कुण्डली/छंद

दो कुंडलियाँ

1.

हमने देखा आज फिर, अपना मौन टटोल।
एकाकीपन के वहाँ, मिले फटे कुछ ढोल॥
मिले फटे कुछ ढोल और पसरा वीराना,
निज छाया का मात्र उधर को आना-जाना।
तन में फिरता रक्त, लगा ठंढा हो जमने,
अधिक देर रुकना न ठीक तब समझा हमने॥

2.

बता पराया नित्य यों, दिल मत मेरा तोड़।
बन जाऊँ जिस दिन घुटन, देना क्षण में छोड़॥
देना क्षण में छोड़, न फिर वापस आऊँगा,
कभी न तेरा नाम, जगत में धुँधलाऊँगा।
अपना तुझको मान, स्वयं में सदा बसाया,
रख ले जरा लिहाज, न सीधे बता पराया॥

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन