गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल

गला के हाड़ अपने खास कुछ सामान जोड़े हैं
हकीक़त ने सदा ही खूबसूरत ख़्वाब तोड़े हैं

खुला आकाश सर पे है तना धरती बिछौने सी
ग़रीबी नाम है जिसका वहाँ सौ रोग थोड़े हैं

सितारों की न पाली आरज़ू दिल में कभी हमने
उजाले राह से लेके अँधेरे आज मोड़े हैं

अँगूठा काट लेंगे ये तुम्हें अपना बतायेंगे
लुटेरे हैं सभी देखो भलों का भेष ओढ़े हैं

बना देंगे तुझे पत्थर खुदा खुद ही बनेंगे ये
लगेगी दाँव पर अस्मत तुम्हारी ये निगोड़े हैं

~अनिता

6 thoughts on “गज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर ग़ज़ल !

    • अनीता मण्डा

      हार्दिक आभार आदरणीय

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    अतीव सुंदर रचना

    • अनीता मण्डा

      शुक्रिया राज किशोर जी

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    अति सुंदर रचना

    • अनीता मण्डा

      विभाजी हार्दिक आभार।

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