सामाजिक

क्यों न त्यागे धर्म / मजहब को स्त्रियां?

अभी कुछ दिन पहले यह खबर पढ़ी थी की सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषेध जारी रखा गया और एक और खबर पढ़ी की महाराष्ट्र के शनि देव मंदिर में एक महिला द्वारा पूजा करने और तेल चढाने पर पुरे मंदिर का ‘ शुद्धिकरण’ करवाया गया । देश में ऐसे लाखो मंदिर होंगे जिनमें स्त्रियों का प्रवेश निषेध होगा परन्तु वे मिडिया में न आने के कारण और स्थानीय परम्पराओ के कारण वे मुख्य खबरों में स्थान नहीं ले पाते हैं।

शुद्र / अछूतो/ महिलाओ का पूजा स्थलो पर जाना निषेध कोई साल दो साल की परम्परा नहीं है अपितु हजारो सालो से ये परम्पारायें चली आ रहीं है । मुस्लिम राज आके चला गया , अंग्रेज आके चले गएँ पर ये कुरीतियां अपरिवर्तित रहीं । हलाकि हिन्दू धर्म के ठेकेदार ये कहते हैं की उनके ग्रंथो में विदेशियो ने मिलावट की , यदि ग्रंथो में मिलावट की तो मंदिरो में शुद्र/ अछूतो/ महिलाओ का प्रवेश निषेध भी उन्होंने ही किया था की? चलो यह आरोप भी उन्ही पर मड़ दो,और यह भी कह दो की मंदिर का पुजारी भी ‘विदेशी ‘ ही होते थे जो प्रवेश निषेध करते थे  🙂

पर आज क्यों आप लोग ये परम्पराएँ ढो रहे हो? क्या आज भी विदेशियो का ही राज है?

पर नहीं, दरसल ये परम्पराएँ न तो विदेशियो ने थोपी न ही उन्होंने बनाई बल्कि स्वयं हिन्दू धर्म के तथाकथित ठेकेदारो ने बनाई और लागू की । धर्म ग्रंथो में शुद्र / अछूतो की तरह स्त्रियों के शोषण और भयानक दारुण उल्लेख मौजूद हैं , गर्न्थो मे स्त्री और अछूत/ शुद्र की जो दशा निर्धारित की गई है वही स्त्रियों के लिए भी अर्थात शुद्र/ अछूत और स्त्रियां तीनो समान रखा गया है ।

यदि हम वेदों से शुरुआत करें तो उसमें स्त्रियों के हृदय वैसे ही कठोर कहा गया है जैसे भेडियो के होते हैं , स्त्रियां निर्दयी और क्रूर कहा गया है ।वेदों का कथन है की स्त्रियां अपनी लालसाओं की कठपुतलियां हैं सच पूछों तो वे किसी से प्रेम नहीं करती ।

मनु का कथन है की सभी द्विज पुरुषो को पवित्र होने के लिए तीन बार आचमन करना चाहिए परन्तु स्त्रियों को एक बार । द्विज पुरुष स्नान करते समय वैदिक मंत्रो का प्रयोग करने परन्तु स्त्रियां मन्त्र न पढ़ें वल्कि मौन रूप से स्नान करें । स्त्री और शुद्र/ अछूतो की हत्या पर समान दंड का विधान दिया है ।

शुद्र / अछूतो की तरह स्त्रियों का भी उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था अत: वे भी शिक्षा का अधिकार नहीं रखती थीं ।

नारायण द्वारा रचित ‘ त्रिस्थलीय सेतु’ नामक ग्रन्थ में कहा गया है की शुद्र / अछूतो की तरह स्त्रियां भी शिव – विष्णु की मूर्तियां स्थापन नहीं कर सकते क्यों की उनका उपनयन संस्कार नहीं होता ।

महाभारत में युधिष्ठर द्वारा द्रोपदी को ‘ वस्तु’ समझ के जुएं में हारने की कथा तो सभी द्वारा ज्ञात ही है ।

