संस्मरण

मेरी कहानी 74

बहादर को भी काम मिल गिया था और हमारी जेब में पैसे आने लगे थे जिस से हम को हौसला सा हो गिया था। हम एक दुसरे को अपने नए नए तजुर्बे बताते रहते। एक दफा मैं ने पाइन ऐपल के फ्रूट का टीन लिया ,घर आ कर उस को खोल कर खाया तो मुझे इतना स्वादिष्ट लगा कि जब बहादर मेरे पास आया तो मैंने उसे खिलाया ,उस को इतना स्वादिष्ट लगा कि वोह भी रोज़ ही खाने लगा, ऐसी ही कोई कोई नई खाने की चीज़ बहादर देखता तो मुझे आ कर दिखाता ,नए नए कपडे हम खरीदते और सब से बढ़िया शुगल था फिल्म देखना जो अक्सर शनीवार और रविवार को ही लगती थी और बहुत भीड़ होती थी। जब बहादर मुझे वुल्वरहैम्पटन मिलने आता तो हम अक्सर वैस्ट पार्क में चले जाते और फूलों की किआरिओं के पास खड़े हो कर फोटो खींचते रहते। उस वक्त की कुछ फोटो अभी भी मेरे पास हैं जो उस समय के कपड़ों के बारे में भी बताती हैं जो उस समय पर्चलत थे। उस समय एक ओवर कोट जैसी ड्रैस होती थी जिस को मैकनटोश या मैक कहते थे। एक जगह यह मैक पहन कर बहादर फूलों के पास मेरे साथ खड़ा है। इन फोटो को देख कर वोह जवानी की यादें ताज़ा हो जाती हैं. दोस्ती की कीमत परदेस में ही पता चलती है। यूं तो अब बहुत दोसत बन गए थे लेकिन मेरे और बहादर के इकठे होने से हम में एक इंकलाब ही आ गिया था जो उस समय तो हम मह्सूस नहीं करते थे लेकिन आज मैं सोचता हूँ कि हम कितने आज़ाद और खुश थे।

जिस फाऊंडरी में मुझे काम मिला था ,उस का नाम होता था BROOK HO– USE CASTINGS LIMTED. इस फाऊंडरी के इर्द गिर्द इतनी फैक्ट्रियां थी कि कोई हिसाब ही नहीं , यह फैक्ट्रियां बहुत बड़ी होती थीं। हज़ारों लोग इन में काम किया करते थे। जब छुटी होती तो हज़ारों लोग बसें पकड़ने के लिए बस स्टॉपों पर बड़ी बड़ी लाइनें लगा देते थे। एक बस भर जाती और एक मिनट बाद दुसरी आ जाती। इतने लोग बस पकड़ने के लिए होते थे लेकिन कोई झगड़ा नहीं होता था बल्कि कोई गलती से आगे आ गिया तो वोह खुद ही कह देता ,” सॉरी ,आप मुझे से पहले हैं “. और दूसरा थैंक्स कह देता। दूर दूर तक चिमनीआं ही चिमनीआं दिखाई देती थी जिन में से धुआं निकलता रहता था। अब यह सारी फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं और इन की जगह हाउज़िंग एस्टेट्स बनी हुई हैं। ब्रुक हाऊस और इर्द गिर्द की सभी फैक्ट्रियों की जगह शॉपिंग सेंटर ,सिनिमा, मैकडॉनल्ड ,पिज़्ज़ा हट्ट और केएफसी जैसे रैस्टोरैंट बन गए हैं ,बड़े बड़े पब्ब और जिम्नेजियम और साथ ही बड़े बड़े कार पार्क बन गए हैं। कभी कभी मैं ब्रुक हाऊस की जगह को मन में सोचने की कोशिश करता था तो कुछ समझ नहीं आता था कि वोह कहाँ थी ।

ब्रुक हाऊस में काम करते करते हम ऐसे हो गए थे जैसे कई सालों से कर रहे हों। काम बहुत गंदे थे लेकिन जब हर शुकरवार को तन्खुआह का पैक्ट मिलता तो सब कुछ भूल जाते । शुकरवार को काम खत्म करके हम पहले सीधे ही बाथ ऐवेन्यू को नहाने के लिए जाते और हफ्ते भर के गंद को शरीर से उतारते। पहले रीसैप्शन से दो शिलिंग दे कर एक साफ़ सुन्दर तौलिआ और छोटी सी साबुन की टिकिया खरीदते और आगे जा कर एक कुर्सी पर बैठ जाते। हम से पहले भी बहुत लोग इंतज़ार में बैठे होते थे । पचीस तीस बाथ रूम होते थे। जब भी कोई नहा के बाहर निकलता तो पहले एक गोरी उस बाथ रूम को अच्छी तरह मौप से साफ़ करती और बाद में आवाज़ देती , next please ! और उसी वक्त एक आदमी उठ कर बाथ रूम में घुस जाता। अक्सर सभी दोस्त बाथ टब्ब में पड़े पड़े एक दूसरे से बातें करते रहते और रिलैक्स होते रहते। मैं और जसवंत नहाने के लिए इकठे ही जाते थे। नहा कर और कपडे बदल कर जो हम साथ ही ले आते थे ,बाहर आ जाते और पैदल ही घर को चले आते। हफ्ते के दो दिन हमारे मज़े करने के दिन होते थे। घर आ कर पहले हम दाल सब्ज़ी बगैरा बनाते और कभी कभी यह काम हमारे डैडी कर देते।

