बहुत बड़ी बात समझी जाती थी। सुबह उठ कर मैं एडमिशन के सारे फ़ार्म ले कर फगवाड़े जोशी के दफ्तर में पौहंच गिया . जोशी ने अभी अभी दफ्तर खोला ही था और मैंने उसे सारे फ़ार्म पकड़ा दिए कि मैं पासपोर्ट के लिए एप्लाई करना चाहता था . यहाँ मैं यह भी बता दूँ कि जोशी अब होगा या नहीं मुझे पता नहीं  लेकिन वोह बहुत अच्छा नेक इंसान था ,उस का विवहार बहुत ही अच्छा था ,वोह अपने काम के पैसे लेता था जो बिलकुल वाज़व होते थे और जितनी देर भी वोह दफ्तर में होता बहुत शांत होता . उस ने फ़ार्म देखते ही मुझे बता दिया कि पासपोर्ट में कोई दिकत पेश नहीं आएगी और मुझे ५०० रूपए ट्रेवल कन्सेशन भी मिल जाना था जो स्टूडैंट को मिलता था ,उस वक्त एअर इंडिया का किराया १८०० रूपए होता था और मुझे १३०० रूपए  ही देने पड़ने थे . जोशी साहब ने पासपोर्ट के लिए एप्लीकेशन टाइप करनी शुर कर दी , जब टाइप हो गई तो उस ने मेरे दस्तखत करवाए और अपने काम के पैसे मांगे जो मैंने दे दिए और यह ज़िआदा भी नहीं थे। फिर उस ने मुझे समझाया कि वोह इन सारे कागजों को तसील में जा कर तसीलदार के दफ्तर में दाखल करा देंगे। फिर मुझे यह भी समझाया कि कुछ दिनों बाद मुझे तसीलदार की ओर से गाँव में ख़त आएगा और मैं अपने गाँव के नम्बरदार को ले कर तहसीलदार के दफ्तर में पौहंच जाऊं। तसीलदार के दफ्तर में तसीलदार के सामने नम्बरदार को गवाही देनी होगी कि वोह मुझे जानता है और आप की कितनी  ज़मीन है। जब यह काम हो गिया यानी तसीलदार के दस्तखत हो गए तो सारे कागज़ पुलिस स्टेशन चले जायेंगे। पुलिस स्टेशन में क्रिमिनल रिकार्ड देखने के बाद अगर सब कुछ सही हुआ तो थानेदार कागजों को डिस्ट्रिक्ट कपूर्थाले को डीसी के दफ्तर को  भेज देगा। अगर कपूर्थाले सब कुछ ठीक हुआ तो डीसी अपने दस्तखत करके सारे कागज़ वापस फगवाड़े एस डी एम के दफ्तर में भेज देगा। अगर एस डी एम को सारे कागज़ सही लगे तो यह सारे कागज़ यहाँ से दिली पासपोर्ट ऑफिस में चले जायेंगे और दिली से पासपोर्ट ऑफिसर सब ठीक देख कर पासपोर्ट जारी कर देगा और मुझे गाँव में पोस्ट कर दिया जाएगा।
यह एक लम्बा प्रौसैस था और मुझे सब कुछ मालूम हो गिया। एक लड़का ,जिस का पासपोर्ट बन गिया था मुझे बोला ,” गुरमेल! वक्त कम है और मैं तुझे मशवरा देता हूँ कि हर जगह दफ्तरशाही है और सभी पैसे खाते हैं ,बस यहां कोई दस रुपय मांगे बीस दे दो ,तुम्हारा काम झट से हो जाएगा ,वरना कागज़ वहीँ पड़े रहेंगे “. ऐसे कामों से मेरा पहले कभी वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन मैं लोगों की बातें सुन सुन कर हुशिआर हो गिया था । जोशी साहब ने कागज़ कचहरी में तसीलदार के दफ्तर में दे दिए थे क्योंकि मैंने जोशी साहब से पहले ही पता कर लिया था। एक हफ्ते बाद ही मुझे तसीलदार के दफ्तर से खत आ गिया जिस की मुझे हैरानी और ख़ुशी हुई। खत पड़ते वक्त ही मैं उठ कर नम्बरदार के घर जा पौहंचा और उस को मेरे साथ कचहरी में जाने की बात कही। नम्बरदार से हमारे सम्बन्ध बहुत अच्छे थे और वोह खुश हो गिया। इस नम्बरदार की बेटीआं  सीसो और जीतो मेरी बहन के साथ हमारे घर में चक्की से आटा पीसा करती थी और बहुत से और काम जैसे दरीआं बुनने का काम भी  करती थीं और कभी कभी हमारे घर ही सो जाया करती थीं  .  