भाषा-साहित्य

कमल किशोर गोयनका से साक्षात्कार

प्र॰:- हिन्दी भाषा को वर्तमान समय में किस स्थिति में देखते हैं आप?
उ॰:- हिन्दी भाषा की स्थिति के बारे में अब इतनी चिन्ता क्यों कर रहे हैं? अब तो हिन्दी का विस्तार हो रहा है, देश में ही नहीं, विदेशों में भी हो रहा है। देश में जितने अखबार हैं, उनमें सबसे ज्यादा हिन्दी के ही हैं। हिन्दी की अब केवल इतनी चिन्ता करनी है कि उसका विस्तार और तेज गति से हो। दुनिया का सारा ज्ञान उसमें हो। ज्ञान-विज्ञान एवं सूचना-संचार प्रौद्योगिकी से अद्यतन हो और उससे जुड़े।

प्र॰:- हिन्दी को ही भारत की राजभाषा बनाने की माँग आरम्भ से ही चली आ रही है। आपका मत क्या है?
उ॰:- यह तो बड़ी स्वाभाविक सी बात है कि जो भाषा सबसे अधिक व्यवहार में हो, वही राजभाषा बनती है। आप तमिल, तेलगू किसी को भी राजभाषा बनाइए,उसमें मुझे कोई आपत्ति नही है किन्तु हिन्दी सबसे अधिक बोली और समझी जाती है। हिन्दी अन्य बोलियों और भाषाओं को साथ लेकर चलेगी। इसलिए हिन्दी राजभाषा होनी चाहिए।

प्र॰:- राष्ट्रीय एकात्मता के लिए पूरे देश में एक समान लिपि होने की बात आचार्य बिनोवा भावे, महात्मा गाँधी और बहुत से लोगों ने कही हैं। आपका दृष्टिकोण क्या है?
उ॰:- मैं समझता हूँ, यह होना चाहिए। अगर एक लिपि होगी तो मैं तमिल और बांग्ला को समझ सकता हूँ और एक बांग्ला भाषी, तमिल या तेलगू भाषी, हिन्दी को समझ सकता है। एक लिपि की बात को, मैं समझता हूँ कि प्रान्तीय भाषाओं को स्वीकार कर लेना चाहिए। स्वतन्त्रता-पूर्व के समय में पूरे देश में एक लिपि की स्थापना की बात चली भी थी। गाँधी जी ही नहीं, प्रेमचन्द ने भी कहा था, कि यदि एक लिपि होगी तो यह देश-हितकारी होगी।

प्र॰:- अन्य प्रान्तीय भाषाओं के साथ सामंजस्य-स्थापना में हिन्दी की क्या भूमिका हो सकती है?
उ॰:- बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी ही एक मात्र भारतीय भाषा है जो सभी प्रान्तों में बोली, समझी जाती है। इसलिए सामंजस्य इसी से स्थापित हो सकता है।

प्र॰:- हिन्दी भाषा की पुस्तकों का अन्य भारतीय भाषाओं तथा अन्य भारतीय भाषा की पुस्तकों का हिन्दी भाषा में अनुवाद इस दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है?
उ॰:- हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का परस्पर अनुवाद कार्य बहुत आवश्यक है। इससे भाषाएँ एक दूसरे के निकट आएंगी। शब्दों के परस्पर विनिमय से भाषाएँ समृद्ध होंगी। सामंजस्य तो स्थापित होगी ही, साथ ही साथ उनका बाजार भी बढ़ेगा। लेकिन इसके लिए पहले एक अनुवाद विश्वविद्यालय की स्थापना होनी चाहिए। भारतीय भाषाओं के लिए ही नहीं, विदेशी भाषाओं के लिए भी अलग विभाग चाहिए। अनुवाद विश्वविद्यालय में हर भाषा के लिए एक अलग विभाग होना चाहिए। यह तभी सम्भव है, अन्यथा नहीं। अनुवाद
विश्वविद्यालय की स्थापना जितनी जल्दी होगी, उतना ही लाभकारी होगा।

प्र॰:- हिन्दी भाषा के प्रसार में अभी क्या-क्या समस्याएँ हैं?
उ॰:- हम हिन्दी वाले खुद ही सबसे बड़ी समस्या हैं। क्योंकि जब तक हम हिन्दी भाषी ही हिन्दी को व्यवहार में नहीं लाएंगे, उसका दैनिक जीवन में उपयोग नहीं करेंगे, तब तक हम किस मुँह से अहिन्दी भाषी लोगो से हिन्दी के अधिकाधिक उपयोग की बात करेंगे। मुझे लगता है कि ये लड़ाई पहले अपने घर से शुरू करनी पड़ेगी।