गीता एक तरह से भारतीय समाज के रक्त में रची बसी कही जा सकती है ,गीता की महिमा इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की वर्तमान में  हमारे प्रधानमंत्री जी जब विदेश जाते हैं तो विदेशियो को गीता भेंट करते है । परन्तु जिसने भी गीता खुले दिमाग से पढ़ी उसने यह अवश्य पाया होगा की गीता में कृष्ण सभी कुछ में अपने को पाते हैं , अर्थात वे कहते हैं की मैं पक्षीयो में गरुण हूँ, मैं यज्ञो में जपयज्ञ हूँ, मैं साँपो में शेषनाग हूँ, मैं शस्त्रधारियो में राम हूँ , मैं पशुओ में शेर हूँ , मैं मेधा हूँ, मैं श्री हूँ आदि सैकड़ो नाम लेते हैं जिनमे खुद को वे होने का दावा करते है पर एक बार भी यह नहीं कहा की मैं किसी ‘ स्त्री ‘ में फिर चाहे वह सीता या राधा ही क्यों न हो ।

कहने का अर्थ है की धर्म ने स्त्रियों की वही निचतम् स्थिति रखी है जो उसने शुद्रो और अछूतो की रखी है , उन सारे अधिकारो से वंचित किया है जिनको  शुद्र/अछूतो से वंचित किया गया । बहुत साल पहले बाबू जगजीवन राम जी भी पूरी के मंदिर में गए थे उनके जाने के बाद पूरी के मंदिर को भी गौ मूत्र और गंगा जल से ‘ शुद्धिकरण’ किया गया था जैसा की कल उस महिला द्वारा शनि देव की पूजा करने के बाद किया गया।

कई लोग यंहा यह दलील दे सकते हैं की ऐसा स्त्रियों के मासिक चक्र के कारण किया गया था,उन दिनों रक्त बहने के कारण स्त्रियां अपवित्र होती थीं जिस कारण उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता था ।

चलो, एक क्षण के लिए माना की उस समय नेपकिन की निर्माण नहीं हुआ था और न ही कपडे का । कपडे का निर्माण हुआ भी होगा तो यह इतनी सुलभता से और प्रत्येक को नहीं मिलता होगा जिससे स्त्रियां नैपकिन बना सकें । इसलिए स्त्रियों को दूर रखा गया होगा … पर आज सभी चीजे सरलता से उपलब्ध हैं , स्त्रियां आज मासिक चक्र के दिनों में एरोप्लेन तक उड़ा रहीं है , वैज्ञानिक बन रहीं है । तब मंदिरो में पत्थर की मूर्ति छू लेने भर से वह अपवित्र कैसे हो गई?

ऐसा नहीं है की स्त्रियों को निचतम श्रेणी में सिर्फ हिन्दू धर्म में ही रखा गया है ,ऐसा इस्लाम आदि मजहबो में भी है , दूसरे मजहबो में भी स्त्रियों को कमतर समझा जाता है । कल ऐसा ही बयान सुन्नी धार्मिक नेता कांथापुरम एपी अबूबकर ने भी दिया था जिसमें महिलाओ को इस्लाम में महिलाओं को निम्न श्रेणी में रखने की बात कही थी ।

— केशव

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

One thought on “क्यों न त्यागे धर्म / मजहब को स्त्रियां?

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    केशव जी ,लेख अच्छा लगा लेकिन आप के लिखने से कुछ फरक नहीं पड़ेगा किओंकि जो प्रोहित वर्ग है वोह लोगों को अंधविश्वास से बाहर निकलने नहीं देंगे .लाखों करोड़ों अरबों रूपए जो चडावा चड़ता है ,अंधविश्वास से निकलने पर वोह बंद हो जाएगा . दाभोलकर जैसे लोगों को यह लोग जीने नहीं देंगे .बड़े बड़े धर्म गुरु ज्योतिषी बाबे जो मज़े कर रहे हैं ,अगर लोग अंधविश्वास से निकल गए तो वोह सब ख़तम हो जाएगा .

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