नम्बरदार स्वर्ण सिंह ने मुझे वधाई दी और मुझे पुछा कि कब जाना था। मैंने कहा ,”चाचा ! कल को ही जाना होगा किओंकि वक्त बहुत कम है “. यहाँ मैं स्वर्ण सिंह का कुछ छोटा सा इतहास भी लिखना चाहूँगा। नम्बरदार स्वर्ण सिंह और उस की  बीवी बंतो बहुत गरीब थे ,उन का एक बेटा सोहन था और दो बेटिया जीतो उर सीसो थी। जीतो और सीसो हमारे घर बहुत आती जाती रहती थी और उन की माँ बंतो विचारी तो मेरी माँ से बहुत ही नज़दीक थी। माँ कभी कभी कोई कपड़ा कभी दाल सब्जी ,साग आदिक बंतो को दे दिया करती। सीसो का नाम तो मेरे पिता जी ने हंसी से गाबो रखा हुआ था। जीतो  रंग की बहुत गोरी थी लेकिन सीसो बहुत ही सीधी साधी और रंग की काली थी। सभी कहते थे कि किया सीसो की शादी कभी हो सकेगी ? कौन इसे लेगा ? लेकिन भाग्य की बात देखो ,जीतो जो सुन्दर थी ,उस की शादी एक सीधे साधे किसान से हो गई लेकिन सीसो की शादी सिंघा पुर से आये एक नौजवान से हो गई जो पड़ा लिखा था और शौक़ीन भी था। शादी होने के बाद यह लड़का जिस का नाम अनूप सिंह था इंग्लैण्ड आ गिया और सीसो को भी इंग्लैण्ड बुला लिया। उस वक्त इंग्लैण्ड में एक कानून था कि लड़की अपने माँ बाप को इंग्लैण्ड बुला सकती थी। सीसो ने अपने बाप स्वर्ण सिंह और बंतो को इंग्लैण्ड अपने पास बुला लिया और इस के बाद स्वर्ण सिंह ने अपने बेटे सोहन सिंह को भी बुला लिया ,सोहन सिंह के दो बेटे गोगी और बहादर  थे ,उन्होंने बहुत काम किया और घर की गरीबी ,अमीरी में बदल गई। स्वर्ण सिंह बंतो सोहन सिंह और सीसो भी सब दुनीआं छोड़ चुकें हैं लेकिन सीसो के बच्चों की शादी हम ने अटैंड की थी और वोह भी कहीं ठीक ठाक हैं। स्वर्ण सिंह की बहुत सी बातें मुझे याद हैं।
दुसरे दिन मैंने स्वर्ण सिंह को अपने बाइसिकल की पिछली सीट पर बिठाया और तसीलदार के दफ्तर को चल पड़े। नम्बरदार को देख कर दो आदमी और हमारे साथ चल पड़े। इन का कोई काम तो था नहीं लेकिन जैसे गाँवों में होता है कुछ खाने पीने के लालच में हमारे साथ चल पड़े। दस गिआरा वजे  हम कचेहरी पौहंच गए। घर से मैं काफी पैसे ले आया था किओंकि मुझे कुछ भी पता नहीं था कि तसीलदार से मिलने में कितने पैसे लग जायेंगे। तसीलदार के दफ्तर से एक चपरासी निकला और ऊंची से आवाज़ दी ,” गुरमेल सिंह बलद साधू सिंह राणी पुर हाजर हो !!!!!!!!!” मैं और स्वर्ण सिंह तसीलदार के सामने पेश हो गए। दफ्तर बहुत बड़ा नहीं था लेकिन तसीलदार एक ऊंची कुर्सी पे बैठा था जिस के इर्द गिर्द लकड़ी की रेलिंग थी जैसे कोर्ट में होता है। तसीलदार ने मेरे कागजों की फ़ाइल देखनी शुरू कर दी। मन में एक भय सा था कि कहीं कुछ रुकावट ना आ जाए ,कुछ कह ना दे कि एप्लीकेशन के साथ यह नहीं लगाया वोह नहीं लगाया जैसा कि मैं अक्सर सुना करता था। कुछ देर बाद तसीलदार नम्बरदार को बोला ,”नम्बरदार जी ! आप गुरमेल सिंह को कब से जानते है और इन की जमीन जायेदाद कितनी है ?”