प्र॰:- अहिन्दी भाषी प्रान्तों तथा विदेशों में हिन्दी के प्रसार के लिए सरकार से क्या अपेक्षा रखते हैं?
उ॰:- देखिए ! मैं कई बार विदेश गया हूँ। वहाँ लोग ये आशा रखते हैं कि भारत सरकार जो सांस्कृतिक केन्द्र चला रही है, वो हिन्दी का उपयोग तो करें। हिन्दी भाषा को अपनाएं। हिन्दी के कार्यक्रम करें। जब तक हमारे दूतावास हिन्दी का प्रयोग नहीं करेंगे, तब तक हिन्दी समाज कैसे इकट्ठा होगा? अभी मैं 2 महीने  तक अमेरिका में रहा। वहाँ ‘‘हिन्दी यू॰एस॰ए॰’’ एक बहुत बड़ी संस्था है। वहाँ इस संस्था ने 4,000 भारतीय परिवारों को हिन्दी से जोड़ा हुआ है। ‘हिन्दी यू॰एस॰ए॰’ ने ‘हिन्दी महोत्सव’ का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें मैं भी मौजूद था और देखा कि उसमें 400 बच्चे 40 कार्यक्रम हिन्दी में प्रस्तुत कर रहे हैं और अद्भुत तरीके से पेश कर रहे हैं और विदेशों में तो भारतीय परिवार प्रतीक्षा कर रहे हैं कि भारत सरकार की नीति हिन्दी के पक्ष में हो।

प्र॰:- हिन्दी को सर्व स्वीकार्य रूप से राष्ट्रभाषा बनाने के लिए आपके क्या सुझाव हैं?
उ॰:- देखिए! भारत की सारी भाषाएं हमारी राष्ट्र भाषाएं हैं। हिन्दी का जितना ही उपयोग होगा, उतना ही इसका प्रसार होगा और उतना ही इसे बोलने-समझने वालों की संख्या बढ़ेगी और उतना ही जल्दी यह राज भाषा के रूप में स्वीकार्य होगी।

प्र॰:- भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ में, हिन्दी को अधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए प्रयासरत है। इसका क्या प्रभाव होगा?
उ॰:- पहला तो ये कि जब भारत के लोग संयुक्त राष्ट्र संघ में जाएंगे तो उन्हें गौरव की अनुभूति होगी। 6 भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी की मान्यता होने पर लोग हिन्दी को जानने, सीखने का प्रयास करेंगे। इससे हिन्दी का प्रसार होगा। साथ ही भारत का भी सम्मान बढ़ेगा।

प्र॰:- अभी तक कितने विश्व हिन्दी सम्मेलनों में प्रतिभाग कर चुके हैं?
उ॰:- यह मेरा पाचँवा विश्व हिन्दी सम्मेलन है। इसके पहले मैं सूरीनाम, न्यूयाॅर्क, इंग्लैण्ड तथा दक्षिण अफ्रीका में हुए सम्मेलनों में भाग ले चुका हूँ और कह सकता हूँ कि यह सबसे अधिक व्यवस्थित, सबसे भव्य और सर्वश्रेष्ठ सम्मेलन है। मेरा विचार तो ये है कि ऐसा विश्व हिन्दी सम्मेलन न अभी तक हुआ था और न भविष्य में होगा। ऐसी व्यवस्था की कोई कल्पना नहीं कर सकता था।

प्र॰:- ये सम्मेलन पूर्व के हिन्दी सम्मेलनों से किस प्रकार भिन्न हैं?

उ॰:- इसमें मूल भिन्नता तो ये है कि इसमें साहित्य को हटा दिया गया है और भाषा को केन्द्र में रखा गया है। मैं इस सम्मेलन की आयोजन समिति का सदस्य भी हूँ। जब पहली बैठक हुई थी तो मैंने सुषमा जी से कहा कि साहित्य को हटाना ठीक नहीं होगा। तब उन्होंने जो तर्क दिया, मैंने स्वीकार कर लिया। मुझे लगा कि वो ठीक कह रही हैं।’’ वो कहती हैं कि ‘भाषा को केन्द्र में रखना है। समस्या साहित्य की नही है, समस्या भाषा की है। यहाँ तक कि जिन सत्रों की अध्यक्षता वह मंत्रियों से करवा रही थीं, उसका उद्देश्य यह देखना है कि मंत्रीगण यहाँ जो स्वीकार कर रहे हैं, सहमति दे रहे हैं, उसे मंत्रालय में लागू करेंगे कि नहीं। मुझे अब लगता है कि सुषमा जी का दृष्टिकोण बिल्कुल ठीक
था।