फिर हम पब्ब जाने के लिए तैयार हो जाते। एक पब्ब तो घर से पचीस तीस गज़ की दूरी पर स्टैवले रोड पर ही था, जिस का नाम होता था ऑस्ट्रेलियन इन्न। यह काफी बड़ा पब्ब था लेकिन इस में हम कम ही जाते थे और आगे जा कर ग्रेटहैम्पटन स्ट्रीट में दो पब्ब साथ साथ ही होते थे. हम ऐश ट्री में जाया करते थे। तब यह पब्ब बहुत छोटा सा होता था और इस का मालक मोटा सा गोरा होता था जिस की दोस्ती मेरे डैडी जी के साथ बहुत होती थी ,कारण यह था कि कभी यह गोरा भी ऐफ्रीका रह चुक्का था और क्योंकि डैडी जी भी ड्रिंक का मज़ा लेते थे और गोरा भी बियर सर्व करते करते पीता ही रहता था। दोनों काउंटर पर ही खड़े पीते और बातें करते रहते थे। मैं और जसवंत कुछ दूरी पर बैठते थे ताकि हम खुल कर बातें कर सकें। हम बार रूम में ही बैठते थे। स्मोक रूम में एक तो सिगरटों का धुँआ ज़्यादा होता था दूसरे बियर की कीमत एक पैनी ज़्यादा होती थी। हमारे लोग ज़्यादा बार रूम में ही बैठा करते थे। पब्ब एक दम खचाखच भरा होता था। रिवाज़ यह होता था कि जब सभी दोस्त इकठे बैठते तो हर एक को अपनी वारी देनी होती थी। पहले एक दोस्त काउंटर पे जा कर बियर के कई कई ग्लास खरीदता और ट्रे में रख कर टेबल पे ले आता। जब ग्लास खत्म हो जाते तो दूसरा दोस्त ले आता ,फिर तीसरा। ऐसा चलता ही चलता रहता था, बियर इतनी स्ट्रौंग नहीं होती थी ,तीन या साढ़े तीन पर्सेंट ही होती थी ,इस लिए चार पांच बड़े बड़े ग्लास तो आम आदमी पी जाते थे और कई तो छै ,सात और आठ ग्लास तक भी पी जाते थे ,कुछ मिनट बाद टॉयलेट जाते रहते और फिर बीअर पीने लग जाते । साथ साथ बातें करते रहते और अपने काम की बातें भी करते रहते। कुछ लोग अपनी जेब से उस हफ्ते की तन्खुआह की सलिप्प निकाल कर दिखाते कि उस ने उस हफ्ते कितने पाउंड कमाए थे ( इस को अक्सर कहा करते थे ,मैंने इस हफ्ते इतने पैसे चुक्के ),उस का कितना ओवर टाइम लगा था।

उस समय कुछ लोग गोरे फोरमैनों को बियर पिला कर ओवर टाइम लेते थे( अब यह बिलकुल नहीं है ) , सैचरडे सन्डे के लिए काम लेते थे। सैचरडे का रेट डेढ़ा होता था और सन्डे का डब्बल होता था, जिस से तन्खुआह बहुत हो जाती थी। इस को कहते थे ,सत्तो सात लाना यानी सात दिन काम करना और जिस के सात दिन लगते थे उस को लक्की बोलते थे। पब्ब में अक्सर बातें होती रहतीं कि उस के पैसे इतने नहीं होते थे और वोह दोस्तों को बोलता रहता था और कहता था कि उसे अपनी फैक्ट्री में काम दिला दे। कोई बताता कि उस ने गाँव में एक खेत खरीदा था ,किसी ने घर की रिपेअर कर ली थी। हर एक का धियान अपने गाँव की ओर ही होता था। आज तो ऐसा है कि इंडिया जाना ऐसे हो गिया है जैसे ट्रेन की सीट बुक कराई और सीधे इंडिया लेकिन उस वक्त तो बहुत बहुत साल लोग जाते ही नहीं थे क्योंकि एक तो यह डर होता था कि इंडिया से वापस आ के काम मिले या न मिले ,इस की कोई गरंटी नहीं थी और मिले भी तो अच्छा न मिले यह भी फ़िक्र होती थी और तीसरे किसी का इरादा इंग्लैण्ड में पक्के तौर पर रहने का नहीं होता था,इस लिए जितने साल भी लगा कर पैसे कमा लिए जाएँ अच्छा ही था। वोह दिन ऐसे थे कि न तो किसी को दुसहरे का ना दीवाली के दिन का पता चलता था , दिन मनाना तो दूर की बात थी। गुरदुआरा भी कोई नहीं था ,बस एक पब्ब ही थे जिस में सब मन के गुबार निकालते थे।

सभी अपनी पत्निओं से दूर थे और कुछ लोग अपनी मानसिक और शरीरक भूख मिटाने के लिए गोरिओं की तरफ खींचे जाते थे। आयरिश गोरीआं जो धंदा करती थीं पब्बों में आती रहती थीं और शिकार ढूंढ़ती रहती थीं। गोरा रंग और शराब का नशा हमारे लोगों को उन की ओर खींचता था। कुछ लोग थे जो इन गोरिओं को अपने साथ ले जाते थे। गोरीआं इन लोगों से पैसे कमा लेती थीं। अपने लोग जो गोरिओं को ले जाते थे उन की बातें कर के हँसते रहते थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन के बच्चे इंडिया थे और इंगलैंड में टूटी हुई गोरिओं के साथ रहते थे। अक्सर हम हँसते रहते थे कि बहुत लोग ऐसे थे जिन को बिलकुल ही अंग्रेजी नहीं आती थी लेकिन गोरिओं के साथ रहते थे। एक दफा मैं और डैडी जी और एक डैडी का अफ्रीका का दोस्त जिस का नाम मुझे याद नहीं , उन के एक दोस्त को मिलने उस के घर गए। उस आदमी ने एक गोरी के साथ शादी कराई हुई थी और उन का एक बच्चा भी था। जब हम ने डोर बैल की तो उस आदमी ने दरवाज़ा खोला। जब हम अंदर गए तो उन का बच्चा जो उस कमरे में था रोने लगा। उस आदमी ने अपनी गोरी पत्नी को ऊंची आवाज़ दी , ” ओए ईडी़ ! बेबी कराई ई ई ई “. जब हम उस आदमी से मिल कर आये तो बाहर आ कर हंसने लगे और यह ईडी बेबी कराई की बात बहुत सालों तक कर कर के हँसते रहे ।

कभी कभी उदासीन वातावरण भी पैदा हो जाता था। एक दफा मैं डैडी के दोस्तों के साथ रैड क्रौस स्ट्रीट में गिया जो वाटरलू रोड के नज़दीक होती थी, (अब रैड क्रौस स्ट्रीट और पास की सभी स्ट्रीटें ढा कर उस जगह आज़डा सुपर मार्किट बनी हुई है ). इस स्ट्रीट के एक घर में एक शख्स तरसेम सिंह रहता था ,उस को मिलने के लिए ही सब गए थे। जब उस के घर गए तो तरसेम सिंह और उस के कुछ साथी पब्ब से आये थे और अब छोटी छोटी ग्लासिओं में हेग विस्की पीने लगे थे जो उन के सामने मेज़ पर पड़ी थी । उन्होंने हम को भी ऑफर की। मैं तो विस्की पीता नहीं था ,लेकिन दूसरे सभी उन के साथ बैठ गए। पीते पीते तरसेम सिंह रोने लगा। उस के साथी तरसेम को गालिआं निकाल कर बोलने लगे कि अब उस को किया हो गिया था। रोते रोते तरसेम बोला ,” यार किया ज़िंदगी है हमारी ,मुझे आठ साल इंडिया से आये हुए हो गए हैं ,जब मैं इंडिया से चला था तो मेरे बेटा हुआ था ,उस वक्त वोह दो महीने का था और अब आठ साल का हो गिया होगा ,कितना बदकिस्मत बाप हूँ मैं !” सभी चुप कर गए ,कुछ देर बाद एक आदमी बोला ,” ओए सालिआ , तू ने बताया ही नहीं कि तेरे बेटा हुआ था, किया नाम है उस का ?”. तरसेम बोला, बूटा !. वोही आदमी फिर गाली निकाल कर बोला ,” ओए ! चल एक बोतल और विस्की की ले के आ ,आज बूटे की वधाई करते हैं, उस का जनम दिन मनाते हैं “. तरसेम के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई और वोह जा कर एक बोतल विस्की की और ले आया। अब सभी हंसने लगे थे और तरसेम भी हंस रहा था। कुछ देर बाद हम वापस आ गए लेकिन तरसेम के बेटे के नाम पर एक कहावत जुड़ गई थी। जब भी हम कुछ दोस्त इकठे हो कर पीने का प्रोग्राम बनाते तो हंस कर बोलते ” चलो आज बूटे की वधाई करते हैं ” .

BROOK HO– USE में नए नए लोग आ गए थे। मेरे पास की मशीन पर एक इटैलियन काम करने लगा था ,यह बहुत तगड़ा था और शरीफ भी बहुत था। उस के साथ मेरी नज़दीकी बहुत हो गई थी। जब यह खाता था तो उस का सैंडविच बहुत बड़ा और मोटा होता था जिस में पहले चीज़ होती ,फिर बीफ का पीस होता ,तीसरी तह में सलाड होता और चौथी में बहुत सा कच्चा लसुन होता था। अक्सर वोह सिहत की बातें करता रहता कि बीफ में बहुत ताकत होती है और लसुन और सलाड दिल के लिए अच्छा होता है। वोह साठ वर्ष का था लेकिन ऐसे लगता था जैसे पैंतालीस का हो। वोह मुझ से हिंदी के लफ़ज़ सीखता रहता। जो भी मैं सिखाता जल्दी ही सीख जाता लेकिन उस का प्रोनन्सिएशन कुछ अजीब सा होता था। सुबह आते ही मुझे बोलता ,”शुभ प्रभात ” ,प्रभात को वोह प्राभात बोलता था ,फिर कहता ” आज सर्दी का मौसम “. ऐसे ही हम बोलते रहते और मैंने भी उस से कुछ लफ़ज़ इटैलियन के सीख लिए थे। जब वोह मुझे शुभ प्रभात बोलता मैं भी उसे कहता ,” बंजोरनो अमीगो ” फिर मैं उस को पूछता ,”कौमें सताते ?” ,यानी तुम ठीक हो तो वोह हिंदी में बोलता ,”ठीक है “.

इटैलियन के बाद एक नया पंजाबी लड़का आ गिया , जिस का नाम था मोहन सिंह लेकिन उस को सभी मोहणी ही बुलाते थे। मोहणी मेरी उम्र का ही था और मूसा पुर गाँव का था और किसी कालज से पड़ कर आया था। यह लड़का बहुत हुशिआर था और बातें बहुत किया करता था। मोहणी ने कोई पांच छै महीने ही हमारे साथ काम किया और छोड़ कर बसों में बस कंडक्टर लग गिया। इस लड़के के कारण मेरी सारी ज़िंदगी बदल गई क्योंकि जब भी हम काम से फारग हो कर बस पकड़ते थे तो कभी कभी मोहणी उसी बस में कंडक्टर हुआ करता था और हमेशा मुझे कहता रहता , “यार गुरमेल, छोड़ यह गंदा काम और आ जा बसों पे “. वोह समय ऐसा था कि बसों पे हमारे लोग बहुत कम हुआ करते थे लेकिन धीरे धीरे इंडिया से पड़ कर आये लड़के बसों में काम करने लग गए थे और अपने लोग बसों पे काम करने वाले लड़कों को उन की सुन्दर वर्दी को देख कर बहुत इज़त की नज़र से देखते थे क्योंकि हमारे लोगों के पास इस से बड़ीआ कोई काम था ही नहीं। इस लड़के मोहणी की प्रेरणा से ही कुछ महीनों बाद मैं भी बस कंडक्टर लग गिया था और ज़िंदगी के ३६ साल इस काम पे बिताये और आखर में मुझे इस का फायदा भी बहुत हुआ। भूल न जाऊं , मोहणी ने एक बहुत सुन्दर अँगरेज़ लड़की से शादी कर ली थी जो बहुत ही अच्छी थी लेकिन विधाता को मोहणी की ख़ुशी मंज़ूर नहीं थी और कुछ सालों बाद जालंधर के नज़दीक मोटर साइकल पर जाते हुए किसी वाहन से टकरा कर मोहणी इस दुनिआ को छोड़ गिया था। उस की पत्नी इंडिया आई थी और कुछ देर इंडिया में रह कर वापस आ गई थी। मोहणी सब का इतना चहेता था कि आज भी जब कभी हम पुराने रिटायर हुए दोस्त मिलते हैं तो मोहणी की बात जरूर होती है।

चलता . . .

2 thoughts on “मेरी कहानी 74

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। आज की पूरी क़िस्त पढ़ी। आपकी जिंदगी में झाँकने का अवसर मिल रहा है। हमें उसमे एक सीधा सच्चा, तपस्वी, खुशमिजाज तथा हंसमुख युवक नजर आ रहा है। आज की क़िस्त के सभी वर्णन बहुत अच्छे लगे। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    आपकी यादों के संग चलना अच्छा लग रहा है
    रोचक लेखन

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