. नम्बरदार बोला ,जनाब यह तो मेरे हाथों में खेला है और इस के पिता जी इस वक्त इंग्लैण्ड में हैं और खेती बाडी की जमीन भी बहुत है। फिर तसीलदार  मुझ से बोला गुरमेल सिंह ,” तुम को पचास रूपए रैड क्रॉस के देने पड़ेंगे और १५ रूपए का फुट बाल मैच का टिकट लेना पड़ेगा जो कपूर्थाले में हो रहा है “मैंने जल्दी से ६५ रूपए निकाल कर तसीलदार को पकड़ा दिए और उस ने मुझे रैड क्रास के सर्टिफिकेट और फ़ुटबाल मैच  का टिकट पकड़ा दिया। फिर तसीलदार ने नम्बरदार को अपनी स्टैम्प लगाने को कहा। स्वर्ण सिंह ने अपनी जेब से एक बड़ी सी अंगूठी निकाली जिस पर उर्दू में स्टैम्प बनी हुई थी। नम्बरदार ने इंक पैड पर  अंगूठी को घिसाया  और कागजों पर अपनी मोहर लगा दी और साइन कर दिए। साथ ही मैंने भी अपने साइन कर दिए। तहसीलदार ने हमें बता दिया कि वोह सारे कागज़ पुलिस स्टेशन को भेज देंगे। हमारा काम हो गिया था और हम बाहर आ गए।
 मैं खुश हो गिया था ,यह पहला  पहला काम था और बाहर आते ही मैं  स्वर्ण सिंह को बोला ,” चाचा अब खाना किया है ? स्वर्ण सिंह बोला ,” बाई गुरमेल सिंह बस मीट के साथ रोटी हो जाए ” .हम परभात होटल की ओर हो लिए और साथ ही वोह दो आदमी भी हमारे साथ चल पड़े। अब मैं उन को इनकार तो कर नहीं सकता था और वोह भी ढीठ थे। परभात होटल वाला मुझे जानता ही था। उस ने खाने की प्लेटें हमारे आगे ला रखीं। हम ने खूब खाया और होटल से बाहर आ गए और मैं नम्बरदार को अपने साइकल के पीछे बिठा कर गाँव की ओर ख़ुशी ख़ुशी साइकल दौडाने लगा। वोह दो आदमी पता नहीं किधर गए ,सोचते होंगे मुफ्त में इतना बढिया खाना मिल गिया था। मैंने भी सोचा दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम सही ही तो है। स्वर्ण सिंह के साथ बातें करता करता मैं घर आ गिया और नम्बरदार भी अपने घर की ओर जाने लगा जो पांच छ: घर दूर ही था।
चलता ………

4 thoughts on “मेरी कहानी 64

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब भाई साहब. आपका जज्बा तारीफ के काबिल है. पढ़कर मजा आ गया.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की आत्मकथा का वृतांत आदि से अंत तक पढ़ा। इससे अनुमान है कि पासपोर्ट प्राप्त करने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आई होगी। आपने पुरुषार्थ किया तो सिद्धि तो मिलनी ही है। आपका स्वप्न साकार हो रहा है, इसकी प्रसन्नता है। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है। हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई ,धन्यवाद . पासपोर्ट मिल तो गिया ही था लेकिन जो दफ्तरशाही उस वक्त होती थी ,शाएद आज तो नहीं होगी लेकिन जितनी कोशिश मुझे करनी पडी इस को शब्दों में बिआं नहीं कर सकता ,आगे आप को पता चल ही जाएगा .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरनैल सिंह जी। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है।

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