प्र॰:- सम्मेलन में सत्र के लिए विषय-चयन कितने प्रासंगिक हैं?
उ॰:- किसी भी भाषा को लेकर अनन्त विषय हो सकते हैं। इसलिए विषय तो आपको चुनने ही पड़ेंगे। यहाँ जो विषय चुने गए हैं, वो केन्द्रीय समस्या के हैं, जैसे ‘‘विधि-क्षेत्र में हिन्दी’’। हिन्दी का प्रयोग उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय में नहीं होता है। अगर इस पर विचार किया जा रहा है तो यह जरूरी है। विषयों के चयन के बारे में मतभेद नहीं होना चाहिए।

प्र॰:- बाजारीकरण के इस दौर में जब भाषाएं भी बाजार की वस्तु बन गई हैं। तब अन्य प्रतिस्पर्धी भाषाओं के सापेक्ष हिन्दी को किस स्थिति में देखते हैं, आप?
उ॰:- हिन्दी बाजार की भाषा बन रही है तो इसमें आपत्ति क्या है? अंग्रेजी बाजार की भाषा है। चीनी, बाजार की भाषा है। हिन्दी यदि बाजार की भाषा बनेगी तो उसका और विस्तार होगा। एक विदेशी आदमी हिन्दी क्यों सीखेगा? यदि हिन्दी उसके कारोबार में सहायक नहीं होगी तो वह हिन्दी नहीं सीखेगा। केन्द्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयों व संस्थानों में 250-300 विद्यार्थी आकर हिन्दी क्यों सीख रहे हैं? क्योंकि हिन्दी के माध्यम से ही, अपने देश वापस जाकर उन्हें रोजगार मिलेगा। इसलिए, यदि हिन्दी कारोबार की भाषा बनती है और बाजार की भाषा बनती है तो इसका विस्तार ही होगा। हम चाहते भी हैं कि हिन्दी, केवल साहित्य की भाषा न बनकर ज्ञान की, कारोबार की भाषा बने।

प्र॰:- वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी का भविष्य कैसा है?
उ॰:- विदेशों में जहाँ-जहाँ साहित्य रचना हो रही है, अधिकांश लोगों से मेरे सम्बन्ध हैं। अभी आस्ट्रेलिया से प्रस्ताव आया है कि वहाँ दो विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण शुरू करने जा रहे हैं। सहयोग की अपेक्षा है। हमने उन्हें कह दिया है कि हम पाठ्यक्रम दे सकते हैं। हम अध्यापक दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी शैक्षिक आवश्यकता के लिए हम सहयोग करेंगे। नीदरलैण्ड से डाॅ॰ पुष्पिता अवस्थी आयी हैं, वह चाहती हैं, कि हम नीदरलैण्ड में भी व्यवस्था करें। जर्मनी से तात्याना आयी हैं। वो चाहती हैं कि सब जगह पाठ्यक्रम एक समान
हो और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान उसको नियन्त्रित करे। तो आप समझिए कि पूरे विश्व में हिन्दी की माँग हो रही है। उसको संयमित, अनुशासित करने और उसमें एकरूपता लाने की आवश्यकता है।

प्र॰:- इस सम्मेलन के दौरान आपके मन में कोई नया विचार या कोई नया सुझाव आया हो, जिसका आप उल्लेख करना चाहते हों?
उ॰:- मैंने एक गोष्ठी की है। उसी के निष्कर्ष रूप में मैं कह सकता हूँ कि हमारा काम हिन्दी-भाषी प्रान्तों तथा विदेशों में हिन्दी का प्रसार करना है। वो हम कर रहे हैं और इस सम्बन्ध में जो भी योजना हमारे सामने आएगी, हम उसे क्रियान्वित करने की कोशिश करेंगे।

प्र॰:- इस सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता को, हिन्दी प्रेमियों क्या सन्देश देना चाहेंगे?
उ॰:- हिन्दी को तकनीकी भाषा बनाना पड़ेगा। आने वाली पीढ़ी तकनीकी ज्ञान से सम्पन्न है। अब तो ज्ञान-विज्ञान भी डिजिटलाइज हो रहा है। यदि हिन्दी को भी आधुनिक तकनीकी से जोड़कर सारा ज्ञान-विज्ञान हिन्दी में ला सके तो हिन्दी को कोई रोक नही सकता। मैं समझता हूँ कि आने वाली पीढ़ी ये करने जा रही है। हिन्दी के लिए संविधान में जो बाधाएँ हैं उन्हें दूर करना बहुत आवश्यक है। मुझे ये लगता है कि हम हिन्दी के बारे में बात तो कई बार बहुत ज्यादा कर जाते हैं, लेकिन करते नहीं है। यदि हमारे कर्म और वचन में एक रूपता हो जाए तो हिन्दी को कोई रोक नहीं सकता।

साक्षात्कारकर्ता — श्याम नन्दन 

श्याम नंदन

शोध छात्र हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (वाराणसी )